कच्चा घर
अंदर मन की खूंटी पर टंगे रहने दो सपने ,
डॉ संगीता गांधी |
बाहर हालात की आँधियों में बिखर जाएंगे ।
आओ एक बार लौट कर देखें वो घर — जो पीछे छोड़ आये हैं !
आज शहर की पाश कॉलोनी के –
आलीशान फ्लैट के बीच –
ढूंढते है वो घर ,जहां पकड़ते थे तितली ,खेलते छुप्पन छुपाई ।
रात को आंगन की चारपाई पर देर तक बतियाते थे ।
वो कच्चा ,छोटा घर ,
आंगन में जलता चूल्हा ,पीतल के बर्तन !
मटके का पानी बहुत याद आता है ।
काश वो कच्ची मिट्टी वाली जमीन ही मुबारक रहती !
वहां मैं बहुत सुकून से थी ।
मुश्किल है आसमान पे चलना ,
बिखरे तारे पैरों में चुभते हैं ।
मेरा कच्चा घर कहीं खो गया है —
आओ ‘मेरे दर्द’ खोजें उसको ।
डॉ संगीता गांधी
एम फिल ,पी एचडी।
नई दिल्ली ।