हिन्दी भाषा किसी प्रमाण की मोहताज नहीं

हिन्दी भाषा किसी प्रमाण की मोहताज नहीं

हिन्दी भाषा के प्रति भारतीयों के मन में श्रृद्धा और सम्मान प्रेरित करने के लिए 14 सितंबर 1949 से हिंदी दिवस मनाए जाने की शुरुआत की गई है। सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि हिंदी के लिए अपनों से ही ऐसे सम्मान को पाए जाने की आवश्यकता महसूस क्यों होती है। इसका कारण सीधे देखा जाए तो एक मुहावरे में मिल जाएगा कि घर की मुर्गी दाल बराबर। यह मुहावरी मानसिकता हर भारतीय के अंदर मिलना मानो उसकी पहचान बन गई है। अपने देश की कोई भी वस्तु, व्यक्ति, स्थान, शिक्षा, भाषा, व्यवसाय, नौकरी, व्यवस्था, संस्थान, सड़कें, इमारतें, वैज्ञानिक और सामाजिक उपलब्धियां, लोग और वो सब कुछ जितना बोला जा सके, सब बुरे लगते हैं, कमतर दिखते हैं। आम से आम भारतीय भी अपने देश की तुलना विश्व के अन्य देशों विशेषकर अमेरिका, जर्मनी, जापान, कनाडा आदि देशों से ऐसे करने लगता है, मानो वहां की परिस्थितियां अपनी आंखों से देखकर आए हों। यही हाल हिंदी को लेकर बरसों से होता आया है। हिंदी की दशा और दिशा हिंदी दिवस के लोकप्रिय विषयों में से एक बना दिया गया है।    

हिन्दी भाषा किसी प्रमाण की मोहताज नहीं

हिंदी एकमात्र ऐसी भाषा है जिस पर भाषाई और साहित्यिक परिधियों से कहीं अधिक दूसरे विविध आयामों के संदर्भ में विमर्श होते हैं। हिंदी पर विमर्श कम, कुतर्क अधिक होते हैं और करने वाले भी कोई दूसरे नहीं हिंदी के अपने देश वाले लोग उसे छलनी करते हैं। क्यों, यदि पूछा जाए, तो इसका उत्तर स्वयं उनको भी न मालूम हो। बस, भेड़चाल की तरह विरोध करना है, हिंदी का विरोध फैशन बन गया है। अपने ही देश में हिंदी को इस स्थिति में पहुंचाने वाले लेकिन खुश भी नहीं हो पाते हैं, क्योंकि जब विश्व स्तर पर हिंदी भाषा को उसकी अपनी मेधा का सम्मान मिलता है, तो ये लोग उसे सिरे से नकारने के झूठेपन में अपना संतोष खोजते दिखाई पड़ने लगते हैं। 

देश के जानेमाने भाषाविद् डॉ जयंती प्रसाद नौटियाल की वर्ष 2021 में सामने आई अद्यतन रिपोर्ट में प्रामाणिक तथ्यों एवं नवीनतम आंकड़ों पर आधारित अद्भुत शोधों और मानदंडों पर की गई गणना के अनुसार हिंदी विश्व में पहले स्थान पर आती है। हताशा तब होती है जब ऐसी प्रामाणिक और अनुमोदित रिपोर्ट पर भी कुछ विद्वान प्रश्नचिन्ह खड़े करते हैं। इसे विद्वता के स्तर पर हिंदी को मिलने वाले धोखे की श्रेणी में निःसंदेह रखा जा सकता है। 

अक्सर बहुत से विद्वानों से लेकर साधारण लोग यह कहते पाए जाते हैं, कि हिंदी ही ऐसी भाषा है, जिसका दिवस मनाना पड़ता है। यानि इस कथ्य के माध्यम से वे यह साबित करने का प्रयास करते हैं कि हिंदी की स्थिति इस कदर दयनीय है कि दिवस का सहारा लेना पड़ा है। प्रतिवर्ष 14 सितंबर के राष्ट्रीय हिंदी दिवस से ऊपर उठकर जब प्रथम विश्व हिन्दी सम्मेलन में 10 जनवरी 1975 से विश्व हिंदी दिवस हर साल 10 जनवरी को मनाया जाने लगा, तो हिंदी की दिवस मनाने वाली जगहंसाई को अपने ही लोगों ने भुनाना शुरु कर दिया। अब तो उन्हें कहने के लिए जैसे और अवसर मिल गया कि हिंदी वो भाषा है जो दिवसों की बैसाखियों का सहारा लेकर बढ़ रही है।  खैर, यह उनकी सोच हो सकती है कि वे दिवस मनाने की प्रणाली को किस रुप में देखते हैं। 

भाषा को प्रसारित और प्रचारित करने के लिए दिवसों के रुप में मनाए जाने की परम्परा की महत्ता को विश्व स्तर पर पहचानने में ये दोनों हिंदी दिवस मूलाधार बने हैं। वर्ष 2010 से संयुक्त राष्ट्र के सार्वजनिक सूचना विभाग द्वारा उनके संगठन की सभी छह आधिकारिक भाषाओं अरबी, चीनी, अंग्रेजी, फ्रेंच, रूसी और स्पेनिश के भाषा दिवस नियत किए गए हैं। तब से विश्व में हिंदी अकेली ऐसी भाषा नहीं है, जिसके दिवस मनाए जाते हैं, बल्कि अरबी भाषा दिवस 18 दिसंबर, चीनी भाषा दिवस 20 अप्रैल, अंग्रेजी और स्पेनिश भाषाओं के दिवस 23 अप्रैल, फ्रैंच भाषा दिवस 20 मार्च और रुसी भाषा दिवस 6 जून को मनाए जाने लगे हैं। अच्छा है अब शायद हिंदी दिवसों के मनाए जाने पर मजाक उड़ाने वाले अपने लोगों को कुछ महत्ता समझ आ सके। पर शायद नहीं भी आ सकती क्योंकि ये उस मानसिकता के लोग हैं, जो किसी अपने के मिलने पर नोबेल पुरस्कार को भी कमतर समझने लगें। 

बात यहां सत्य को स्वीकार करने की है, हिंदी की भाषाई वैज्ञानिकता, सहजता, नम्यता और बोधगम्यता ने उसकी मौलिकता पर खासा प्रहार किया है। आज हिंदी अपने ही मौलिक स्वरुप को खोजने के लिए मजबूर है और यह धोखा उसे अपनों से ही मिला है। पिछले दिनों हिंदी व्याख्यानों में मानदेय राशि पर अपनी पीड़ा ज़ाहिर करने वाले प्रख्यात साहित्यकार और भाषाविद श्री राहुल देव ने ट्विटर के माध्यम से हिंदी व्याख्यानदाताओं के लिए मानदेय व्यवस्था पर अपने विचार जाहिर किए तो एक तथाकथित विद्वान ने हिंदी के समस्त विद्वानों के व्याख्यानों को मुजरे की संज्ञा देकर हिंदी की गरिमा को लहूलुहान कर दिया। ऐसे अनगिनत उदाहरण देश के कोने कोने में भरे पड़े हैं, जहां हिंदी को अपने ही लोगों से अपमान मिलते हैं।

परंतु यह हिंदी के आत्मसम्मान और आत्ममेधा का विश्वास है कि उसके चाहने वाले, उसकी सेवा करने वाले, उसका सम्मान करने वाले इतने भी कम नहीं हैं, कि इस विश्व और इस देश में हिंदी की अस्मिता को लुप्तभाषा में परिवर्तित कर पाने की हिम्मत कोई कर सके। हिंदी के प्रति वैमनस्य और कमतरता का भाव रखने वाले उसके अपने धोखेबाज लोग दो तरह के हैं, एक वे जो बिना जाने समझें हां में हां मिलाते आ रहे हैं और दूसरे वे जिन्हें हिंदी की आभा में अपनी भाषाओं की कीर्ति कम हो जाने का भय सालता रहता है। 

इन दोनों तरह के लोगों से निवेदन है कि वे अपनी निम्न मानसिकता को त्यागकर खुले हृदय से अपनी हिंदी को अपनाएं, उसका सम्मान करें। प्रतिभाएं प्रमाणों की मोहताज नहीं होतीं, हिंदी की विश्व लोकप्रियता इसका सबसे बड़ा उदाहरण है।

–  डॉ. शुभ्रता मिश्रा, गोवा
ईमेल- shubhrataravi@gmail.com
मोबाइल- 8975245042

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