आग

आग

आग में सीककर
रोटियाँ
हो जाती है तैयार
किसी के पेट की 
आग
बुझाने को,
आग
आग मिलाती थी
चौपार पे
बच्चे को बाप के विचारों से,
कुनबे की आधी से अधिक
समस्याएं 
ठण्ड की आग में समाधी ले लेती थी,
आग आरम्भ थी
दो कुलो को जोड़ने की साक्षी,
तब जाना था कितनी पवित्र होती है,
कितनी ताकत है इस आग की प्रथा में,
यही तो लिखा भी है फाग की कथा में।
बुराई ही मरती है
अच्छाई तपकर 
खरा सोना बन जाती है।
पर ये क्या लिखा है 
आज के अख़बार में,
एक अबला जल गई आग में,
तब्दील हो गयी राख में,
सुनने में आया है 
की रोटी बना रही थी,
रोटी तो वो रोज बनाती थी,
पर किसी की
भूख नही मिटा पा रही थी।
आग एक फिर मेरे 
मन को जला रही है,
ये भूख इतनी क्यों बढ़ती जा रही है,
वही रोटी तो बेटी भी बनाती है,
मगर वही रोटी बनाने में
बहू कैसे जल जाती है।
रचनाकार परिचय 
श्रद्धा मिश्रा
शिक्षा-जे०आर०एफ(हिंदी साहित्य)
वर्तमान-डिग्री कॉलेज में कार्यरत
पता-शान्तिपुरम,फाफामऊ, इलाहाबाद

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