भारत सरकार अधिनियम-1935-Government of India Act-1935

भारत सरकार अधिनियम-1935 ब्रिटिश संसद द्वारा अगस्त 1935 में भारत शासन हेतु पारित किया गया सर्वाधिक विस्तृत अधिनियम था। इसमें वर्मा सरकार अधिनियम-1935 भी शामिल था।

भारत में संवैधानिक सुधारों हेतु ब्रिटिश सरकार ने साइमन कमीशन रिपोर्ट, नेहरू रिपोर्ट, जिन्ना की 14 सूत्रीय मांगों तथा तीनों गोलमेज सम्मेलनों पर विचार करने के बाद 1933 में एक श्वेतपत्र के माध्यम से नये संविधान की रूपरेखा को प्रस्तुत किया।

1933 के इस श्वेतपत्र पर विचार करने के लिए लार्ड लिनलिथगो की अध्यक्षता में एक संयुक्त समिति का गठन किया गया। इस समिति की रिपोर्ट के आधार पर 4 अगस्त 1935 को भारत सरकार अधिनियम-1935 बना। इसे बिना प्रस्तावना का अधिनियम भी कहा जाता है।

 

भारत के लिए तैयार संवैधानिक प्रस्तावों में यह अन्तिम तथा सबसे बड़ा और जटिल दस्तावेज था। इसमें कुल 321 अनुच्छेद, 10 अनुसूचियाँ व 14 भाग थे। वर्तमान भारतीय संविधान पर इस अधिनियम का सर्वाधिक प्रभाव पड़ा है।

भारत सरकार अधिनियम-1935 के उपबन्ध

इस अधिनियम ने प्रान्तों में द्वैध शासन प्रणाली को समाप्त किया।

इसके द्वारा ब्रिटिश भारत और कुछ या सभी रियासतों को मिलाकर भारत संघ की स्थापना का असफल प्रयास किया।

प्रत्यक्ष निर्वाचन प्रणाली की स्थापना की गयी और मत देने के अधिकार का विस्तार किया गया लगभग 35 मिलियन लोगों को मत देने का अधिकार प्रदान कर दिया गया।

प्रान्तों को भी आंशिक रूप से पुनर्संगठित किया।

सिंध प्रान्त को बम्बई से अलग कर दिया गया।

बिहार-उड़ीसा प्रांत को बिहार और उड़ीसा नाम के दो अलग-अलग प्रान्तों में बाँट दिया गया।

बर्मा को भारत से पूर्णत: अलग कर दिया गया।

अदन को भी भारत से अलग कर एक स्वतंत्र उपनिवेश बना दिया।

प्रांतीय सदनों की सदस्यता में भी बदलाव किया गया ताकि और अधिक निर्वाचित भारतीय प्रतिनिधियों को उसमें शामिल किया जा सके।

भारतीय सदस्य बहुमत प्राप्त कर सरकार भी बना सकते थे ।

अखिल भारतीय संघ की स्थापना

अधिनियम के अनुसार अखिल भारतीय संघ की स्थापना 11 ब्रिटिश प्रान्तों, 6 कमिश्नरियों तथा उन देशी रियासतों से मिलकर होनी थी, जो स्वेच्छा से इसमें शामिल हों। ब्रिटिश प्रान्तों के लिए संघ में शामिल होना आवश्यक था। किन्तु देशी रियासतों का संघ में शामिल होना स्वैच्छिक था। देशी रियासतें संघ में शामिल नहीं हुई। अतः यह प्रस्ताव मूर्त रूप न ले सका। यद्यपि अखिल भारतीय संघ अस्तित्व में नहीं आ सका किन्तु 1 अप्रैल 1937 को प्रान्तीय स्वायत्तता लागू कर दी गयी।

केन्द्र में द्वैध शासन की स्थापना

केन्द्र में द्वैध शासन की स्थापना की गयी। केन्द्रीय प्रशासन के विषयों को ‘रक्षित’ तथा ‘हस्तान्तरित’ विषयों में वर्गीकृत किया गया। रक्षित विषयों (प्रतिरक्षा, विदेशी मामले, धार्मिक विषय व जनजाति क्षेत्र आदि) का प्रशासन वायसराय अपनी परिषद की सहायता से करता था तथा अपने कार्यो के लिए , भारत सचिव के माध्यम से ब्रिटिश सरकार के प्रति उत्तरदायी था। हस्तान्तरित विषयों का प्रशासन गवर्नर जनरल अपनी मंत्रीपरिषद की सहायता से करता था जो विधान सभा के प्रति उत्तरदायी थी। इस प्रकार केन्द्रीय कार्यकारिणी के दो भाग हो गये-

i-वायसराय एवं उसकी परिषद

ii-वायसराय एवं मंत्री परिषद

प्रान्तों में स्वायत्त शासन की स्थापना

प्रान्तीय स्वायत्तता इस अधिनियम की एक महत्वपूर्ण विशेषता थी। विधि निर्माण हेतु वर्गीकृत केन्द्रीय और प्रान्तीय विषयों में से प्रान्तीय विषयों पर विधि बनाने का अत्यान्तिक अधिकार प्रान्तों को दिया गया तथा उन पर से केन्द्र का नियंत्रण समाप्त कर दिया गया। अब प्रान्तों के गवर्नर ब्रिटिश सरकार के प्रतिनिधि के रूप में कार्य करते थे न कि वायसराय के अधीन।

संघीय न्यायालय (Federal Court) की स्थापना

संघीय न्यायालय दिल्ली में स्थित था। इसमें एक मुख्य न्यायाधीश तथा अधितम 6 अन्य न्यायाधीश हो सकते थे। उनकी नियुक्ति सम्राट द्वारा की जाती थी। न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध अपील प्रिवी कौसिल (Privy council) में की जा सकती थी। इसके प्रथम मुख्य न्यायाधीश सर मौरिस ग्वेयर थे। 6 अन्य न्यायाधीशों में दो भारतीय थे। प्रथम जस्टिस एम. आर. जैकेब एवं दूसरे जस्टिस एम. एस. सुल्तान।

शक्तियों का विभाजन

1935 के अधिनियम द्वारा केन्द्र एवं प्रान्तों के मध्य शक्तियों का विभाजन तीन सूचियों में किया गया।

i-संघ सूची (59 विषय)

ii-प्रान्तीय सूची (54 विषय)

iii-समवर्ती सूची (36 विषय)

अवशिष्ट विषयों सहित कुछ आपातकालीन अधिकार वायसराय को सौंपे गये।

11 प्रान्तों में विधान सभा का गठन किया गया। 6 प्रान्तों बिहार, बंगाल, असम, संयुक्त प्रान्त, बम्बई एवं मद्रास में द्विसदनीय विधान मण्डल की स्थापना की गयी।

इस अधिनियम द्वारा भारत परिषद का अन्त कर दिया गया।

1937 का विधान सभा चुनाव इस अधिनियम के लागू होने के परिणाम स्वरूप हुआ।

इस अधिनियम द्वारा 1935 ई. में वर्मा को भारत से अलग कर दिया गया।

भारत सरकार अधिनियम-1935 के गुण

1935 ई. के एक्ट द्वारा प्रान्तों में स्वशासन और केन्द्र में द्वैध शासन की स्थापना की गयी। प्रथम बार सम्पूर्ण भारत के लिए संघ शासन की स्थापना, जिसमें भारतीय नरेशों के राज्य सम्मिलित थे, एक संघीय न्यायालय की स्थापना, द्विसदनीय प्रणाली, आदि की स्थापना की गयी।

1935 के अधिनियम ने प्रान्तों की तत्कालीन स्थिति में सुधार किया था क्योंकि इसमें प्रांतीय स्वायत्तता के प्रावधान को शामिल किया गया था। इस व्यवस्था के अनुसार प्रांतीय सरकारों के मंत्रियों को विधायिका के प्रति उत्तरदायी बनाया गया, साथ ही विधायिका के अधिकारों में वृद्धि भी की गयी ।

भारत सरकार अधिनियम-1935 के दोष

इस अधिनियम में स्वतंत्रता की बात तो दूर, भारत को डोमिनियन का दर्जा देने की भी कोई चर्चा नहीं की गयी थी। मतदान के अधिकार भी सीमित ही रहे क्योंकि अभी भी कुल जनसंख्या के 14% भाग को ही मतदान करने का अधिकार प्राप्त था। वायसराय और गवर्नरों की नियुक्ति अभी भी ब्रिटिश सरकार के द्वारा की जाती थी और वे विधायिका के प्रति उत्तरदायी भी नहीं थे।

साम्प्रदायिक निर्वाचन प्रणाली पहले की भाँति विद्यमान थी। इसके अतिरिक्त, उसमें ऐसा कोई प्रबन्ध न था जिससे गवर्नर भारतीय मन्त्रियों की सलाह को मानने के लिए बाध्य होते। इस प्रकार प्रान्तीय स्वशासन की स्थापना केवल नाम के लिए थी और एक सीमित क्षेत्र में भी भारतीयों को स्वतन्त्र अधिकार नहीं दिये गये थे।

यह अधिनियम कभी भी उन उद्देश्यों को प्राप्त नहीं कर पाया जिनकी प्राप्ति के लिए राष्ट्रीय आन्दोलन संघर्ष कर रहा था।

कांग्रेस, मुस्लिम लीग, भारतीय नरेशों आदि ने इस व्यवस्था का विरोध किया। इस अधिनियम के बारे में पण्डित नेहरू ने कहा था “यह अनेक ब्रेकों वाली इंजन रहित गाड़ी है” तथा जिन्ना ने इसे “पूर्णतः सड़ा और मूल रूप से बुरा” कहा था। फिर भी भारत सरकार अधिनियम-1935 भारत के संवैधानिक विकास का वह बिन्दु था जहाँ से पीछे नहीं लौटा जा सकता था।

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