कैसे बचेंगी बेटियां ?

कैसे बचेंगी बेटियां ?

काँधे पर टंगा बस्ता
चॉकलेट की बचपनी चाहत
और फिर

सहमे स्वप्न
सहमे स्वप्न 

बाँबियों-झाड़ियों में से निकलते
वे सांप ,भेड़िये और लकड़बग्घे
मासूम गले पर खूनी पंजे
देह की कुत्सित भूख में
बज़बज़ाते लिज़लिज़ाते कीड़े
कर देते हैं उसके जिस्म को
तार-तार।
एक अहसास चीख कर
आर्तनाद में बदलता है
और वह जूझती रही,
चीखती रही,
उसका बचपन टांग दिया गया
बर्बर सभ्यता के सलीबों से।
सपने भी सहमे हैं उस
सात साल की बच्ची के।
सड़कों पर आवाजें हैं
फांसी दे दो !
गोली मार दो !
इस धर्म का है !
उस धर्म का है !
कुत्तों ,भेड़ियों का
कोई धर्म नहीं होता
साँपों की
कोई जात नहीं होती।
एक यक्ष प्रश्न
इन साँपों से इन भेड़ियों से
कैसे बचेंगी बेटियां ?
सत्ता के पास अफ़सोस है
समाधान नहीं।
समाज के पास संस्कारों
के आधान नहीं।
उस बेटी के प्रश्न के उत्तर
इतने आसान नहीं।

मंदसौर में सात साल की बच्ची का बलात्कार
– सुशील शर्मा 

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