हल्का-फुल्का मनोरंजन / विचार मंथन

मनोज सिंह 
बिना कहानी के क्या किसी फिल्म का निर्माण संभव है? नहीं। बिल्कुल नहीं। हर जीवन की एक कहानी होती है तो हर कहानी में कई जीवन हो सकते हैं। यह कहानी की एक पहचान ही नहीं, मूल तत्व भी है। इतिहास भी कई कहानियों का एक खूबसूरत सम्मिश्रण ही तो है। हिंदी फिल्म के इतिहास को देखें तो जितनी भी बेहतरीन और बेजोड़ क्लासिकल फिल्में बनी हैं सब के सब अपनी किसी न किसी विशिष्टता के कारण ही उस मुकाम तक पहुंची। उनमें से अधिकांश लोकप्रिय प्रकाशित उपन्यासों अथवा लोककथाओं पर आधारित हैं। हॉलीवुड में भी कुछ ऐसा ही नजारा देखने को मिलता है। कह सकते हैं कि कहानियों की अपनी कहानी है। जीवन की हर कहानी में नवीनता होती है और यही बात हम अपनी लिखी कहानियों में भी ढूंढ़ते हैं। मानव-निर्मित कहानी में मानवीय संवेदना, सामाजिक पहलू, जीवन की सत्यता आदि कुछ पक्ष लेकर चलना आवश्यक है। पाठक को बांधे रखने के लिए रोचकता और उत्सुकता पैदा करना भी हर कहानी के लिए जरूरी है। बहरहाल, एक अच्छी कहानी के बिना अच्छी फिल्म संभव नहीं। और अच्छी फिल्मों में अच्छी कहानी का होना आवश्यक है। इन सब तथ्यों के बावजूद, क्या इस बात की परिकल्पना की जा सकती है कि कोई फिल्म बिना किसी कहानी के ही बना दी जाये? हां, आज के युग में सब कुछ संभव है। 'बोल बच्चन' को देखकर तो ऐसा ही कुछ लगता है।
किसी आकस्मिक घटना पर एक किरदार द्वारा अनायास एक झूठ बोलना और फिर उस झूठ को सत्य सिद्ध करने व प्रतिक्रियाओं से बचने के लिए अन्य संबंधित पात्रों द्वारा भी झूठ पर झूठ बोलते जाना। बस, इसी तरह से पूरे तीन घंटे का नाटक 'बोल बच्चन' फिल्म में रच दिया गया है। हां, इन सबके बीच में हास्य का पुट डालने की कोशिश जरूर की गयी है। नाटक शब्द का भी सही मायने में कहें तो यहां दुरुपयोग हो रहा है क्योंकि नाटक भी कभी नहीं चाहता कि वो नाटक लगे। और ऊपर से हास्य-व्यंग्य के लिए भी घटनाक्रमों को जबरन खींचा गया प्रतीत होता है। आश्चर्य तो इस बात का अधिक हुआ कि यह फिल्म अजय देवगन के द्वारा बनाई और अभिनीत की गई है, जिसमें अभिषेक बच्चन मुख्य किरदार के रूप में उपस्थित हैं। अजय देवगन के चाहने वालों की कोई कमी नहीं। जिसने उनकी 'खाकी' और हाल-फिलहाल में 'सिंघम' फिल्म देखी है, वो उनके अभिनय प्रतिभा से जरूर प्रभावित हुए होंगे। 'हम दिल दे चुके सनम' में उनकी उत्कृष्ट अभिनय के द्वारा प्रदर्शित की गई मानवीय संवेदनाओं का कोई जोड़ नहीं। मूल रूप से स्टंटमैन के रूप में स्थापित इस अभिनेता ने 'राजनीति' फिल्म में भी अपने अभिनय का लोहा मनवाया है। कुशल डायरेक्टर और कुछ एक बेहतरीन कहानियां इस अभिनेता को शिखर पर ले जा सकती हैं। अभिषेक बच्चन के बारे में अमूमन काफी ठंडी प्रतिक्रियाएं देखने को मिलती हैं। मगर शायद यह उनके साथ न्याय न करना जैसा होगा। जिसने रामगोपाल वर्मा की 'सरकार' देखी है वो मेरे तर्क में मेरे साथ खड़े होने से इनकार नहीं कर सकते। इस फिल्म में कहीं-कहीं वो अमिताभ बच्चन को भी चुनौती देते हुए प्रतीत होते हैं। यह एक बार फिर इस बात को प्रमाणित करता है कि एक सफल डायरेक्टर जानता है कि किसी अभिनेता से उसका सर्वश्रेष्ठ कैसे लिया जाये। साथ ही, एक अच्छी कहानी किसी अभिनेता के चरित्र को लंबे समय के लिए स्थापित कर सकती है। यह सत्य है कि इस मायावी दुनिया में अन्य क्षेत्रों से कुछ अधिक ही भाग्य का अपना प्रमुख रोल रहा है। ऐसा महसूस होता है कि अभिषेक बच्चन अपने भाग्य के उस टर्निंग-प्वाइंट का इंतजार कर रहे हैं जहां से उन्हें अपनी स्वतंत्र ऊंची उड़ान भरनी है।
उपरोक्त दोनों कलाकार अति संवेदनशील हैं और किसी भी तरह के विवाद से अब तक दूर ही रहे हैं। दोनों की पत्नियां सफल महिलाएं हैं जिनके साथ वे सुखद पारिवारिक जीवन व्यतीत कर रहे हैं। यहां सवाल उठता है कि ऐसे दो स्थापित प्रमुख कलाकारों के द्वारा इतनी हल्की-फुल्की फिल्में कैसे और क्यों की जाती है? इनको इस तरह की फिल्में करने की क्या आवश्यकता आ पड़ती है? यहां सवाल किया जाना स्वाभाविक है। इसमें कोई शक नहीं कि इस फिल्म में कोई भी बेहूदगी, ओछापन, नग्नता और ऐसा कुछ नहीं है जो कि समाज में स्वीकार्य न हो। तथा आम परिवार के साथ बैठकर न देखा जा सके। यह भी सत्य है कि इस फिल्म का मूल उद्देश्य मनोरंजन है। यहां मेरा काम फिल्म की समीक्षा करना नहीं। न ही मैं इस क्षेत्र में स्वयं को विशेषज्ञ मानता हूं। मगर इनते बड़े कलाकारों की उपस्थिति में यह सवाल तो किया ही जा सकता है कि क्या फिल्मकार अपने उद्देश्य में सफल रहा है? अगर पिक्चर-हॉल में हंसी और ठहाकों का पैमाना ही सब कुछ है तो हां, प्रारंभिक दिनों में हाऊसफुल चल रही इस फिल्म में बच्चों से बूढ़ों तक को हंसते और ठहाके लगाते हुए देखा जा सकता है। अजय देवगन का अंग्रेजी भाषा पर व्यंग्य और मजाक उड़ाने के संवाद कुछ दिनों तक याद भी किये जायेंगे। शायद यही इस फिल्म का प्रमुख आकर्षण माना जा सकता है। वरना और कुछ नहीं है इसमें याद रखने लायक। और तो और दो-दो नायिकाओं को अपनी उपस्थिति दर्ज कराने के लिए इस पूरी फिल्म में कुछ विशेष नहीं है। आज के तथाकथित आधुनिक युग में दो-दो महिला चरित्र का मात्र शो-पीस बने रहना अटपटा लगता है। मगर मैं फिर अपने मूल प्रश्न पर वापस आता हूं कि फिल्मों को बिना कहानी अर्थात बिना सिर-पैर के बनाना क्या उचित है? वैसे तो उचित-अनुचित जैसे शब्द अब इस काल में निरर्थक हो चुके हैं। क्या हम यूं ही शूटिंग के दौरान शब्दजालों और नाटकीय घटनाक्रम को जोड़ते हुए फिल्म का निर्माण कर सकते हैं? इस फिल्म को देखकर तो यह संभव लगता है। मन में शंका उत्पन्न होती है कि क्या इस तरह की हल्की-फुल्की फिल्में आजकल ही बन रही हैं? नहीं, ऐसा कहना उचित न होगा। फिल्मों के हर दौर में ऐसी फिल्मों की सूची बनाई जा सकती है। इसके लिए अकेले वर्तमान काल को दोषी ठहराना उचित न होगा। लेकिन हां, अगर हम तुलना करने लगें तो इस तरह की फिल्मों का प्रतिशत इस दौरान बड़ी तेजी से बढ़ा, जो फिर ठीक भी है। आखिरकार हमारे जीवन का प्रतिबिंब ही तो है सिनेमा।
पिछले दिनों नसीरुद्दीन शाह का एक कथन आया था कि बॉलीवुड में अच्छी फिल्मों के न बनने का कारण कमजोर साहित्य लेखन है। शायद यहां यह कथन सच साबित होता है। वैसे पूरे वर्तमान काल को सिरे से नकार देना उचित न होगा। आज भी कई अच्छी फिल्में बनाई जाती हैं। जिनमें से अधिकांश में एक दिलचस्प व नई कहानी होती है। ये आज के परिवेश और हमारी समस्याओं से बातें करती प्रतीत होती हैं। कुछेक बेहतरीन उपन्यास आज भी लिखे जा रहे हैं। मुश्किल इस बात की है कि भारतीय फिल्म इंडस्ट्री अब मेहनत करने से जी चुराने लगी है। वो दौर चले गये जब एक-एक गाने के लिए महीनों मेहनत की जाती थी। जो फिर सालोंसाल तक कई पीढ़ियों के द्वारा गुनगुनाये जाते थे। आज की फिल्म इंडस्ट्री का कर्ताधर्ता अब उतना समय नहीं देना चाहता। जब उसे आसानी से करोड़ों कमाने को मिल रहे हों और लोकप्रियता बरकरार रहे तो उसे बेवजह माथापच्ची करने की क्या आवश्यकता? और क्यूं करना? मगर फिल्म वालों द्वारा यह कहना कि आज के दौर में अच्छी फिल्में पसंद नहीं की जाती शायद पूर्णतः निराधार है। हॉलीवुड में यही फर्क है। आज भी वहां नये विषयों पर काम होता है। नये-नये दृष्टिकोण दिखाये जाते हैं। वहां जोखिम लेने की प्रथा और प्रवृत्ति है। और ऐसी फिल्में विश्वस्तर पर बखूबी देखी जाती हैं। यहां हिंदुस्तान में भी उनको सराहा जाता है। यही नहीं कई पुरानी और लोकप्रिय हिन्दी फिल्मों को आज भी बेहद पसंद किया जाता है। मुश्किल इस बात की है कि हिंदी फिल्म व्यवसाय से जुड़ा वर्ग अब सृजन का आनंद नहीं लेता। वो मस्ती में डूबा हुआ और भिन्न-भिन्न नशे में पागल है। वह पूंजीवादी बाजार से पूरी तरह प्रेरित है और जाने-अनजाने ही बाजार का सहयोग भी कर रहा है। वह हमें ऐसे समाज की ओर ले जा रहा है जहां पैसे से अधिक कुछ भी महत्वपूर्ण नहीं। उसके लिए हर एक पल अति महत्वपूर्ण है। वो जल्दी में है। यह फॉस्टफूड का दौर है जो हिंदुस्तान में अपने पूरे शबाब पर है। अब ठहराव का जमाना नहीं। दर्शक भी तीन घंटे की फिल्म में सिर्फ हल्के-फुल्के मनोरंजन से सब कुछ भूल जाना चाहता है। यह दीगर बात है कि सिनेमाघर से बाहर निकलने पर वो मन-मस्तिष्क से भी हल्का हो जाता है। ये विचार-शून्य, संस्कृतिविहिन मनुष्य फिर हल्के समाज का निर्माण करता है। ये फिल्म उसे याद नहीं रहती। वो कुछ याद रखना भी नहीं चाहता। वो तो स्वयं के अस्तित्व को भी भूल चुका है। वो अब मशीन बन चुका है। जहां जीवन का दर्द नहीं, स्पंदन नहीं, खुशबू नहीं, अहसास नहीं। बस सब हवा है। यह हमारे जीवन का मर्म बन चुका है। जीवन जीने का तरीका बन चुका है। अब यही हमारी जीवनशैली है। ऐसे काल में निर्माता-निर्देशक से समाज-सुधारक के रोल की उम्मीद करना उचित न होगा। उस पर उंगली उठाने का अधिकार कम से कम दर्शक को नहीं।

यह लेख मनोज सिंह द्वारा लिखा गया है.आप ,कवि ,कहानीकार ,उपन्यासकार एवं स्तंभकार के रूप में प्रसिद्ध है .आपकी चंद्रिकोत्त्सव ,बंधन ,कशमकश और ‘व्यक्तित्व का प्रभाव‘  आदि पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी है .

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