लॉटरी का टिकट

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श्रीधर पाठक एक प्राइवेट कंपनी में सुपरवाइजर के पद पर कार्य करते थे। कंपनी के मालिक श्री सोमनाथ मुखर्जी ने उन्हें यह नौकरी उनके पिता के स्थान पर दी थी। पाठक के पिता भी इसी कंपनी में मुंशी का काम देखते थे। बड़े ही भले इंसान थे कामतानाथ पाठक, बड़ी ईमानदारी और मेहनत से अपना काम करते थे। किसी अज्ञात बीमारी से पीड़ित हो चल बसे थे।

    श्रीधर बाबू भी अपना काम अपने पिता की तरह ही ईमानदारी और मेहनत से करते थे। उनकी मेहनत और लगन देखकर मुखर्जी बाबू ने उनका पारश्रमिक बढ़ा दिया था और उन्हें रहने के लिए कंपनी की ओर से एक मकान भी दिलवा दिया था। जिसमें श्रीधर बाबू अपनी धर्मपत्नी मालती और अपने दो बच्चों सहित रहते थे। उनके दोनों बच्चे एक सरकारी स्कूल में पढ़ते थे।

   श्रीधर बाबू एक महत्वाकांक्षी व्यक्ति थे और हमेशा दिवास्वप्न में खोये रहते। उनका स्वप्न था कि उनके पास भी एक बड़ा सा बंगला, गाड़ी हो और उनकी धर्मपत्नी गहनों से लदी हुई हो।

  एक दिन जब वह कंपनी से घर लौट रहे थे तो उन्होंने रास्ते में एक लाटरी का टिकट खरीद लिया , जिसकी ईनाम की राशि एक लाख रुपए थी। टिकट खरीदने के बाद से ही वह अपने स्वप्न को सच हुआ मानने लगे थे।

   आज लाटरी का परिणाम आने वाला था, श्रीधर बाबू आज समय से पूर्व ही उठ खड़े हुए और बड़ी बेसब्री से अखबार की प्रतीक्षा करने लगे थे। ज्यों ही अख़बार आया तो उन्होंने उसे अखबार वाले से तुरत ही झपट लिया और अपने कमरे में बैठ कर लाटरी का परिणाम देखने लगे।

लॉटरी का टिकट
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   परंतु उनकी किस्मत ने उनके साथ धोखा कर दिया, उनकी लाटरी के टिकट का आखिरी अंक 8 था और एक लाख रुपए जीतने वाले का अंक 7 था। अपना परिणाम एक अंक से रह जाने से उनको गहरा सदमा पहुंचा और वह बेहोश हो गये।

उसी समय उनकी पत्नी चाय लेकर आई तो अपने पति को इस हालत में देख घबरा गई और कंपनी के मालिक श्री मुखर्जी बाबू को फोन कर दिया। मुखर्जी बाबू ने उसी समय अपनी कार में पाठक जी को तुरंत अस्पताल में भर्ती कराया और उनका अच्छे से अच्छा इलाज भी करवाया।

  श्रीधर बाबू ने सात दिन बाद अपनी आंखें खोली तो अपने आप को अस्पताल में पाया। उनकी पत्नी ने उन्हें उनके साथ हुई घटना से अवगत कराया।उस दिन के बाद से श्रीधर बाबू ने दिवास्वप्न देखना छोड़ दिया साथ ही लाटरी का टिकट खरीदना।

वह अब इसके दुष्परिणाम से परिचित हो चुके थे।


– विनय मोहन शर्मा
अलवर

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