हुई ताख़ीर तो कुछ – मिर्ज़ा ग़ालिब

हुई ताख़ीर तो कुछ बाइस-ए-ताख़ीर भी था
आप आते थे मगर कोई इनाँगीर भी था

तुम से बेजा है मुझे अपनी तबाही का गिला
उस में कुछ शाइब-ए-ख़ूबी-ए-तक़दीर भी था

तू मुझे भूल गया हो तो पता बतला दूँ
कभी फ़ितराक में तेरे कोई नख़्चीर भी था

क़ैद में थी तेरे वहशी को तेरी ज़ुल्फ़ की याद
हाँ कुछ एक रंज-ए-गिराँबारि-ए-ज़ंजीर भी था

बिजली एक कौंध गई आँखों के आगे, तो क्या
बात करते, कि मैं लब तश्ना-ए-तक़रीर भी था

यूसुफ़ उस को कहूँ और कुछ न कहे, ख़ैर हुई
गर बिगड़ बैठे तो मैं लायक़-ए-ता’ज़ीर भी था

देख कर ग़ैर को क्यूँ हो न कलेजा ठंडा
नाला करता था वले तालिब-ए-तासीर भी था

पेशे में ऐब नहीं, रखिये न फ़रहाद को नाम
हम ही आशुफ़्तासरों में वो जवाँ मीर भी था

हम थे मरने को खड़े पास न आया न सही
आख़िर उस शोख़ के तरकश में कोई तीर भी था

पकड़े जाते हैं फ़रिश्तों के लिखे पर नाहक
आदमी कोई हमारा दम-ए-तहरीर भी था

रेख्ता के तुम्हीं उस्ताद नहीं हो “ग़ालिब”
कहते हैं अगले ज़माने में कोई “मीर” भी था

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