चंद्रमा और चांदनी

चंद्रमा और चांदनी

चंद्रमा की चांदनी चंचल चमन चमका रही,
खेल करती क्यारियों के मन को है बहला रही,
चांदनी कहती चमन से ऐ सखी,
हूंकती हो तुम क्यों रह-रह कर दुखी?

क्या हुआ है जो तेरे गम की मुझे पहचान नहीं,
तू सखी बरसों से मेरी इससे तू अंजान नहीं,

महक शर्मा

इस निशा पर चलता है बस मेरा मुझको है पता,
पर क्या मेरी रोशनी से हो गई कोई खता!
मकरंद तेरे बाग की क्यों हो दुखित सी रह रही,
ओस की बूंदें भी मानो अांसू बन कर बह रही।

ऐ चमन झकझोरती सब क्यारियाँ क्यों थम गई,
मेरी सुन्दरता है मोहिनी तेरी भी कुछ कम नहीं,
क्या हुआ तुझको चमन कहदे के चुप रहना नहीं,
तितलियाँ ये प्यारे भँवरे क्या तेरा गहना नहीं?

चाँदनी की बात सुन भोली चमन यूँ रो रही,
बह रहे है आँसू थर-थर अपनी सुध-बुध खो रही,
सुन सखी अब ये चमन पृथ्वी पे न रह पाऐगी,
मेरे संग ये सारी सृष्टी चन्द्रमां पर आऐगी।

क्या कहे तेरी सहेली ये चमन,
है प्रदूषित ये धरा और ये गगन,
सुन सखी झकझोरती सब क्यारियाँ मुरझा गई,
पर ये तेरी चाँदनी चंचल चमन को भा गई,
पृथ्वी पर तो स्वार्थी मानव का ही अधिकार है,
पृथ्वी के मानव पे तो मुझको सखी धिक्कार है।

पुष्पों के इस रुदन को अब न सखी सह पाऊँगी,
मुझको ले चल संग अपने मै तेरे संग जाऊँगी,
ये महान वसुंधरा खंडर बनी रह जाएगी,
जब प्रकृति धरा से चल चन्द्रमां पर आऐगी।

स्वार्थी इन्सान को तब ये पता चल जाएगा,
उसके अधीन नहीं है कुछ वह कुछ नहीं कर पाएगा।
मै चान्दनी के चन्द्रमां को चमन से महकाऊँगी,
मानव मुझे पैरों में रौंदे वहाँ चन्द्रमुकुट बन जाऊँगी।

यह रचना महक शर्मा जी द्वारा लिखी गयी है . आप करनाल, हरियाणा से हैं व साहित्य रचना में गहरी रूचि रखती हैं . 

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