क्षमा लघु कथा

क्षमा 


स्निगधा  के आई .सी .यू .में होने की  सूचना जैसे ही मुझे उसके हॉस्टल  से मिली मैं तो जैसे किंकर्तव्यविमूढ़  सी हो (हाथ में मोबाइल  थामे तबतक खड़ी  रही जब तक उषा ने मुझे झकझोड़ा) नहीं गयी।  पिछली  कुछ  बातें सिनेमा के रील की  तरह दिमाग में गडमड होने लगी  तो  क्या ये उसी का प्रतिफल है? मैंने तो सपने में भी ऐसा नहीं सोचा था ,लेकिन आज ये दिल से महसूस हो रहा था कि माँ बाप के दिल दुखाने की सजा इसी जन्म में जरूर मिलती है। 
मेरे बाबूजी (ससुरजी)  का स्वर्गवास हुए लगभग तीन साल बीत चूका है उससे पहले डेढ़ साल तक बिस्तर पर पड़े रहे लेकिन किसी न किसी वजह से वहाँ जाकर सेवा करने से मैं अपने आप को बचाती रही।  
क्षमा
क्षमा
फ़ोन पर उनकी बच्चों को देखने की ललक ,मिलने की चाहत लरजती आवाज से साफ़ जाहिर होती थी फिर भी मैं कभी ऑफिस की व्यस्तता कभी बच्चों की पढाई का बहाना कर टाला करती थी।भैया भाभी की बातों से मेरे प्रति झुंझलाहट साफ़ महसूस होती थी। 
                      
अंततः बिना किसी शिकवा  शिकायत के बाबूजी चले गए।उनकी अंतिम क्रिया में भी मैं किसी कारणवश शामिल न हो सकी।अब पता चला नियति आपको आइना जरूर दिखती है।आज मैं आई .सी .यू  के बाहर बार बार बाबूजी से अपने किये की क्षमा मांग रही थी साथ ही भगवान से बच्ची के जीवन की प्रार्थना |
                            
जब  स्निग्धा नव जीवन प्राप्त कर वापस घर आयी तो मैंने इसे ईश्वर का प्रसाद एवं बाबूजी का आशीर्वाद समझा।मैं बाबूजी के फोटो के सामने अपनी बेटी के साथ खड़ी होकर हाथ जोड़कर सच्चे दिल से उनसे क्षमा मांग रही थी।ऐसा जान पड़ा मानो साक्षात् बाबूजी मुस्कुराते हुए आशीष दे रहे हों।अब मेरे दिल से टनों बोझ उतर गया हालाँकि टीस अभी भी शेष था। 

– प्रतिभा झा 
मधुबनी 

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