आज मुझे जी लेने दो !
क्यों नई लगे दुनिया अब से,
जी रही थी इसमें जाने कब से।
स्पंदन जैसे झंकार लगे,
उस लय में सब कुछ खोने दो,
आज मुझे जी लेने दो।
जब साथ लगे एक सपना सा,
क्यों कोई लगे फिर अपना सा?
रक्तिम, मधुर,कोमल भावों को,
कुछ दूरी तक तो चलने दो,
आज मुझे जी लेने दो।
समय रंग दिखा जाएगा,
साथ कोई कब रह पाएगा?
नातों के नामों का बंधन,
खोल,आत्मा जुड़ने दो,
आज मुझे जी लेने दो।
पक्षी,सुगंध,घटाएँ,हवाएँ
कहाँ खिंची इनकी रेखाएँ ?
मानव को छोड़ों, मन को,
बादल बनकर उड़ लेने दो,
आज मुझे जी लेने दो।
प्रेम सदा रहता है अधूरा,
सीमा बने तो,होता कुछ पूरा।
सीमा में ना बाँधो स्नेह को,
अधूरा,असीमित ही रहने दो,
आज मुझे जी लेने दो।
यह रचना मधु शर्मा कटिहा जी द्वारा लिखी गयी है .आपने दिल्ली विश्वविद्यालय से लाइब्रेरी साइंस में स्नातकोत्तर किया है . आपकी कुछ कहानियाँ व लेख प्रकाशित हो चुके हैं।
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