अभागन ‘धरती माँ ‘ – मनीष कुमार पाठक ‘ संघर्ष’

वो कहते हैं न कि जहाँ चाह है वहां राह है तो वास्तव में इस धरती के बुद्धजीवी मानवों ने वो कर दिखाया | हाय ! ये धरती, ये आकाश क्या हो गया  इन्हें  ? कभी ज्वालामुखी की तरह लाल धरती , तो कभी बदरंग मेघों का हुड्दंग , कभी सुलगते पोलिथीन  के जहरीले धुंए , तो कभी चीखते चिल्लाते निर्जीवों के सजीव अट्टहास |
हाय रे धरती माँ ! क्या अजीब बिडम्बना है ? सुना था पूत कपूत होते हैं, पर माता कुमाता नहीं होती, और अब देख भी लिया है | माँ के कलेजे पर हम सपूत कितने ही मूंग दलते जा रहे हैं, पर इस अभागन माँ के पास तो शिवाय सहने के कुछ  भी नहीं है |
पर कब तक? सहेगी तू माँ मुझे पता है- 
                                             ” परिवर्तन संसार का नियम है” |
पर क्या तू आदिकाल से सहती आई हो और अनंत काल तक तेरे भाग्य में सहना ही लिखा है! क्या तुने भी पूर्व जन्म में कोई पाप किया था ? जो अभी तक तू एक अभागन बनकर हम नास्तिकों का बोझ सहती रही हो | अथवा आज के देवताओं को ही दृष्टी दोष  हो गया है ? और वो किसी और के किये की सजा किसी और को देते आ रहे है ! वो कहते थे न कि –
                                         ” सत्य परेशान होता है पराजित नहीं “
परन्तु अब तो सत्य परेशान भी होता है और पराजित भी | या यूँ कहे कि सत्य का हम मात्र दिखावा ही कर रहे हैं, तभी तो देवता भी हमसे इतने कुपित हैं | और हों भी क्यों न ? हमने भला क्या अपने मनुष्य होने का फ़र्ज़ निभाया है, जो उसी का फल वो हमें देंगे ? 
भक्तों ने तो अपने भगवन कि ऐसी पूजा – अर्चना की कि कोई भी हमसे रुष्ट हो जायेगा, वो तो सबके भगवन जी हैं | हम अपने पुरखों की दी हुई शिक्षा को भुला दिया और मन्त्रों की जगह कानो के परदे फाड़ देने वाले आधुनिक यंत्रों की आवाज को दे दिया है , जिससे हमारी तो हमारी हमारे भगवन की भी तन्द्रा भंग हो जाती है | तो अभी भी वो हमसे रुष्ट न होंगे तो क्या करेंगे ? ऑंखें चौंधियाने वाले विद्युतीय उपकरणों को हम बड़े शौक से जलाते हैं , और भगवन को प्रसन्न करने चले हैं |
आज यदि कबीर दास जी होते तो वो बुर्ज़ दुबई से कूद कर आत्म हत्या करते | 
हमने अपने आपको वास्तव में कहाँ ला कर खड़ा कर दिया है ! अपने हाथों ही हम सभी अपने पैरों पर कुल्हाड़ी चला रहे हैं | 
जिन मन्त्रों के उचारण मात्र से ही शारीर के आधे से अधिक विकार नस्ट हो जाते थे हमने उन मन्त्रों को महत्वहीन कर दिया है , और निरर्थक धुन और राग अलापे जा रहे हैं और तो और आज कल क ढोंगी बाबाओं के चक्कर में तो हम खुद ही गर्द में जा रहे हैं | इन बाबाओं का चरित्र तो प्रकृति के सबसे अबूझ प्राणी  ‘ स्त्री ‘ से भी गूढ़ हो गया है जिन्हें समझना अति भ्रामक है | इनकी लीला अपरंपार है कभी कोई ‘नन्द’ तो कभी कोई ‘स्वामी’ इन बाबाओं ने तो बेचारे साहूकारों को भी पीछे छोड़ दिया है, और व्यापर में पारंगत हो गए हैं , ब्याज से खाते हैं और मूल बचा रहता है |
उनके ढोंग का कहना ही क्या अज खुद ही गंगा में कूद कर कूड़ा – कचरा हटायेंगे , और यदि कल गंगा में मूर्तियों के विसर्जन से रोका जाए तो सडकों पर ही तांडव करने लगेंगे | 
और हाय रे अभागन धरती माँ इन सभी का कर्ज तो तुझे ही चुकाना पड़ रहा है | पर अब लगता है तेरे भी उद्धार के दिन आ ही गए हैं| तू कितनी अभागन है माँ तेरे पूत ही तेरी पुण्य तिथि की भविष्यवाणी कर रहे है | कोई २०१२ तो कोई २०१४ की तिथि की भविष्यवाणी कर रहा है | वाह ! तेरे उपचार के लिए कोई भी अपना हाथ नहीं फैला रहा है अपितु तेरे कफन के लिए दर्जी को नाप देने जा रहा है | क्या करें ? सबकी मजबूरी है , बहाना तो यही है , की हम क्या कर सकते हैं?
और इन सभी के दुर्दांत वर्णन के लिए अपने इस कपूत को क्षमा  करना माँ , क्षमा करना |
                                        त्राहिमाम! त्राहिमाम !

                                                                     मनीष कुमार पाठक  ‘ संघर्ष’

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