छठा आम चुनाव 1977

 छठा आम चुनाव 1977: बनी पहली गैरकांग्रेसी सरकार

पातकाल के बाद 1977 में भारत के छठे लोकसभा चुनाव हुए । इस आम चुनाव में जनता ने पहली गैरकांग्रेसी सरकार को चुनकर मानो इमर्जेंसी के दौरान हुए सभी ‘जुल्मों’ का हिसाब ले लिया था । जनता ने कांग्रेस को हराकर सत्ता की चाबी जनता पार्टी के हाथों में दे दी । फिर कांग्रेस से ही अलग हुए 81 साल के मोरारजी देसाई को पहला गैरकांग्रेसी प्रधानमंत्री चुना गया । लेकिन यह सरकार भी अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाई और राजनीतिक घटनाक्रम ऐसे बदले कि 1980 में फिर से चुनाव हुए । 19 महीने बाद जब आपातकाल खत्म हुआ तो यह लोगों के लिए दूसरी आजादी जैसा था । विपक्षी नेताओं को रिहा किया गया । हालात सामान्य होने लगे । इसके बाद जनसंघ, कांग्रेस (ओ), भारतीय लोकदल, सोशलिस्ट पार्टी ने एक होकर जनता पार्टी बनाई, जिसने कांग्रेस को शिकस्त दी । जनता पार्टी यह कहकर लोगों के बीच गई थी कि वह लोकतंत्र को फिर से स्थापित करने आई है ।

“सिंहासन खाली करो, जनता आती है” जैसे नारे भी इसी वक्त सुनने में आए । जनता से ‘लोकतंत्र या तानाशाही’ में से किसी एक को चुनने तक को कहा गया । इसी बीच कांग्रेस के कुछ सीनियर नेताओं (जगजीवन राम, हेमवती नंदन बहुगुणा आदि) ने कांग्रेस छोड़ी, जिससे पार्टी पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा । 1974 में पटना के गांधी मैदान में जय प्रकाश नारायण ने एक बड़ी जनसभा की और “संपूर्ण क्रांति” की घोषणा की । आपातकाल के विरोध में यह आंदोलन चलाया गया था । जे.पी. ने इस आंदोलन के लिए एक साल तक विश्वविद्यालयों और कॉलेजों को बंद करने का आह्वान किया । जे.पी. आंदोलन से जुड़े लोगों को जेल जाना पड़ा । जे.पी. आंदोलन से ही कई दिग्गज नेता निकले । इनमें जॉर्ज फर्नांडिज, मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद यादव, नीतीश कुमार, सुशील मोदी और शरद यादव शामिल हैं ।

उत्तर भारत में कांग्रेस का सूपड़ा साफ

आपातकाल और उस दौरान चलाए गए जबरन नसबंदी के अभियान ने उत्तर भारत में कांग्रेस का सूपड़ा साफ कर दिया । बिहार और उत्तरप्रदेश जैसे दो मुख्य राज्यों में कांग्रेस को एक भी सीट नहीं मिली थी । वहीं अन्य हिंदी भाषी राज्य जैसे राजस्थान और मध्यप्रदेश में कांग्रेस को सिर्फ एक-एक सीट मिली । राजधानी दिल्ली में भी कांग्रेस खाता नहीं खोल पाई थी । इंदिरा गांधी ने 1977 के जनवरी माह में लोकसभा भंग कर आम चुनाव की घोषणा की । इसके बाद 16 से 19 मार्च तक वोटिंग हुई और 20 मार्च को वोटों की गिनती शुरू हुई । जिसमें 542 सीटों में से कांग्रेस को सिर्फ 154 सीटों से संतोष करना पड़ा । इस तरह कांग्रेस को करीब 200 सीटों का नुकसान हुआ था । वहीं जनता पार्टी ने 295 सीटों पर जीत दर्ज की थी । इस चुनाव में इंदिरा (रायबरेली) और उनके बेटे संजय गांधी भी हार गए थे । आपातकाल के दौरान इंदिरा सरकार ने लोगों के अधिकारों का कैसे-कैसे हनन किया  ? इसकी जांच के लिए जनता पार्टी ने शाह आयोग का गठन किया । इसके साथ ही अपनी शक्ति के गलत इस्तेमाल के लिए इंदिरा को नाटकीय ढंग से दो बार अरेस्ट भी किया गया । जिसमें वह पहली बार एक दिन और दूसरी बार करीब एक हफ्ते के लिए जेल में रहीं ।

छठा आम चुनाव 1977
छठा आम चुनाव 1977 

इस बीच कांग्रेस में फिर विरोध शुरू हो गया, कई सीनियर नेताओं को लगा कि इंदिरा का राजनीतिक करियर अब खत्म हो चुका है । इसके बाद इंदिरा ने कांग्रेस (आई) का गठन किया । अलग पार्टी बनाने के एक महीने बाद इंदिरा ने 1978 में कर्नाटक और आंध्रप्रदेश के विधानसभा चुनावों में जीत दर्ज की । यह हाथ के निशान वाली कांग्रेस की पहली जीत थी । दूसरी तरफ 1978 के अंत तक जनता पार्टी की सरकार ने ऐसा कोई बड़ा बदलाव करके नहीं दिखाया था, जिससे जनता प्रभावित हो । उल्टा अपराध, महंगाई, भ्रष्टाचार आदि और ज्यादा बढ़ गए । वहीं शुरुआत से चली आ रही कलह पार्टी को लगातार कमजोर कर रही थी । दरअसल, चरण सिंह इंदिरा पर सख्त ऐक्शन लेने के पक्षकार थे । इसपर अनबन इतनी बढ़ गई कि मोरारजी देसाई ने चरण सिंह और इंदिरा को चुनाव हरानेवाले राज नारायण को पार्टी से निकाल दिया । दूसरी तरफ जनता पार्टी की सरकार गिराने के जुगाड़ लगा रहे संजय गांधी ने उस मौके को भुनाने का सोचा । उन्होंने चरण सिंह के हनुमान कहे जानेवाले राज नारायण से करीबी बढ़ाई । इस बीच मोरारजी ने दोनों सीनियर नेताओं को पार्टी में तो ले लिया, लेकिन अनबन बनी रही ।

दूसरी तरफ संजय गांधी किसी तरह जनता पार्टी की सरकार गिराने का जुगाड़ लगा रहे थे । इसे ध्यान में रखते हुए उन्होंने राज नारायण को मना लिया कि वह भारतीय लोक दल का समर्थन जनता पार्टी सरकार से वापस ले लें । संजय ने वादा किया था कि कांग्रेस चरण सिंह को प्रधानमंत्री बनने में मदद करेगी । इसपर राज नारायण राजी हो गए । फिर मोरारजी देसाई के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाया गया । जनता पार्टी की सरकार गिराई गई । वादे के मुताबिक, चरण सिंह पी.एम. भी बने लेकिन सिर्फ 23 दिन के लिए । इसके बाद इंदिरा ने उनसे समर्थन वापस ले लिया और फिर 1980 में चुनाव की घोषणा हो गई । इसके साथ ही चरण सिंह इकलौते ऐसे भारतीय प्रधानमंत्री बन गए, जिनकी सरकार संसद में कदम रखने से पहले ही गिर गई ।

23 जनवरी 1977 ही वो दिन था जब अचानक इंदिरा गांधी ने आकाशवाणी के जरिए देश में आम चुनाव की घोषणा की । देश में तीन दिन में ही चुनाव संपन्न हो गए । चुनाव 16 मार्च 1977 से लेकर 19 मार्च 1977 के बीच हुए । 22 मार्च 1977 को आए चुनाव नतीजे ने कांग्रेस को सत्ता से बेदखल कर दिया । चुनाव में कांग्रेस गठबंधन को मात्र 153 सीटें ही मिली थीं । इस चुनाव में पूरा विपक्ष समाजवादी नेता जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में गोलबंद हुआ था । जनता पार्टी को चुनाव चिन्ह नहीं मिल पाया था, जिसकी वजह से पार्टी ने ‘भारतीय लोक दल’ के चिन्ह “हलधर किसान” पर चुनाव लड़ा और 295 सीटें जीतीं ।

इंदिरा गांधी रायबरेली से जनता पार्टी के नेता राजनारायण से करीब 55 हजार वोटों से चुनाव हार गई थीं । राजनारायण की ही याचिका पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने 1971 में इंदिरा गांधी का चुनाव रद्द कर दिया था । उनपर सरकारी संसाधनों के दुरुपयोग का आरोप लगाया गया था । इस घटना को ही देश में आपातकाल की जड़ माना जाता है । जनता पार्टी के गठबंधन में कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया एम, रिवोल्यूशनरी सोशलिस्ट पार्टी, शिरोमणि अकाली दल, पेजैंट्स एंड वर्कस पार्टी ऑफ इंडिया, ऑल इंडिया फॉरवर्ड ब्लॉक, रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया और डी.एम.के. पार्टियां शामिल थीं । सभी ने भारतीय लोकदल के चुनाव चिन्ह पर चुनाव लड़ा था । कांग्रेस के गठबंधन में ए.आई.ए.डी.एम.के., सी.पी.आई., जम्मू एंड कश्मीर नेशनल कांफ्रेस, इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग, केरल कांग्रेस और रिवॉल्यूशनरी सोशलिस्ट पार्टी शामिल थीं । इसके अलावा दोनों गठबंधन के दलों में दो-दो निर्दलिय नेता भी शामिल थे ।

इस चुनाव में इंदिरा ही नहीं बल्कि अमेठी से उनके बेटे संजय गांधी को भी हार का सामना करना पड़ा था । चुनाव में कई दिग्गज कांग्रेसी नेताओं को शिकस्त खानी पड़ी । इलाहाबाद से जनेश्वर मिश्र ने कांग्रेस के नेता विश्वनाथ प्रताप सिंह को हराया, बंसीलाल भिवानी से हार गए, अटल बिहारी वाजपेई दिल्ली से जीते, राम जेठमलानी नॉर्थ वेस्ट बॉम्बे से जीते थे और सुब्रमण्यम स्वामी नॉर्थ ईस्ट बॉम्बे जीते थे । चुनाव में युवा नेताओं की किस्मत भी खूब चमकी । जे.पी. आंदोलन के साथ जुड़े रहने वाले लालू यादव बिहार के छपरा से तीन लाख वोट के बडे़ अंतर जीते तो रामविलास पासवान चार लाख वोट के अंतर से हाजीपुर से जीतकर संसद पहुंचे थे । बिहार और उत्तर प्रदेश में जनता पार्टी के उम्मीदवारों के बड़े अंतर जीते थे । जिसकी  एक वजह ये भी थी कि यू.पी. और बिहार में आपातकाल के दौरान संजय गांधी के आदेश पर जबरन नसबंदी कराई गई थी । जिसका विरोध जनता ने चुनावों में दिखा दिया था ।

जनता पार्टी ने दिल्ली के रामलीला मैदान से चुनावी बिगुल फूंका । कांग्रेस इस रैली को विफल करना चाहती थी इसी वजह से तात्कालिक सूचना प्रसारण मंत्री विद्याचरण शुक्ल ने दूरदर्शन पर 1975 की ब्लॉकबस्टर फिल्म ‘बॉबी’ दिखाने का फैसला किया, ताकि भीड़ घर से निकलकर जनता पार्टी की रैली में नहीं पहुंच पाए । लेकिन विद्याचरण शुक्ल की ये चाल फेल हो गई और बड़ी तादाद में लोग जे.पी. की रैली में पहुंचे । तवलीन सिंह आपातकाल पर लिखी अपनी किताब “दरबार” में लिखती हैं कि “उस दिन ठंड थी, बारिश भी हल्की-हल्की होने लगी थी । लेकिन लोग अपनी जगह पर जमे हुए थे । इतने में किसी ने अपने बगल वाले से पूछा, इतना बोरिंग भाषण हो रहा है, ठंड भी बढ़ रही है, पर लोग जा क्यों नहीं रहे हैं ? तो उत्तर मिला,अभी अटल का भाषण बाकी है । अटल बिहारी वाजपेयी ने मंच पर आते ही समां बांध दिया । उन्होंने अपने भाषण की शुरुआत शायरी से की और बोले- 

“बाद मुद्दत के मिले हैं दीवाने,

कहने- सुनने को बहुत हैं अफसाने,

खुली हवा में जरा सांस तो लेलें,

कब तक रहेगी आजादी कौन जाने”

अटल के भाषण शुरू होने के साथ ही माहौल में जान आ गई। जमकर नारे लगने लगे और तालियां बजने लगीं |”

आजादी के बाद पहली बार केंद्र में गैर-कांग्रेसी सरकार बनी । मोराराजी देसाई ने देश के प्रधानमंत्री पद की शपथ ली । हालांकि, प्रधानमंत्री की दावेदारी के लिए सबसे भारी पलड़ा बिहार के अनुसूचित जाति के नेता और कांग्रेस से जनता पार्टी में शामिल हुए बाबू जगजीवन राम का था । जगजीवन राम पिछड़ों के बड़े नेता थे । लेकिन चौधरी चरण सिंह ने भी अपनी दावेदारी पेश कर दी थी । इसकी वजह से मोरारजी देसाई के नाम पर सहमति बनी । चरण सिंह गृह मंत्री बने, बाबू जगजीवन राम को रक्षा मंत्रालय मिला, अटल बिहारी वाजपेयी विदेश मंत्री बने और मुजफ्फरपुर में बिना पैर रखे तीन लाख वोटों से जीतने वाले जॉर्ज फर्नांडिस को उद्योग मंत्रालय की कमान मिली ।

(संदर्भ- कूमी कपूर की किताब ‘द इमरजेंसी ए पर्सनल हिस्ट्री’ और कुलदीप नैयर की किताब ‘इमरजेंसी की इनसाइड स्टोरी’ से साभार)

1 मार्च, 1977 को दिल्ली के बोट क्लब में होने वाली चुनावी रैली में मौजूद सरकारी कर्मचारी इंदिरा गांधी से बहुत ख़फ़ा थे | नई दिल्ली से कांग्रेस प्रत्याशी शशि भूषण ने जब नारा लगाया, ‘बोलो इंदिराजी की जय’ तो भीड़ की तरफ़ से एक आवाज़ भी नहीं आई | शशि भूषण को लगा कि शायद माइक नहीं काम कर रहे हैं | उन्होंने जब माइक को खड़खड़ाया तो वहाँ मौजूद लोग हँसने लगे | दिल्ली की जनता ने प्रधानमंत्री के लिए इस तरह की उपेक्षा पहले कभी नहीं दिखाई थी | इंदिरा गांधी का भाषण समाप्त होने से पहले ही लोग वहाँ से उठना शुरू हो गए थे | 1977 में लोकसभा का कार्यकाल नवंबर में ख़त्म होने वाला था | लेकिन इंदिरा गांधी ने अचानक 18 जनवरी को चुनाव की घोषणा करके देशवासियों और विपक्ष दोनों को अचंभे में डाल दिया था | इंदिरा गांधी सेंटर ऑफ़ आर्ट्स के अध्यक्ष और वरिष्ठ पत्रकार राम बहादुर राय बताते हैं, “इस घोषणा से 16-17 दिन पहले मैं दिल्ली में था | उस समय जितने भी बड़े नेता थे, उनसे मैं मिला था | चरण सिंह, अटल बिहारी वाजपेयी और चंद्रशेखर सब का मानना था कि इंदिरा गाँधी विपक्ष के लोगों का मनोबल गिरा रही थीं | वो उन्हें या तो अपनी तरफ़ खींच रही थीं या तोड़ रही थीं और उनसे लेन-देन की बातचीत चल रही थी | इनमें से कोई भी नहीं समझता था कि चुनाव होंगे | जब चुनाव की घोषणा हो गई तो कोई भी चुनाव लड़ने के लिए तैयार नहीं था | मैंने राज नारायण के भाई से, जो हाल ही में उनसे जेल में मिलकर आए थे, पूछा कि उनकी क्या योजना है ? उन्होंने जेल से ही कहलवाया था कि मैं रायबरेली से चुनाव नहीं लड़ूंगा | जॉर्ज फ़र्नान्डिस और अटल बिहारी वाजपेयी बड़े नेता हैं, वही जाकर वहाँ से चुनाव लड़ें | जब मैंने सुंदर सिंह भंडारी जैसे नेता से पूछा कि कैसी तैयारी है तो वो बहुत निराश दिखाई दे रहे थे | उनका कहना था कि न तो हमारे पास चुनाव लड़ने के लिए पैसा आएगा और न ही कार्यकर्ता पूरी हिम्मत से हमारे लिए काम करेंगे क्योंकि तब तक इमरजेंसी हटाई नहीं गई थी |”

इंदिरा गांधी ने पूरे चुनाव प्रचार के दौरान 40 हज़ार किलोमीटर की यात्रा की | जम्मू कश्मीर और सिक्किम को छोड़कर वो हर राज्य में गईं और 244 चुनाव सभाओं को संबोधित किया,  लेकिन उन्हें ये अंदाज़ा लग गया था कि इस बार जनता उनके साथ नहीं है |जगजीवन राम और हेमवतीनंदन बहुगुणा के कांग्रेस से इस्तीफ़ा देने के बाद जो जनता लहर बनी, उसने इंदिरा गाँधी को सत्ता से हटा कर ही दम लिया | राम बहादुर राय बताते हैं, “वो पहला चुनाव था और आगे शायद हो या न हो, जिसमें पार्टी पीछे हो गई थी, नेता पीछे हो गए थे, सिर्फ़ जनता चुनाव लड़ रही थी | उस ज़माने में चंद्रशेखर की जब कोई चुनावी सभा होती थी तो एक आदमी चादर लेकर घूम जाता था और 10-15 लाख रुपए इकट्ठा हो जाते थे | इस बात की सूचना मात्र से कि बाहर से कोई शख़्स जनता पार्टी का प्रचार करने आया है, दस- पंद्रह हज़ार लोगों की भीड़ जमा हो जाती थी, चाहे लोग उसे जानते हों या न हों | चंद्रभानु गुप्त ने एक बार मुझसे पूछा कि अल्मोड़ा कोई जाने के लिए तैयार नहीं हो रहा है | वहाँ से डाक्टर मुरली मनोहर जोशी चुनाव लड़ रहे हैं | क्या तुम वहाँ जाओगे ? मैं वहाँ पहुंच गया | आप यकीन नहीं करेंगे कि पिथौरागढ़ में सिर्फ़ 10 मिनट तक रिक्शे पर प्रचार हुआ कि जनता पार्टी की एक सभा होने वाली है | वो पिथौरागढ़ के इतिहास की सबसे बड़ी सभा थी |”

उत्तर भारत के हर कोने में इंदिरा गांधी की चुनावी सभा में जनता की उदासीनता साफ़ दिखाई दे रही थी | डी.आर. मनकेकर और कमला मनकेकर अपनी किताब “डिक्लाइन एंड फॉल ऑफ़ इंदिरा गांधी” में जालंधर की एक चुनावी सभा का ज़िक्र करते हुए लिखते हैं, “इंदिरा गांधी ने 11 मार्च को जालंधर में जो चुनावी सभा की थी वो लोगों की नज़र में कांग्रेस की स्थिति का सही पैमाना था | इस बैठक को सफल बनाने के लिए राज्य सरकार ने सैकड़ों बसों का इस्तेमाल किया था, ताकि आसपास के इलाक़ों से ज़्यादा से ज़्यादा लोगों को इस रैली में लाया जा सके | सभा का समय भी शाम साढ़े सात से बदलकर सूर्यास्त कर दिया गया था, ताकि लोगों को वापस घर पहुंचने में देरी न हो | मुफ़्त की सवारी और आधे दिन की छुट्टी का फ़ायदा उठाते हुए लोग सभा में आए ज़रूर, लेकिन उनका मन खिन्न था | जब कांग्रेस के वक्ताओं ने जगजीवन राम पर हमला बोला और ये कहा कि अकालियों को उनके अनुरोध पर ही गिरफ़्तार किया गया था, तो भीड़ भड़क गई | सभा की समाप्ति पर सभी लोगों ने कांग्रेस पार्टी द्वारा दी गई मुफ़्त की सवारी ली लेकिन रास्ते भर वो जनता पार्टी ज़िंदाबाद के नारे लगाते गए |”

जगजीवन राम के इस्तीफ़े के बाद विपक्ष ने दिल्ली के रामलीला मैदान में एक ज़बरदस्त रैली की थी जिसके बारे में कहा जाता है कि दिल्ली के इतिहास में किसी सभा में इतना बड़ा जन सैलाब कभी नहीं देखा गया | मशहूर पत्रकार कूमी कपूर अपनी किताब “द इमरजेंसी – अ पर्सनल हिस्ट्री” में लिखती हैं, “भीड़ को दूर रखने के लिए तत्कालीन सूचना और प्रसारण मंत्री विद्याचरण शुक्ल ने दूरदर्शन से कहकर रविवार की फ़ीचर फ़िल्म का समय चार बजे से बदलवाकर पाँच बजे करवा दिया था | पूर्व- निर्धारित फ़िल्म ‘वक़्त’ के स्थान पर उन्होंने 1973 की सबसे बड़ी फ़िल्म ब्लॉकबस्टर ‘बॉबी’ दिखाने का फ़ैसला किया था | एक बार फिर रामलीला मैदान के आसपास किसी बस को आने नहीं दिया गया था और लोगों को सभास्थल तक पहुंचने के लिए एक किलोमीटर तक चलना पड़ा था | जे.पी. और जगजीवन राम ‘बॉबी’ से कहीं बड़े आकर्षण सिद्ध हुए | अटल बिहारी वाजपेयी की दत्तक पुत्री नमिता भट्टाचार्य ने मुझे बताया था कि जब वो सभास्थल की तरफ़ जा रही थीं तो उन्हें कुछ दबी हुई सी आवाज़ सुनाई दी | हमने टैक्सी ड्राइवर से पूछा, ‘ये किसकी आवाज़ है ?’ उसका जवाब था, ‘ये लोगों के क़दमों की आवाज़ है |’ जब हम तिलक मार्ग पहुंचे तो वो लोगों से खचाखच भरा हुआ था | हमें वहाँ अपनी टैक्सी छोड़नी पड़ी और वहाँ से रामलीला मैदान हम पैदल गए |”

इससे पहले रामलीला मैदान में एक और सभा हुई थी जिसे अटल बिहारी वाजपेयी ने संबोधित किया था | उस सभा में मशहूर पत्रकार वीरेंद्र कपूर भी मौजूद थे | कपूर बताते हैं, “उस सभा में क़रीब-क़रीब आधी दिल्ली उमड़ पड़ी थी | दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्र लोगों के जूते पॉलिश कर जनता पार्टी के लिए पैसे जमा कर रहे थे | साढ़े नौ बजे अटलजी बोलने के लिए खड़े हुए | उन्होंने थोड़ा ‘पॉज़’ लिया और आँखें बंद करके कहा,  ‘बाद मुद्दत के मिले हैं दीवाने’ भीड़ पागल होकर ताली बजाने लगी |  उन्होंने फिर आँखें बंद की और लंबे ‘पॉज़’ के बाद कहा, ‘कहने सुनने को बहोत हैं अफ़साने’ इस बार और लंबी तालियाँ बजीं | उसके बाद उन्होंने उसी समय स्वरचित दो लाइनें जोड़ीं –

खुली हवा में ज़रा सांस तो ले लें

कब तक रहेगी आज़ादी कौन जाने

भीड़ ने पूरे दो मिनट तक ताली बजाई | वाजपेयी का भाषण समाप्त होने और नेताओं के वापस चले जाने के काफ़ी देर बाद तक भीड़ वहाँ रुकी रही मानो उन्होंने सामूहिक रूप से ये तय कर लिया हो कि उन्हें ताली बजाने के अलावा इनके लिए कुछ और भी करना है | मीटिंग के बाद कनॉट-प्लेस तक लोग पैदल चले आ रहे थे | उस रात मुझे पहली बार अंदाज़ा हुआ कि इंदिरा गाँधी चुनाव हार भी सकती हैं |”              

जनता पार्टी के चुनाव अभियान को हवा दी आपातकाल की ज़्यादतियों और संजय गांधी के नसबंदी और शहरों के सौंदर्यीकरण अभियान ने | रामबहादुर राय बताते हैं, “आज काशी विश्वनाथ मंदिर के चारों तरफ़ नरेंद्र मोदी सरकार जो कॉरीडोर बना रही है, वैसा ही कुछ संजय गांधी उस समय चाहते थे | इसके लिए वहाँ के कमिश्नर को बाकायदा आदेश दे दिया गया था |  बनारस में इसको लेकर अंदर-अंदर बहुत रोष पैदा हो रहा था | शायद कमलापति त्रिपाठी ने इसके बारे में इंदिरा गांधी को बताया था | पुपुल जयकर इंदिरा की जीवनी में लिखती हैं कि एक दिन इंदिरा गांधी ने उन्हें बुलाकर कहा कि तुम बनारस जाओ और पता लगाकर आओ कि इसको किया जाना चाहिए या नहीं | पुपुल ने वापस आकर इंदिरा को रिपोर्ट दी | इसके बाद इस योजना को रुकवा दिया गया |” शायद इमरजेंसी में वो अकेला फ़ैसला है जिसमें इंदिरा गांधी ने ख़ुद हस्तक्षेप किया, नहीं तो आगरा और दिल्ली जैसे शहरों में शहर सफ़ाई के नाम पर बहुत ज्यादतियाँ हुईं | नसबंदी के नाम पर लोगों के साथ जो ज़ोर ज़बरदस्ती हुई उसने लोगों को इंदिरा गांधी के ख़िलाफ़ कर दिया |

शाही इमाम का भाषण

इंदिरा गांधी के ख़िलाफ़ माहौल बनाने में दिल्ली की जामा मस्जिद के शाही इमाम ने भी बड़ी भूमिका निभाई | जामा मस्जिद की सीढ़ियों से जब उन्होंने इंदिरा गांधी के ख़िलाफ़ वोट देने की अपील की तो उसका असर देखने लायक था | तवलीन सिंह अपनी किताब ‘दरबार’ में लिखती हैं, “सैयद अहमद शाह बुख़ारी लंबे चौड़े शख़्स थे, जिनकी दाढ़ी सफ़ेद थी | उनकी आवाज़ दूर तक गूंजती थी | उस शाम जब वो जामा मस्जिद की सीढ़ियों पर आर.एस.एस. के नेताओं का हाथ पकड़े हुए खड़े हुए तो उन्होंने शानदार लिबास पहन रखा था | काफ़ी नारेबाज़ी और शोर-शराबे के बीच उन्होंने ऐलान किया वो शाही इमाम के तौर पर उनको हुक्म दे रहे हैं कि वो इंदिरा गांधी के ख़िलाफ़ वोट दें | फिर उन्होंने पूछा ‘क्या आपको मेरी ये बात मंज़ूर है ?’ जामा मस्जिद के चारों और खड़ी भीड़ ने एक स्वर में जवाब दिया, ‘मंज़ूर है’ |” लेकिन वीरेंद्र कपूर का मानना है कि शाही इमाम ने मुसलमानों के बीच संजय गांधी के ख़िलाफ़ उठ रही भावनाओं का फ़ायदा उठाया | वह कहते हैं, “शाही इमाम इस लड़ाई में इसलिए कूदे क्योंकि वो जानते थे कि जिस समुदाय को वो संबोधित कर रहे थे, वो पूरी तरह से संजय गांधी के ख़िलाफ़ था | वो संजय गांधी के नसबंदी अभियान से बहुत नाराज़ थे | अगर शाही इमाम कहते कि कांग्रेस को वोट दीजिए तो उन्हीं के लोग उन्हें जामा मस्जिद से निकाल देते | उन्होंने तो उस माहौल का फ़ायदा उठाया जिस में सभी लोग इंदिरा और संजय गांधी के ख़िलाफ़ हो गए थे |”

फ़र्नांडिस की तस्वीर से लड़ा गया चुनाव

बड़ौदा डायनामाइट केस में फंसे जार्ज फ़र्नान्डिस ने जेल में ही रहकर मुज़फ़्फरपुर से चुनाव लड़ने का फ़ैसला किया | उनके पूरे परिवार और सुषमा स्वराज ने हथकड़ियों में जकड़ी उनकी तस्वीर दिखा कर ही पूरे क्षेत्र में प्रचार किया | जब चुनाव परिणाम आया तो जॉर्ज दिल्ली के तिहाड़ जेल में बंद थे | जॉर्ज फ़र्नान्डिस के निकट सहयोगी रहे के विक्रम राव बताते हैं, “जॉर्ज को रिहाई तो मिली नहीं लेकिन जेलर ने किसी तरह उनका नामांकन फ़ाइल करवा दिया | हम सब लोग तिहाड़ के 17 नंबर वार्ड में थे | सवाल ये था कि मुज़फ़्फ़रपुर में जो मतगणना हो रही है, उसकी ख़बर हमें कैसे मिले ? जेल के एक डॉक्टर हुआ करते थे | हमने उनसे कहा कि आप अकेले शख़्स हैं जो रात में 10-11 बजे यहाँ आ सकते हैं | हम पर एक कृपा करिए कि जब आप रात को आएं तो पता लगाते आएं कि मुज़फ्फरपुर में कौन ‘लीड’ कर रहा है | डॉक्टर 11 बजे आए और आकर उन्होंने बताया कि जॉर्ज 1 लाख वोट से ‘लीड’ कर रहे हैं | मैं एक छोटा सा ट्रांज़िस्टर ‘स्मगल’ करके जेल के अंदर ले गया था | सुबह साढ़े चार बजे मैंने ‘वॉयस ऑफ़ अमेरिका’ से सुना कि इंदिरा गांधी के चुनाव एजेंट ने फिर से मतगणना की मांग की है | ये सुनते ही मैं उछल पड़ा | दोबारा मतगणना कराने की मांग तो हारने वाला उम्मीदवार ही करता है न कि जीतने वाला | मैंने तुरंत जॉर्ज और उनके पास चारपाई पर लेटे हुए अपने साथियों को जगा कर ये शुभ सूचना दी | पूरी जेल में एक तरह से दीवाली का माहौल हो गया, जबकि दीवाली अभी 9 महीने दूर थी |”

1977 में इंदिरा गांधी की हार को मशहूर फ़ोटोग्राफ़र रघु राय ने भी अपने कैमरे में कैद किया था | उस तस्वीर में एक कूड़ा उठाने वाला इंदिरा गांधी के फटे हुए पोस्टर को उठा रहा है और सामने की दीवार पर परिवार नियोजन का मशहूर स्लोगन लिखा हुआ है, ‘हम दो, हमारे दो’ | रघु राय बताते हैं, “मैंने उस चुनाव में कई रैलियों की तस्वीर खींची | वहाँ से मुझे ये अहसास होना शुरू हो गया था कि कांग्रेस दम तो लगा रही है, लेकिन पिटने वाली है | उन दिनों एक ही दिन में पूरे देश में चुनाव हो जाते थे | मैं पुरानी दिल्ली में जामा मस्जिद इलाक़े में चुनाव ‘कवर’ करके वापस लौट रहा था, तो मुझे ये दृश्य दिखाई दिया | मैंने सोचा, ‘माई गॉड, व्हाट अ सिचुएशन!’ वो तस्वीर मैंने खींच ली और अपने संपादक कुलदीप नैयर को दिखाई | उन्होंने कहा कि ये कमाल की तस्वीर है, जो सब कुछ दिखा रही है | लेकिन मैं इसे इस्तेमाल नहीं करूंगा | मैंने पूछा, क्यों नहीं करेंगे ? बोले, ‘अगर वो हारी नहीं तो तुम और मैं दोनों जेल में होंगे | मैंने कहा ‘नैयर साब मेरा यकीन करिए, वो हार रही हैं |’ उन्होंने तब भी तस्वीर नहीं छापी | मैंने तस्वीर गुस्से में लेकर फाड़ दी | दूसरे दिन शाम पाँच बजे कुलदीप साहब रघु राय को ढ़ूढ़ रहे थे | जब पता चला कि मैं दफ़्तर में नहीं हूँ, तो उन्होंने मुझे घर पर फ़ोन किया | बोले, ‘कहाँ हो ?  कांग्रेस हार रही है | वो तस्वीर छापनी है अख़बार में |’ मैंने कहा कि मैंने आपको पहले ही कह दिया था कि अगर आज तस्वीर नहीं छापेंगे, तो कल मैं नहीं आउंगा | फिर उन्होंने कहा ‘मुझे माफ़ कर दो | तुम इसी वक्त आ जाओ |’ अगले दिन वो तस्वीर अख़बार में छपी | वो एक तरह का फ़ोटो-संपादकीय था, जो उनकी हार पर टिप्पणी कर रहा था |”

जनता पार्टी के टिकट पर ‘बिजली का खंभा’ भी जीता

उस चुनाव में कांग्रेस को पूरे ‘काउ बेल्ट’ में मात्र 2 सीटें मिलीं, 1 राजस्थान में और 1 मध्यप्रदेश में | कहा गया कि जनता आँधी में ‘लैंप-पोस्ट’ भी जीतकर लोकसभा में पहुंच गया | रामबहादुर राय याद करते हैं, “उस चुनाव का कमाल देखिए | प्रतापगढ़ से राजा दिनेश सिंह को हराकर एक सज्जन आए | उन दिनों किसी भी नेता के यहाँ बहुत भीड़ रहा करती थी | उस दिन संयोग से मैं चरण सिंह के यहाँ बैठा हुआ था | एक व्यक्ति उनके पास आया और उनके चरण छुए | चौधरी साहब ने अपना सिर उठा कर कहा, ‘तुम्हारी तारीफ़?’ उसने कहा आपके आशीर्वाद से मैं प्रतापगढ़ से सांसद हो गया हूँ | चरण सिंह ने कहा, मैंने तुम को टिकट ये सोच कर नहीं दिया था कि तुम जीत जाओगे | मैंने टिकट इसलिए दिया थी कि मेरी पत्नी गायत्री देवी तुम्हारी सिफ़ारिश कर रही थीं | मैंने सोचा कि टिकट भी दे देंगे और ये हार भी जाएगा | अब तुम भी जीत कर आ गए तो मैं क्या करूँ | कहने का मतलब ये कि उत्तर में जिसे भी जनता पार्टी का टिकट मिला, वो जीत कर ही आया |”

जब इंदिरा गांधी मतगणना में पिछड़ने लगीं तो रायबरेली के ज़िला मजिस्ट्रेट विनोद मल्होत्रा पर दोबारा मतगणना कराने का दबाव डाला गया | जाने माने पत्रकार कुलदीप नैयर अपनी आत्मकथा, ‘बियॉन्ड द लाइंस’ में लिखते हैं, “विनोद मल्होत्रा ने मुझे बताया कि पहले राउंड से ही उन्हें लगने लगा था कि इंदिरा गांधी हार रही हैं | ओम मेहता और आर.के. धवन ने उन्हें दो बार फ़ोन करके कहा कि वो चुनाव परिणाम घोषित न करें | विनोद ने कहा कि जब इंदिरा गांधी की हार पक्की हो गई तो मैं अपनी पत्नी से परामर्श करने गया | मैंने उससे कहा कि अगर मैं नतीजा घोषित कर देता हूँ, तो मुझे इंदिरा गाँधी के ग़ुस्से का शिकार होना पड़ेगा, क्योंकि वो कहीं से उप-चुनाव जीत कर दोबारा संसद में आ जाएंगी | मैं तब भी मान रहा था कि कांग्रेस पार्टी ही सत्ता में आ रही है | मल्होत्रा की पत्नी ने मुझे बताया कि जब मेरे पति ने मेरी राय मांगी तो मैंने कहा, ‘हम बर्तन मांज लेंगे, मगर बेइमानी नहीं करेंगे |”

पुपुल आई हैव लॉस्ट

उधर इंदिरा गांधी अपने निवास स्थान 1 सफ़दरजंग रोड पर अपने आप को इस चौंका देने वाले परिणाम का सामना करने के लिए तैयार कर रही थीं | उसी समय उनकी दोस्त और बाद में उनकी जीवनी लिखने वाली पुपुल जयकर भी वहाँ पहुंच गईं | पुपुल जयकर लिखती हैं, “जब इंदिरा गांधी का सचिव मुझे उनके कमरे में लेकर गया तो वो वहाँ अकेले बैठी हुई थीं | मुझे देखते ही वो उठीं और बोलीं, ‘पुपुल मैं हार गई हूँ |’ मैं ये सुनकर स्तब्ध रह गई और मुझे नहीं सूझा कि मैं क्या कहूँ ? साढ़े दस बजे उन्होंने घंटी बजाई और खाना लगाने और राजीव और सोनिया को बुलाने के लिए कहा | वो बहुत देर बाद आए | सोनिया चुपचाप रो रही थीं | इंदिरा ने कटलेट्स, सलाद और उबली हुई सब्ज़ियाँ लीं | तभी उनके स्पेशल असिस्टेंट आर.के. धवन ने आकर ख़बर दी कि ‘टिकर’ पर ख़बर है कि राजनारायण की बढ़त अब 20 हज़ार की हो गई है | खाने के बाद मैं, राजीव, सोनिया और मोहम्मद यूनुस के साथ उनके पास बैठी | मैं वहाँ रात बारह बजे तक रही | जब मैं उठने लगी तो कुछ समय के लिए राजीव के पास अकेले रह गई | राजीव ने कहा, ‘मैं ममी को इस हालत में पहुंचाने के लिए संजय को कभी माफ़ नहीं करूंगा | इस सबके लिए वही ज़िम्मेदार है | थोड़ी देर बाद इंदिरा ने अपने निवास स्थान पर ही अपने मंत्रिमंडल की बैठक बुलाई | जहाँ उन्होंने आपातकाल को समाप्त करने का फ़ैसला लिया और कार्यवाहक राष्ट्रपति बी.डी. जट्टी को अपना इस्तीफ़ा सौंपने उनके निवास-स्थान गईं |”

इंदिरा गाँधी के सचिव रहे पी.एन. धर अपनी किताब ‘इंदिरा गांधी, इमरजेंसी एंड इंडियन डेमोक्रेसी’ में लिखते हैं, “जट्टी, उनकी पत्नी और उनके परिवार के कुछ सदस्य ड्राइंग रूम में इंदिरा गांधी का इंतज़ार कर रहे थे | उन्होंने उनका आरती से परंपरागत स्वागत किया | जट्टी हिले हुए दिखाई दे रहे थे | जैसे ही उन्होंने कुछ बोलने के लिए अपना मुंह खोला, उनकी पत्नी ज़ोर-ज़ोर से रोने लगीं | ग़नीमत ये रही कि उसी समय कुछ नौकर चाय और नाश्ते की ट्रे लेकर कमरे के अंदर आ गए | चाय के प्यालों की खनक ने जट्टी की पत्नी की सिसकियों को छिपा लिया | कुछ असहज क्षणों के बाद इंदिरा गांधी ने कार्यवाहक राष्ट्रपति को अपना इस्तीफ़ा सौंपा | उन्होंने न तो लिफ़ाफ़े को खोला और न ही इंदिरा से कुछ कहा | जैसे ही श्रीमती गांधी वापस जाने के लिए उठीं, मुझे अहसास हुआ कि जट्टी ने प्रधानमंत्री से ये नहीं कहा है कि आप नई सरकार बनने तक इस पद पर बनी रहें | मैंने जट्टी को एक तरफ़ ले जाकर इस संवैधानिक ज़रूरत की तरफ़ उनका ध्यान दिलाया | ये सुनते ही जट्टी ने घबराते हुए एक दर्जन बार मुझसे हाँ- हाँ कहा | फिर जैसा मैंने उन्हें सलाह दी थी, प्रधानमंत्री से उन्होंने वैकल्पिक व्यवस्था होने तक पद पर बने रहने के लिए कहा | इस्तीफ़ा देने के बाद इंदिरा गांधी साउथ ब्लॉक न जाकर अपने घर गईं | शाम को उन्होंने भारत सरकार के सारे सचिवों और अपने ‘स्टाफ़’ को चाय पर बुलाकर उन्हें विदाई दी |”

बहादुरशाह ज़फ़र रोड पर जश्न

जब इंदिरा गांधी रात में अपने मंत्रिमंडल की बैठक कर रही थीं, दिल्ली की सड़कों पर उत्सव का माहौल था | ढोल बज रहे थे और लोग सड़कों पर नाच रहे थे  | तवलीन सिंह लिखती हैं, “उस रात ‘स्टेट्समैन’ के दफ़्तर में कोई घर नहीं गया | कैंटीन से चाय के अनगिनत प्याले आते रहे | रात को ‘स्टेट्समैन’ और ‘हिंदुस्तान टाइम्स’ के बहुत सारे ‘रिपोर्टर’, एंबेसडर कारों के काफ़िले में बहादुरशाह ज़फ़र मार्ग गए, जहाँ ‘टाइम्स ऑफ़ इंडिया’ के दफ़्तर के सामने हज़ारों लोग जमा हो चुके थे | चारों तरफ़ नगाड़े बज रहे थे और लोग नाच रहे थे | ये सिलसिला पूरी रात चला | तड़के पाँच बजे के आसपास मैं अपने घर पहुंची | मेरे माता-पिता जाग रहे थे | मेरी माँ ने कहा, वो हार गई है और उसका बेटा भी हार गया है | मैंने कभी सोचा नहीं था कि कभी ऐसा हो पाएगा | हमें भारतीय मतदाता को ‘सैल्यूट’ करना चाहिए |”

छठा आम चुनाव 1977 की मुख्य बातें

*छठी लोकसभा के लिए जब चुनाव हुए तब साल था १९७७ का ।  ये चुनाव ०४ दिन तक अर्थात १६ मार्च से २० मार्च तक चले । छठी लोकसभा के लिए उस समय २५ राज्यों और ०६ केंद्रशासित प्रदेशों में ५४२ सीटों के लिए चुनाव हुए ।

*देश की छठी लोकसभा २३ मार्च १९७७ को अस्तित्व में आई ।

*छठी लोकसभा के चुनाव हेतु ३,७३,९१० चुनाव केंद्र स्थापित किए गए थे । 

*उस समय मतदाताओं की कुल संख्या ३२.१२ करोड़ थी । 

*उस समय ६०.४९ % मतदान हुए थे । 

*छठी लोकसभा के लिए ५४२ सीटों के लिए हुए चुनाव में कुल २४३९ उम्मीदवार चुनावी मैदान में थे जिन में से १३५६ उम्मीदवारों की ज़मानत ज़ब्त हुई थी। 

*छठी लोकसभा के लिए हुए चुनाव में ०२ उम्मीदवार निर्विरोध चुनाव जीत कर लोकसभा में पहुँचने में सफल हुए थे । 

*इस चुनाव में कुल ७० महिला उम्मीदवार चुनाव लड़ रही थी जिन में से १९ महिला उम्मीदवार जीत दर्ज कराने में सफल हुई । 

*५४२ सीटों के लिए हुए इस चुनाव में ७९ सीटे अनुसूचित जाती के लिए और ४१ सीटे अनुसूचित जनजाती के लिए आरक्षित रखी गई थी । 

*छठी लोकसभा के लिए हुए चुनाव में ३४ राजनीतिक दलों ने भाग लिया था जिन में से राष्ट्रीय राजनीतिक दलों की संख्या ०५ और राज्य स्तरीय राजनीतिक दलों की संख्या १५ थी जबकि १४ पंजीकृत अनधिकृत राजनीतिक दल भी इस चुनाव में अपनी किस्मत आज़मा रहे थे     । 

*राष्ट्रीय राजनीतिक दलों ने कुल १०६० उम्मीदवार चुनावी मैदान में उतारे थे, जिन में से १०० उम्मीदवारों की ज़मानत ज़ब्त हुई थी और राष्ट्रीय राजनीतिक दलों के ४८१ उम्मीदवार जीत दर्ज कराने में सफल हुए थे । इस चुनाव में राष्ट्रीय राजनीतिक दलों को कुल वोटों में से ८४.६७ % वोट मिले थे ।

*इस चुनाव में राजयस्तरीय राजनीतिक दलों ने कुल ८५ उम्मीदवार खड़े किए थे।  रिकॉर्ड के अनुसार इन ८५ प्रत्याशीयों में से ०६   प्रत्याशीयों की ज़मानत ज़ब्त हुई थी और ४९ प्रत्याशी लोकसभा में पहुंचे थे।  इस चुनाव में राजयस्तरीय राजनीतिक दलों को कुल वोटो में से ८.८० % वोट मिले थे। 

*इस चुनाव में पंजीकृत अनधिकृत राजनीतिक दलों ने ७० उम्मीदवार चुनावी मैदान में उतारे थे। इन ७० उम्मीदवारों में से ६० उम्मीदवार अपनी ज़मानत बचाने में भी विफल रहे जबकि ०३ उम्मीदवार लोकसभा तक पहुँचने में सफल हुए। इस चुनाव में पंजीकृत अनधिकृत राजनीतिक दलों को कुल वोटो में से १.०३ % वोट मिले थे। 

*इस चुनाव में कुल १२२४ निर्दलीय उम्मीदवार चुनावी मैदान में थे।  इन १२२४ निर्दलीय उम्मीदवारों में से ०९ उम्मीदवार जीत दर्ज कराने में सफल हुए थे।  कुल वोटो में से ५.५० % वोट निर्दलीय उम्मीदवारों ने प्राप्त किए थे जबकि ११९० निर्दलीय उम्मीदवारों की ज़मानत ज़ब्त होने का रिकॉर्ड मौजूद है।

*इस चुनाव में भारतीय लोक दल सब से बड़े दल के रूप में सामने आया। ५४२ सीटों के लिए हुए इस चुनाव में भारतीय लोक दल के ४०५  उम्मीदवार चुनावी मैदान में थे।  इन में से २९५ उम्मीदवार जीत दर्ज करा कर लोकसभा पहुँचने में सफल हुए तो वही ०५ उम्मीदवारों की ज़मानत ज़ब्त होने का उल्लेख भी रिकॉर्ड में मौजूद है। इस चुनाव में भारतीय लोक दल को कुल वोटो में से ४१.३२ % वोट मिले थे।

*कांग्रेस दूसरी सब से बड़ी पार्टी बन कर उभरी थी।  कांग्रेस ने कुल ४९२ उम्मीदवार चुनावी मैदान में उतारे थे।  इन ४९२ उम्मीदवारों में से १८  उम्मीदवारों की ज़मानत जब्त हुई थी जबकि १५४  उम्मीदवार लोकसभा पहुँचने में सफल हुए थे। कांग्रेस को कुल वोटों में से ३४.५२ % वोट मिले थे।  

*उस समय की प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई उस समय छठी लोकसभा के लिए हुए इस चुनाव में गुजरात के सूरत चुनाव क्षेत्र से चुनाव जीत कर लोकसभा पहुंची थी।

*सरकारी आंकड़ों से पता चलता है कि छठी लोकसभा के लिए हुए इस चुनाव में २३,०३,६८,००० (२३ करोड़, ०३ लाख, ६८ हज़ार रुपये) रुपये की राशि खर्च हुई थी ।  

*उस समय श्री टी. स्वामीनाथन भारत के मुख्य चुनाव आयुक्त हुआ करते थे, जिन्होंने ये चुनाव सफलतापूर्वक संपन्न कराने में बेहद महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।  

*छठी  लोकसभा २२ ऑगस्ट १९७९ को विसर्जित की गई। 

*इस चुनाव के बाद छठी लोकसभा के लिए २५ मार्च १९७७ को शपथ ग्रहण समारोह आयोजित किया गया था।  

*छठी लोकसभा के सभापती पद हेतु २६ मार्च १९७७ को चुनाव हुए और नीलम संजीव रेड्डी को सभापती और गोड़े मुरहरि को उपसभापती के रूप में चुना गया।  

*छठी लोकसभा के कुल ०९ अधिवेशन और २६७ बैठके हुई।  इस लोकसभा में कुल १३५ बिल पास किए गए थे जिस का रिकॉर्ड मौजूद है। 

*छठी लोकसभा की पहली बैठक २५ मार्च १९७७ को हुई थी।

*छठी लोकसभा की ५४२ सीटों के लिए हुए इस चुनाव में ४८१ सीटों पर राष्ट्रीय राजनीतिक दलों ने, ४९ सीटों पर राज्यस्तरीय राजनीतिक दलों ने,०३ सीटों पर पंजीकृत अनधिकृत राजनीतिक दलों ने जबकि ०९ सीटों पर निर्दलीय उम्मीदवारों ने जीत दर्ज की।

प्रा. शेख मोईन शेख नईम 

डॉ. उल्हास पाटील लॉ कॉलेज, जलगाव 

7776878784

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