लोहे के पेड़ हरे होंगे कविता का भावार्थ सारांश प्रश्न उत्तर

लोहे के पेड़ हरे होंगे कविता रामधारी सिंह दिनकर

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लोहे के पेड़ हरे होंगे कविता की व्याख्या भावार्थ 

लोहे के पेड़ हरे होंगे, तू गान प्रेम का गाता चल,
नम होगी यह मिट्टी ज़रूर, आँसू के कण बरसाता चल।
सिसकियों और चीत्कारों से,जितना भी हो आकाश भरा,
कंकालों क हो ढेर,खप्परों से चाहे हो पटी धरा ।
आशा के स्वर का भार, पवन को लेकिन, लेना ही होगा,
जीवित सपनों के लिए मार्ग मुर्दों को देना ही होगा।
रंगो के सातों घट उँड़ेल,यह अँधियारी रँग जायेगी,
ऊषा को सत्य बनाने को जावक नभ पर छितराता चल।

व्याख्या – प्रस्तुत पंक्तियों में कवि कहता है कि हे मनुष्य ! तू प्रेम भरे गीत गाता चल। इसी से यह मशीनी संस्कृति कुछ कोमल और सरस बनेगी। तू आंसुओं की बूंदों से धरती को सींचता चल। इसी से यह कठोर मिटटी नरम बनेगी। अर्थात भावनाओं में कोमलता आएगी। हृदयहीनता की जगह संवेदनशीलता पनपेगी। चाहे सारे आकाश में सिसकियों और चीखों चिल्ल्लाहटो की आवाजें गूँज रही हों ,चाहे सब जगह मानव की हड्डियाँ के ढेर जमा हों ,चाहे खोपड़ियों से सारी धरती भरी पड़ी हो ,तब भी वायु को आशा का स्वर तो सर्वत्र फैलाना ही होगा। चाहे कितना ही विनाश क्यों न हो जाए ,तब भी आशा का वातावरण तो बनाना ही होगा। चाहे कितने मुर्दे रास्ता रोके पड़े हों ,किन्तु जीवित सपनों के लिए तो मार्ग बनाना ही पड़ेगा। सुलगते लक्ष्यों को कोई नहीं रोक सकता है। 
हे नवयुवक ! तू आशा ,उत्साह ,प्रसन्नता ,प्रेम ,करुणा ,तेज़ ,सक्रियता आदि सातों रंगों के घड़ों को उडेलता चल। इससे विनाश का घना अँधेरा अवश्य ही रंगीन हो उठेगा। यदि तू चाहता है कि यहाँ वास्तव में सवेरा आये , तो तू अपनी रागमयी भावनाओं का महावर सर्वत्र फैलाता चल। 

लोहे के पेड़ हरे होंगे कविता का भावार्थ सारांश प्रश्न उत्तर

आदर्शों से आदर्श भिड़े, प्रज्ञा प्रज्ञा पर टूट रही।

प्रतिमा प्रतिमा से लड़ती है, धरती की किस्मत फूट रही।
आवर्तों का है विषम जाल,निरुपाय बुद्धि चकराती है,
विज्ञान-यान पर चढी हुई सभ्यता डूबने जाती है।
जब-जब मस्तिष्क जयी होता, संसार ज्ञान से चलता है,
शीतलता की है राह हृदय, तू यह संवाद सुनाता चल।

व्याख्या – कवि कहता है कि आज का युग द्वन्द का युग है। एक आदर्श दूसरे आदर्श से भीड़ रहा है। एक सिद्धांत दूसरे सिद्धांत से टकरा रहा है। मानव की बुद्धि सिद्धांतों और विचारों के नाम पर परस्पर लड़ रही है। धर्म और सम्प्रदाय के नाम पर नित्य झगड़े हो रहे हैं। इस प्रकार धरती की शान्ति भंग हो रही है। मानव आज इस प्रकार घिर गया है कि स्वयं बुद्धि भी उन्हें समझने की कोशिश में लाचार हो गयी है। वह सिद्धांतों ,वादों और विचारों के चक्करदार जाल देखकर चकरा गयी है। विज्ञान रूपी जहाज पर चढ़ी हुई यह वैज्ञानिक सभ्यता आज डूबने के कगार पर खड़ी है। आशय यह है कि वैज्ञानिक उपलब्धियों ने आज मानव सभ्यता के लिए बहुत बड़ा खतरा पैदा कर दिया है। इसीलिए कवि कहता है कि हे मानव ! तू सारी मानव जाति को यह सन्देश देता रह कि शान्ति का असली मार्ग बुद्धि नहीं ,ह्रदय है। अतः ह्रदय का विकास करो ,कोमल भावनाओं को प्रोत्साहन दो। 
सूरज है जग का बुझा-बुझा,चन्द्रमा मलिन-सा लगता है,
सब की कोशिश बेकार हुई,आलोक न इनका जगता है,
इन मलिन ग्रहों के प्राणों में कोई नवीन आभा भर दे,
जादूगर! अपने दर्पण पर घिसकर इनको ताजा कर दे।
दीपक के जलते प्राण,दिवाली तभी सुहावन होती है,
रोशनी जगत् को देने को अपनी अस्थियाँ जलाता चल।

व्याख्या – कवि कहता है कि आज सूर्य का प्रकाश देने की शक्ति नष्ट हो गयी है। कितने ही लोगों ने कोशिश की ,किन्तु इनका प्रकाश वापस नहीं लौट रहा। आशय यह है कि संसार को आशा ,उत्साह और प्रकाश देने वाली सारी शक्तियां मंद पड़ गयी हैं। सर्वत्र निराशा ही निराशा व्याप्त है। कवि कामना प्रकट करता है कि कोई तो हो जो इन मैले हो गए प्रकाश पुंजों में पुनः नयी ज्योति भर दे। निराशा को आशा में बदल दे। कोई कलाकार अपनी जादुई शक्ति से इन ज्योति पुंजों को पुनः प्रकाशित कर दे। कवि बलिदान की प्रेरणा जगाते हुए कहता है कि दिवाली की शोभा तभी बढ़ती है जबकि असंख्य दीपक अपने प्राणों को प्रज्ज्वलित करते हैं। उसी भाँती आज सर्वत्र आशा और उत्साह का वातावरण बनाने के लिए कुछ लोगों को आत्म बलिदान करना पड़ेगा। 
क्या उन्हें देख विस्मित होना,जो हैं अलमस्त बहारों में,
फूलों को जो हैं गूँथ रहे सोने-चाँदी के तारों में।
मानवता का तू विप्र! गन्ध-छाया का आदि पुजारी है,
वेदना-पुत्र! तू तो केवल जलने भर का अधिकारी है।
ले बड़ी खुशी से उठा, सरोवर में जो हँसता चाँद मिले,
दर्पण में रचकर फूल, मगर उस का भी मोल चुकाता चल।

व्याख्या – कवि कहता है कि हे मनुष्य ! तू उन विलासियों को देखकर क्यों हैरान हो जो पूरी तरह सुख विलाश में मग्न हैं ? जो सोने चाँदी के धागों में फूलों को गूंथ रहे हैं अर्थात वैभव का जीवन भोग रहे हैं। अरे ,तू उन सांसारिक ऐश्वर्यों में न जा।  तू तो पूरी मानवता का हितैषी है। तू सदा से गंध और छाया अर्थात सत्य ,सौन्दर्य और आत्मिक गुणों का चहेता रहा है। अरे ,तूने तो वेदनाओं में ही जीना सीखा है। अतः कष्टों के अनुभव में आनंद खोज। बलिदान भाव से मानवता का कल्याण करता चल। तुझे सरोवर में क्यों न हो ,जहाँ भी हँसता हुआ चाँद मिले ,उसे स्वीकार कर। अपने ह्रदय रूपी दर्पण में फूलों की रचना कर। आशय यह है कि आशा और सौन्दर्य को अपना ले किन्तु उनका भी मोल चुका। 
 

लोहे के पेड़ हरे होंगे कविता के प्रश्न उत्तर

प्र. लोहे के पेड़ हरे होंगे ‘ – इस प्रबल आत्मविश्वास का क्या आधार है ?
उ. लोहे के पेड़ हरे होंगे – इस प्रबल आत्मविश्वास का आधार यह है कि कवि निर्माण में अटूट आस्था रखता है। उसके अनुसार ,वातावरण कैसा भी निराशमय हो ,लेकिन आशा कभी समाप्त नहीं हो सकती है। यदि कविजन प्रेम ,करुणा आदि गुणों के विकास की शुरुआत कर दें तो जीवन में मधुरता अवश्य आएगी। मशीनी वातावरण नष्ट हो जाएगा। 
प्र. दुःख और निराशा के वातावरण में मनुष्य का क्या कर्तव्य होना चाहिए ?
उ. दुःख और निराशा के वातावारण में मनुष्य का यह कर्तव्य होना चाहिए कि वह आशा का वातावरण बनाने की भरपूर कोशिश करे। वह अपनी कोमल भावनाओं का प्रसार करे जिससे जीवन सरस हो ,दुःख मिट जाएँ। 
प्र. समाज की कैसी स्थितियां देखकर बुद्धि चकराती है ? उससे मुक्ति का क्या उपाय हो सकता है ?
उ. आज समाज में कहीं आदर्शों के नाम पर लड़ाईयां हैं तो कहीं बुद्धि या विचार के नाम पर झगड़ें हैं। कहीं सम्प्रदाय और धर्म के नाम पर झगडे हैं। कहीं तर्क और कुतर्क के जाल फैलें हुए हैं। ये सब स्थितियां देखकर बुद्धि चकरा जाती है। 
इन सब स्थितियों से पीछा छुड़ाने का एक ही उपाय है कि बुद्धि का रास्ता छोड़कर ह्रदय का रास्ता अपना लें। विचार का रास्ता छोड़कर भावना का रास्ता अपना लें। 
प्र. विज्ञान यान पर चढ़ी हुई सभ्यता डूबने जाती है। ‘ दिनकर के इस कथन का आशय स्पष्ट करते हुए बताइए कि आप इससे कहाँ तक सहमत है ?
उ. जिस आधुनिक सभ्यता ने विज्ञान के बड़े बड़े आविष्कार कर लिए हैं ,वह वैज्ञानिक सभ्यता आज मनुष्य के लिए हानिकारक सिद्ध हो रही है। इस वैज्ञानिक सभ्यता में मनुष्य दुःख और विनाश की ओर बढ़ रहा है। विज्ञान द्वारा बनाये गए परमाणु बम , हथियार आदि मनुष्य जीवन के लिए खतरा बन गए हैं। तीव्र वैज्ञानिक साधनों के कारण पर्यावरण प्रदुषण बढ़ रहा है। मानव तर्कशील ,प्रगतिकामी ,चालाक और भावनाशून्य बनता जा रहा है जिससे जीवन का सच्चा सुख छिनता जा रहा है। मैं दिनकर की इस धारणा से सहमत हूँ। 
प्र. वेदना पुत्र किसे कहा गया है और क्यों ?
उ. वेदना पुत्र कवि को कहा गया है। कवि दुःख और वेदना के अनुभवों से कविता लिखता है। बिना वेदना की तीखी अनुभूति के कविता का जन्म नहीं हो सकता है। इसीलिए कविता को वेदना पुत्र कहा गया है। 

लोहे के पेड़ हरे होंगे कविता का सारांश उद्देश्य 

लोहे के पेड़ हरे होंगे कविता रामधारी सिंह दिनकर जी द्वारा लिखित प्रसिद्ध कविता है।  प्रस्तुत कविता के माध्यम से कवि ने मशीनी सभ्यता के कारण जो नीरसता ,उथल पुथल कठोरता और जड़ता पैदा हो गयी है। उसे दूर करने के लिए प्रेम और करुणा के कोमल भावों का प्रसार करो। बुद्धिवाद के अधिक प्रचार के कारण लडाई झगड़े बढ़ रहे हैं। मतों ,विचारों और आदर्शों के झगड़े तभी दूर हो सकते हैं जबकि हार्दिक गुणों का विकास किया जाए। आज सर्वत्र निराशा का बोलबाला है। ऐसे समय में प्रकाश और उत्साह का वातावरण बनाने की गहरी आवश्यकता है। कुछ कर गुजरने के लिए बलिदान करना जरुरी होता है। कवियों को चाहिए कि वे ऐसे मानवीय पीडाओं को गहराई से अनुभव करें तथा मानवता के कल्याण के लिए आगे बढे। चालक ,तेज़ और कुशल की बजाय भोले ,सरल और निश्चल होंगे। हम उन्नत कम होते ,लेकिन सुखी अधिक होंगे। 

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