अब फैसला हमारे हाथ में है

अब फैसला हमारे हाथ में है 

बंदूक भी है, खंजर भी, लाश भी, 
पर अपराधी का पता नहीं, 
शायद पानी की बढ़ती कीमत,
ख़ून को सस्ता कर दिया है,
हमारे हिस्से में दुनिया का ताकतवर कानून तो है, 
कानून के हाथ बहुत लम्बे भी हैं, 
पर अफ़सोस !  
कानून के गिरफ़्त से मुजरिम बहुत दूर है ,
जैसे राम ने रावण को मारा था, 
जैसे कृष्ण ने कंश का वद्ध किया था, 
अब फैसला हमारे हाथ में है
जैसे चंद्रगुप्त ने धनानंद को पराजित किया था, 
जैसे मंगल पांडे ने अंग्रेजों को ललकारा था, 
जैसे वतन की आन-बान-शान की ख़ातिर, 
भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरू, अशफाकउल्लाह,
ने अपना सर्वस्व न्यौछावर किया था,
क्या वाकई !  
आज हम वही कर रहे हैं ?
हथियार उठाने के दो ही शर्त हैं, 
पहला, अपना अस्तित्व बचाने के लिए, 
गुलामी के जंजीरों को ध्वस्त करना, 
शोषणों का सर्वनाश करना, 
ज़ाहिलियत के अंधेरे को, 
इल्म की रौशनी से जगमगा देना,
जिस पहले शर्त को हम आजादी की जंग में पूरा कर चूके हैं, 
और अब, जब दिन-रात की कड़ी मेहनत के बाद, 
तरक्की की ख़ूबसूरत इमारत खड़ी हुई है, 
तो फिर से हम दो साल पीछे जाने की जिद्द पे अड़े हैं,
हथियार उठाने की दूसरी शर्त,
मानव सभ्यता के इतिहास की काली रात होती है, 
जब हमारी बुद्धि विपरीत दिशा में बहने लगती है, 
जब हम अपनी झूठी शान की ख़ातिर, 
मासूमों का गला रेतने लगते हैं, 
जब मानव अपनी मानवीयता भुलाकर 
रक्तपिपासु बन जाता है,  
तब की स्थिति में हथियार उठाना, 
अपने पतन का कारण बनना है, 
और कुछ भी नहीं,
अब फैसला हमारे हाथ में है, 
हम क्या चुनें ?
तरक्क़ी…, ख़ुशहाली…, 
या फिर, दर्द में सना हुआ ज़ख़्मी मुल्क…||
                                               
                              
                               
                         –मनव्वर अशरफ़ी 
                       जशपुर (छत्तीसगढ़) 
           

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