बडे-बडे शहरों के इक्के-गाडिवालों की जवान के कोडाें से जिनकी पीठ छिल गई है, और कान पक गये हैं, उनसे हमारी प्रार्थना है कि अमृतसर के बम्बूकार्ट वालों की बोली का मरहम लगायें। जब बडे-बडे शहरों की चौडी सडक़ों पर घोडे क़ी पीठ चाबुक से धुनते हुए, इक्केवाले कभी घोडे क़ी नानी से अपना निकट-सम्बन्ध स्थिर करते हैं, कभी राह चलते पैदलों की आँखों के न होने पर तरस खाते हैं,कभी उनके पैरों की अंगुलियों के पोरे को चींघकर अपने-ही को सताया हुआ बताते हैं, और संसार-भर की ग्लानि, निराशा और क्षोभ के अवतार बने, नाक की सीध चले जाते हैं, तब अमृतसर में उनकी बिरादरी वाले तंग चक्करदार गलियों में, हर-एक लङ्ढी वाले के लिए ठहर कर सब्र का समुद्र उमडा कर बचो खालसाजी। हटो भाईजी। ठहरना भाई जी। आने दो लाला जी। हटो बाछा। –– कहते हुए सफेद फेटों, खच्चरों और बत्तकों, गन्नें और खोमचे और भारेवालों के जंगल में से राह खेते हैं। क्या मजाल है कि जी और ‘साहब बिना सुने किसी को हटना पडे। यह बात नहीं कि उनकी जीभ चलती नहीं; पर मीठी छुरी की तरह महीन मार करती हुई। यदि कोई बुढिया बार-बार चितौनी देने पर भी लीक से नहीं हटती, तो उनकी बचनावली के ये नमूने हैं — हट जा जीणे जोगिए; हट जा करमा वालिए; हट जा पुतां प्यारिए; बच जा लम्बी वालिए। समष्टि में इनके अर्थ हैं, कि तू जीने योग्य है, तू भाग्योंवाली है, पुत्रों को प्यारी है, लम्बी उमर तेरे सामने है, तू क्यों मेरे पहिये के नीचे आना चाहती है? बच जा।
”तेरे घर कहाँ है?”
”मगरे में; और तेरे?”
” माँझे में; यहाँ कहाँ रहती है?”
”अतरसिंह की बैठक में; वे मेरे मामा होते हैं।”
”मैं भी मामा के यहाँ आया हँू , उनका घर गुरूबाजार में हैं।”
”कब?”
”कल, देखते नहीं, यह रेशम से कढा हुआ सालू।”
”चुप कर। यहाँ वालों को शरम नहीं।”
”देश-देश की चाल है। आज तक मैं उसे समझा न सका कि सिख तम्बाखू नहीं पीते। वह सिगरेट देने में हठ करती है, ओठों में लगाना चाहती है, और मैं पीछे हटता हँू तो समझती है कि राजा बुरा मान गया, अब मेरे मुल्क के लिये लडेग़ा नहीं।”
”अच्छा, अब बोधसिंह कैसा है?”
”अच्छा है।”
कर लेणा लौंगां दा बपार मडिए;
कर लेणा नादेडा सौदा अडिए —
(ओय) लाणा चटाका कदुए नँु।
कद्द बणाया वे मजेदार गोरिये,
हुण लाणा चटाका कदुए नँु।।
कौन जानता था कि दाढियावाले, घरबारी सिख ऐसा लुच्चों का गीत गायेंगे, पर सारी खन्दक इस गीत से गँूज उठी और सिपाही फिर ताजे हो गये, मानों चार दिन से सोते और मौज ही करते रहे हों।
(तीन)
दोपहर रात गई है। अन्धेरा है। सन्नाटा छाया हुआ है। बोधासिंह खाली बिसकुटों के तीन टिनों पर अपने दोनों कम्बल बिछा कर और लहनासिंह के दो कम्बल और एक बरानकोट ओढ क़र सो रहा है। लहनासिंह पहरे पर खडा हुआ है। एक आँख खाई के मँुह पर है और एक बोधासिंह के दुबले शरीर पर। बोधासिंह कराहा।
”क्यों बोधा भाई, क्या है ?”
”पानी पिला दो।”
लहनासिंह ने कटोरा उसके मँुह से लगा कर पूछाा — ”कहो कैसे हो?” पानी पी कर बोधा बोला – ”कँपनी छुट रही है। रोम-रोम में तार दौड रहे हैं। दाँत बज रहे हैं।”
”अच्छा, मेरी जरसी पहन लो !”
”और तुम?”
”मेरे पास सिगडी है और मुझे गर्मी लगती है। पसीना आ रहा है।”
”ना, मैं नहीं पहनता। चार दिन से तुम मेरे लिये —”
”हाँ, याद आई। मेरे पास दूसरी गरम जरसी है। आज सबेरे ही आई है। विलायत से बुन-बुनकर भेज रही हैं मेमें, गुरू उनका भला करें।” यों कह कर लहना अपना कोट उतार कर जरसी उतारने लगा।
”सच कहते हो?”
”और नहीं झूठ?” यों कह कर नहीं करते बोधा को उसने जबरदस्ती जरसी पहना दी और आप खाकी कोट और जीन का कुरता भर पहन-कर पहरे पर आ खडा हुआ। मेम की जरसी की कथा केवल कथा थी।
आधा घण्टा बीता। इतने में खाई के मँुह से आवाज आई – ”सूबेदार हजारासिंह।”
”कौन लपटन साहब? हुक्म हुजूर !” – कह कर सूबेदार तन कर फौजी सलाम करके सामने हुआ।
”देखो, इसी समय धावा करना होगा। मील भर की दूरी पर पूरब के कोने में एक जर्मन खाई है। उसमें पचास से जियादह जर्मन नहीं हैं। इन पेडाें के नीचे-नीचे दो खेत काट कर रास्ता है। तीन-चार घुमाव हैं। जहाँ मोड है वहाँ पन्द्रह जवान खडे क़र आया हँू। तुम यहाँ दस आदमी छोड क़र सब को साथ ले उनसे जा मिलो। खन्दक छीन कर वहीं, जब तक दूसरा हुक्म न मिले, डटे रहो। हम यहाँ रहेगा।”
”जो हुक्म।”
चुपचाप सब तैयार हो गये। बोधा भी कम्बल उतार कर चलने लगा। तब लहनासिंह ने उसे रोका। लहनासिंह आगे हुआ तो बोधा के बाप सूबेदार ने उँगली से बोधा की ओर इशारा किया। लहनासिंह समझ कर चुप हो गया। पीछे दस आदमी कौन रहें, इस पर बडी हुज्जत हुई। कोई रहना न चाहता था। समझा-बुझाकर सूबेदार ने मार्च किया। लपटन साहब लहना की सिगडी क़े पास मँुह फेर कर खडे हो गये और जेब से सिगरेट निकाल कर सुलगाने लगे। दस मिनट बाद उन्होंने लहना की ओर हाथ बढा कर कहा — ”लो तुम भी पियो।”
आँख मारते-मारते लहनासिंह सब समझ गया। मुँह का भाव छिपा कर बोला — ”लाओ साहब।” हाथ आगे करते ही उसने सिगडी क़े उजाले में साहब का मँुह देखा। बाल देखे। तब उसका माथा ठनका। लपटन साहब के पट्टियों वाले बाल एक दिन में ही कहाँ उड ग़ये और उनकी जगह कैदियों से कटे बाल कहाँ से आ गये?”
शायद साहब शराब पिये हुए हैं और उन्हें बाल कटवाने का मौका मिल गया है? लहनासिंह ने जाँचना चाहा। लपटन साहब पाँच वर्ष से उसकी रेजिमेंट में थे।
”क्यों साहब, हमलोग हिन्दुस्तान कब जायेंगे?”
”लडाई खत्म होने पर। क्यों, क्या यह देश पसन्द नहीं ?”
”नहीं साहब, शिकार के वे मजे यहाँ कहाँ? याद है, पारसाल नकली लडाई के पीछे हम आप जगाधरी जिले में शिकार करने गये थे –
हाँ- हाँ — वहीं जब आप खोते पर सवार थे और और आपका खानसामा अब्दुल्ला रास्ते के एक मन्दिर में जल चढने को रह गया था? बेशक पाजी कहीं का – सामने से वह नील गाय निकली कि ऐसी बडी मैंने कभी न देखी थीं। और आपकी एक गोली कन्धे में लगी और पुट्ठे में निकली। ऐसे अफसर के साथ शिकार खेलने में मजा है। क्यों साहब, शिमले से तैयार होकर उस नील गाय का सिर आ गया था न? आपने कहा था कि रेजमेंट की मैस में लगायेंगे। हां पर मैंने वह विलायत भेज दिया – ऐसे बडे-बडे सींग! दो-दो फुट के तो होंगे?”
”हाँ, लहनासिंह, दो फुट चार इंच के थे। तुमने सिगरेट नहीं पिया?”
”पीता हँू साहब, दियासलाई ले आता हँू” — कह कर लहनासिंह खन्दक में घुसा। अब उसे सन्देह नहीं रहा था। उसने झटपट निश्चय कर लिया कि क्या करना चाहिए।
अंधेरे में किसी सोने वाले से वह टकराया।
”कौन ? वजीरसिंह?”
”हां, क्यों लहना? क्या कयामत आ गई? जरा तो आँख लगने दी होती?”
(चार)
”होश में आओ। कयामत आई और लपटन साहब की वर्दी पहन कर आई है।”
”क्या?”
”लपटन साहब या तो मारे गये है या कैद हो गये हैं। उनकी वर्दी पहन कर यह कोई जर्मन आया है। सूबेदार ने इसका मुँह नहीं देखा। मैंने देखा और बातें की है। सोहरा साफ उर्दू बोलता है, पर किताबी उर्दू। और मुझे पीने को सिगरेट दिया है?”
”तो अब!”
”अब मारे गये। धोखा है। सूबेदार होरा, कीचड में चक्कर काटते फिरेंगे और यहाँ खाई पर धावा होगा। उठो, एक काम करो। पल्टन के पैरों के निशान देखते-देखते दौड ज़ाओ। अभी बहुत दूर न गये होंगे।
सूबेदार से कहो एकदम लौट आयें। खन्दक की बात झूठ है। चले जाओ, खन्दक के पीछे से निकल जाओ। पत्ता तक न खडक़े। देर मत करो।”
”हुकुम तो यह है कि यहीं – ”
”ऐसी तैसी हुकुम की ! मेरा हुकुम — जमादार लहनासिंह जो इस वक्त यहाँ सब से बडा अफसर है, उसका हुकुम है। मैं लपटन साहब की खबर लेता हँू।”
”पर यहाँ तो तुम आठ है।”
”आठ नहीं, दस लाख। एक-एक अकालिया सिख सवा लाख के बराबर होता है। चले जाओ।”
लौट कर खाई के मुहाने पर लहनासिंह दीवार से चिपक गया। उसने देखा कि लपटन साहब ने जेब से बेल के बराबर तीन गोले निकाले। तीनों को जगह-जगह खन्दक की दीवारों में घुसेड दिया और तीनों में एक तार सा बांध दिया।तार के आगे सूत की एक गुत्थी थी, जिसे सिगडी क़े पास रखा। बाहर की तरफ जाकर एक दियासलाई जला कर गुत्थी पर रखने–
बिजली की तरह दोनों हाथों से उल्टी बन्दुक को उठा कर लहनासिंह ने साहब की कुहनी पर तान कर दे मारा। धमाके के साथ सााहब के हाथ से दियासलाई गिर पडी। लहनासिंह ने एक कुन्दा साहब की गर्दन पर मारा और साहब आँख ! मीन गौट्ट कहते हुए चित्त हो गये। लहनासिंह ने तीनों गोले बीन कर खन्दक के बाहर फेंके और साहब को घसीट कर सिगडी क़े पास लिटाया। जेबों की तलाशी ली। तीन-चार लिफाफे और एक डायरी निकाल कर उन्हें अपनी जेब के हवाले किया।
साहब की मूर्छा हटी। लहनासिंह हँस कर बोला — ”क्यों लपटन साहब? मिजाज कैसा है? आज मैंने बहुत बातें सीखीं। यह सीखा कि सिख सिगरेट पीते हैं। यह सीखा कि जगाधरी के जिले में नील गायें होती हैं और उनके दो फुट चार इंच के सींग होते हैं। यह सीखा कि मुसलमान खानसामा मूर्तियों पर जल चढाते हैं
और लपटन साहब खोते पर चढते हैं। पर यह तो कहो, ऐसी साफ उर्दू कहाँ से सीख आये? हमारे लपटन साहब तो बिन डेम के पाँच लफ्ज भी नहीं बोला करते थे।”
लहना ने पतलून के जेबों की तलाशी नहीं ली थी। साहब ने मानो जाडे से बचने के लिए, दोनों हाथ जेबों में डाले।
पचीस वर्ष बीत गये। अब लहनासिंह नं 77 रैफल्स में जमादार हो गया है। उस आठ वर्ष की कन्या का ध्यान ही न रहा। न-मालूम वह कभी मिली थी, या नहीं। सात दिन की छुट्टी लेकर जमीन के मुकदमें की पैरवी करने वह अपने घर गया। वहाँ रेजिमेंट के अफसर की चिठ्ठी मिली कि फौज लाम पर जाती है, फौरन चले आओ। साथ ही सूबेदार हजारासिंह की चिठ्ठी मिली कि मैं और बोधसिंह भी लाम पर जाते हैं। लौटते हुए हमारे घर होते जाना। साथ ही चलेंगे। सूबेदार का गाँव रास्ते में पडता था और सूबेदार उसे बहुत चाहता था। लहनासिंह सूबेदार के यहाँ पहँुचा।
मुझे पहचाना?”
”नहीं।”
तेरी कुडमाई हो गई -धत् -कल हो गई- देखते नहीं, रेशमी बूटोंवाला सालू -अमृतसर में –
भावों की टकराहट से मूर्छा खुली। करवट बदली। पसली का घाव बह निकला।
वजीरा , पानी पिला – उसने कहा था।
लहना का सिर अपनी गोद में रक्खे वजीरासिंह बैठा है। जब माँगता है, तब पानी पिला देता है। आध घण्टे तक लहना चुप रहा, फिर बोला — ”कौन ! कीरतसिंह, ?”
वजीरा ने कुछ समझकर कहा — ”हाँ।”
”भइया, मुझे और ऊँचा कर ले। अपने पट्ट पर मेरा सिर रख ले।” वजीरा ने वैसे ही किया।
”हाँ, अब ठीक है। पानी पिला दे। बस, अब के हाड में यह आम खूब फलेगा। चचा-भतीजा दोनों यहीं बैठ कर आम खाना। जितना बडा तेरा भतीजा है, उतना ही यह आम है। जिस महीने उसका जन्म हुआ था, उसी महीने में मैंने इसे लगाया था।”