स्त्री और समर्पण
स्त्री जिस किसी भी
अवतार में हुई,
खुद की परवाह किए बिना
दूसरों पर निसार हुई,
( कुछ अपवादों को छोड़कर )
‘मां’ हुई जब वो तो
उसने उड़ेल दिया अपनी
औलाद पर
हृदय में संचित स्नेह था जितना,
प्रत्युत्तर में भले ही ना पाया हो
उतना स्नेह
लेकिन देने में उसने कोई कमी
ना रखी कभी।
‘बहन’ हुई जब वो तो
निभाया उसने रिश्ता उम्र भर
भाई-बहनों से,
उनकी सुख-सलामती के लिए वो रही
हमेशा फिक्रमंद,
प्रत्युत्तर में भले ही ना पाई हो
उतनी तवज्जो
लेकिन देने में उसने कोई कमी
ना रखी कभी।
‘बेटी’ हुई जब वो तो
महकाया उसने आंगन मां-बाप का
अपनेपन की खुशबू से,
दूर होकर भी उसकी जान रही समाई
मां-बाप ही में,
प्रत्युत्तर में भले ही ना पाया हो
उतना सहारा
लेकिन देने में उसने कोई कमी
ना रखी कभी।
‘प्रेमिका’ हुई जब वो तो
प्रेम के आकर्षण से
बदल दिये उसने पुरुष की दुनिया के मायने
और कर पाया वो असंभव को भी संभव,
प्रत्युत्तर में भले ही ना पाया हो
उतना प्रोत्साहन
लेकिन देने में उसने कोई कमी
ना रखी कभी।
‘पत्नी’ हुई जब वो तो
सजा दी करीने से
अस्त-व्यस्त ,बिखरी हुई सी पुरुष की जिंदगी
और होम कर दिया अपना सारा जीवन
उसकी कामयाबी के लिए,
प्रत्युत्तर में भले ही ना पाया हो
उतना श्रेय
लेकिन देने में उसने कोई कमी
ना रखी कभी।
‘दोस्त-सहकर्मी’ भी हुई जब वो तो
पुरुष में जगा दी उसने
सभ्य,शालीन और सुरुचिपूर्ण होने की प्रवृत्ति,
प्रत्युत्तर में भले ही ना पाया हो
उतना सम्मान
लेकिन देने में उसने कोई कमी
ना रखी कभी।
पुरुष ने ना
‘दादी-नानी’ हुई जब वो तो
करती रही हमेशा कोशिशें
अपने नाती-पोतों की हर जायज-नाजायज
जिद पूरी करने में,
बचाती रही उनको मां-बाप के गुस्से से,
प्रत्युत्तर में भले ही ना पाया हो
उनका समय
लेकिन देने में उसने कोई कमी
ना रखी कभी।
पुरुष ने स्त्री के लिए जो कुछ किया
अपनी मर्दानगी का रौब दिखाने
के लिए किया,
स्त्री ने पुरुष के लिए जो कुछ किया
इस धरती पर उसका अस्तित्व बनाए रखने
के लिए किया।