आजाद भारत की गुलामी /वेदप्रताप वैदिक

 वेदप्रताप वैदिक

हमारे देश का भद्रलोक अंग्रेजों का उत्तराधिकारी क्यों बना हुआ है? यह बगुलाभगत अपने स्वार्थ की माला जपना कब बंद करेगा? दिमागी गुलामी और नकल से भारत का छुटकारा कब होगा? इसकी पहल जनता को ही करनी होगी। गुलामी के खंडहरों को ढहाने का अभियान यदि जनता स्वयं शुरू करे तो नेतागण अपने आप पीछे चले आएंगे।देश अभी रेंग रहा है। जिस दिन सचमुच गुलामी हटेगी, वह दौड़ेगा।
जयराम रमेश ने कमाल कर दिया। चोगा उतार फेंका। क्या कोई मंत्री कभी ऐसा करता है? ऐसा तो नरेंद्र मोदी और डॉ. मुरली मनोहर जोशी ने भी नहीं किया। कोई कांग्रेसी ऐसा कर देगा, यह सोचा भी नहीं जा सकता, क्योंकि वर्तमान कांग्रेस का गांधी से कोई लेना-देना नहीं है। गांधी गए तो वह कांग्रेस भी उनके साथ चली गई, जो गुलामी के साथ ही गुलामी के औपनिवेशिक प्रतीकों से भी लड़ाई कर रही थी।
गुलामी के खंडहरों को ढहाने का काम गांधी के बाद अकेले लोहिया ने किया। यह काम आर्य समाज और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ बेहतर तरीके से कर सकते थे, लेकिन उनके पास रणनीति और नेता दोनों का टोटा बना रहा। वे आज तक राष्ट्र निर्माण के इस मौलिक रहस्य को नहीं समझ पाए कि चाकू चलाए बिना शल्यचिकित्सा नहीं हो सकती। उस्तरा चलाए बिना दाढ़ी नहीं बनती। भारत के सभी राजनीतिक दल गालों पर सिर्फ साबुन घिसने को दाढ़ी बनाना समझे बैठे हैं।
इसीलिए आजाद भारत आज भी गुलाम है। अंग्रेजों के चले जाने से हमें सिर्फ संवैधानिक आजादी मिली है। क्या हम सांस्कृतिक, सामाजिक और राजनीतिक दृष्टि से आजाद हैं? संविधान कहता है कि ‘हां’ आजाद हैं, लेकिन वास्तविकता क्या कहती है? वास्तविकता यह है कि हम गुलाम हैं। कैसे हैं? उदाहरण लीजिए। सबसे पहले हमारी संसद को लें। संसद हमारी संप्रभुता की प्रतीक है। यह भारत की संसद है और इसका काम ब्रिटेन की भाषा में होता है।
क्या आज तक एक भी कानून राष्ट्रभाषा में बना है? सारे कानून परभाषा में बनते हैं। हमारे पुराने मालिक की भाषा में बनते हैं। किसी को शर्म भी नहीं आती। गनीमत है कि सांसदों को भारतीय भाषाओं में बोलने की इजाजत है। लेकिन वे भी भारतीय भाषाओं में इसीलिए बोलते हैं कि उन्हें अंग्रेजी नहीं आती। अटलबिहारी वाजपेयी हिंदी में बोलते थे, लेकिन आडवाणी अंग्रेजी में क्यों बोलते हैं?
डॉ. राममनोहर लोहिया और डॉ. मुरली मनोहर जोशी तो अपवाद हैं, जो अच्छी अंग्रेजी जानते हुए भी हिंदी में बोलते रहे। भारत के राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री को संसद में विदेशी भाषा बोलने की अनुमति क्यों है? गांधीजी ने कहा था कि संसद में जो अंग्रेजी बोलेगा, उसे मैं गिरफ्तार करवा दूंगा। आज तो कोई सांसदों के कान खींचने वाला भी नहीं है। संसद के कई महत्वपूर्ण भाषण और कानून ऐसी भाषा में होते हैं, जिसे आम जनता द्वारा नहीं समझा जा सकता।
जो हाल संसद का है, उससे भी बदतर हमारी अदालतों का है। भारत की अदालतें जादू-टोने की तरह चलती हैं। वकील क्या बहस कर रहा है और न्यायाधीश क्या फैसला दे रहा है, यह बेचारे मुवक्किल को सीधे पता ही नहीं चलता, क्योंकि गुलामी के दिनों का ढर्रा अभी भी जस का तस चला आ रहा है। वकील और न्यायाधीश काला कोट और चोगा वगैरह पहनकर अंग्रेजों की नकल ही नहीं करते, वे उन्हीं के पुराने घिसे-पिटे कानूनों के आधार पर न्याय-व्यवस्था भी चलाते आ रहे हैं।
इसीलिए लगभग तीन करोड़ मुकदमे अधर में लटके हुए हैं और कई मुकदमे तो 30-30 साल तक चलते रहते हैं। यदि भारत सचमुच आजाद हुआ होता तो हम उस भारतीय न्याय व्यवस्था को अपना आधार बनाते जो ग्रीक और रोमन व्यवस्था से भी अधिक परिपक्व है और उसमें नए आयाम जोड़कर हम उसे अत्यंत आधुनिक बना देते। यदि लोगों को न्याय उन्हीं की भाषा में मिले तो वह सही मिलेगा और जल्दी मिलेगा। क्या यह न्याय का मजाक नहीं कि भारत के उच्च न्यायालयों में भारतीय भाषाओं में जिरह की इजाजत ही नहीं है?
जो हाल संसद और अदालत का है, वही सरकार का भी है। किसी स्वतंत्र राष्ट्र में सरकार की हैसियत क्या होनी चाहिए? मालिक की या सेवक की? जैसे अंग्रेज शासन को अपने बाप की जागीर समझता था, वैसे ही हमारे नेता भी समझते हैं। उनकी अकड़, उनकी शान-शौकत, उनका भ्रष्टाचार देखने लायक होता है। वे अकेले दोषी नहीं हैं। इसके लिए वह जनता जिम्मेदार है, जो उन्हें बर्दाश्त करती है। वह अभी भी गुलामी में जी रही है।
वह अपने सेवकों को अब भी अपना मालिक समझे बैठी है। अपने नौकरों को निकालने के लिए उसे पांच साल तक इंतजार करना पड़ता है। जनता के पास ऐसी कोई शक्ति नहीं है कि वह भ्रष्ट मंत्री या सांसद-विधायक या अफसर को तुरंत निकाल बाहर कर सके। यह कैसा लोकतंत्र है? हमारा ‘लोक’ तो राजतंत्र के ‘लोक’ से भी ज्यादा नख-दंतहीन है। असहाय-निरुपाय है।
भारत की शासन-व्यवस्था ही नहीं, समाज-व्यवस्था भी गुलामी से ग्रस्त है। दीक्षांत समारोह के अवसर पर चोगा और टोपा पहनकर हम ऑक्सफोर्ड और कैंब्रिज के स्नातकों की नकल करते हैं। बच्चों को स्कूल भेजते समय उनके गले में टाइयां लटका देते हैं। जन्मदिन मनाने के लिए केक काटते हैं। शादी के निमंत्रण-पत्र अंग्रेजी में भेजते हैं। दस्तखत अपनी भाषा में नहीं करते। अपनी मां को ‘मम्मी’ और पिता को ‘डैडी’ कहते हैं।
बसंत के स्वागत के लिए ‘वेलेंटाइन डे’ मनाते हैं। विदेशी इतिहासकारों के भुलावे में फंसकर आर्यो को बाहर से आया हुआ बताते हैं। अपने भोजन, भजन, भाषा-भूषा और भेषज की सारी अच्छाइयों को भूलकर हम पश्चिम की नकल में पागल हो गए हैं। हम जितने मालदार और ताकतवर होते जा रहे हैं, उतने ही तगड़े नकलची भी बनते जा रहे हैं। हमने अंग्रेजों को भी मात कर दिया है। वे उपनिवेशों का खून चूसते थे। परायों को गुलाम बनाते थे। हम अपनों को ही अपना गुलाम बनाते हैं।
हमने ‘भारत’ को ‘इंडिया’ का गुलाम बना दिया है। 80 करोड़ लोग 30 रुपए रोज पर गुजारा करते हैं और बाकी लोग मस्ती-मलाई छान रहे हैं। क्या अंग्रेज के पूर्व गुलाम (राष्ट्रकुल) देशों के अलावा दुनिया में कोई ऐसा देश भी है, जहां सरकारी नौकरी पाने के लिए विदेशी भाषा का ज्ञान अनिवार्य हो?
समझ में नहीं आता कि ऐसी दमघोंटू और गुलाम व्यवस्था के खिलाफ भारत में बगावत क्यों नहीं होती? भारत की औपचारिक आजादी और औपचारिक लोकतंत्र का स्वागत है, लेकिन सच्ची आजादी और सच्चे लोकतंत्र का शंखनाद कब होगा? हमारे देश का भद्रलोक अंग्रेजों का उत्तराधिकारी क्यों बना हुआ है? यह बगुलाभगत अपने स्वार्थ की माला जपना कब बंद करेगा? दिमागी गुलामी और नकल से भारत का छुटकारा कब होगा? इसकी पहल भारत की जनता को ही करनी होगी। इस मामले में हमारे नेता निढाल हैं। वे नेता नहीं, पिछलग्गू हैं। गुलामी के खंडहरों को ढहाने का अभियान यदि जनता स्वयं शुरू करे तो नेतागण अपने आप पीछे चले आएंगे। देश अभी रेंग रहा है। जिस दिन सचमुच गुलामी हटेगी, वह दौड़ेगा।
सौजन्य – विकिपीडिया हिंदी 

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