तारे – स्वार्थी घरवालों की कहानी

तारे 

मावस्या की रात में चाँद गुम था लेकिन तारे काली साड़ी में, सफ़ेद सितारों की तरह सारे आसमान में दूर तक फैले, जगमग – जगमग कर रहे थे. गर्मी के दिनों में हर दिन फतेहसिंह और शांति छत पर सोने से पहले तारों की ढेरों बात करते. “देखो, आज आसमान में कितने सारे तारे हैं. वो देखो कितना निन्हा – सा तारा. बहुत छोटा, दिख रहा है, तुमको ? देखो — देखो— वो तारा टूटा और वो देख रही हो तुम, वो बड़ा – सा —तारा, कितना सुन्दर है रे, बाबा ! ये तारों की चमकीली बातें उनके बीच तब तक चलती रहतीं जब तक उन दोनों में से एक सो नहीं जाता.

तारे

उनके जीवन में तारों से बड़ा वास्ता था. बड़ी बहू का नाम तारा और बेटी का नाम भी तारा. जब तक दो ही बेटे थे तो फतेहसिंह कहते “ये दोनों मेरी आँखों के तारे हैं” जब बेटी पेट में आई तो शांति ने चुहल करते हुए बोली थीं “अब तीसरी आँख तो नहीं है तुम्हारे, अब क्या कहोगे इसके लिए ? फतेहसिंह कहते “अब बेटी होगी तो उसका नाम ही तारा रख देंगे और बेटा हुआ तो ताराचंद. यानि वो खुद ही तारा होगा. उसके लिए मुझे किसी तीसरी आँख की ज़रुरत नहीं पड़ेगी. 

संयोग से बेटी हुई और बहुत प्यार से उसे नाम मिला, तारा. बेटी दोनों बेटों से छोटी थी. एक रात तारों की बातों ही बातों में फतेहसिंह और शांति की बात इस बात पर आ टिकी कि हम मैं से पहले कौन तारा बनेगा—- ? पता नहीं कौन बनेगा— ? ये कैसा भविष्यकाल का सवाल था जिसमें यह कामना दोनों की अपने जीवनसाथी के लिए थी कि उसका साथी ही पहले तारा बन जाए तो अच्छा हो. जिससे परिवार में बुढ़ापा काटने में उसके साथी को बहुत दिक्कत नहीं हो. 

परिवार का बड़का शहर में ही अलग मकान ले कर रह रहा था. ठीक – ठाक कमाई थी. सरकारी नौकर था. छुटका हर दिन कच्ची – पक्की, नई – नई नौकरी पकड़ता. सो उसकी कमाई भी उसी तरह की होती. दसवीं भी नहीं हुई थी उससे. जैसे – तैसे ब्याह गया था बस ! उसकी हाय – हाय को देखते हुए माँ – बाप खुद ही घर – बाहर के काम – धाम निपटाने में लगे रहते. छुटके की बड़ी बेटी को बचपन से ही दौरे पड़ते थे. उसके इलाज़ में फतेहसिंह ने पैसा खूब पानी की तरह बहाया पर बेटी को दौरे पड़ना बंद नहीं हुए इसलिए वह स्कूल भी नहीं जा सकी. वह घर में रह कर ही घर के कामकाज में माँ का हाथ बँटाती. कमाई की कमी और बेटी की बीमारी के चलते छुटके की जेब सदा खाली रहती. ऐसे में छुटके को फतेहसिंह यही कहते कोई दिक्कत नहीं, मैं जीऊँगा तब तक पेंशन तो है ही अपने पास, तू फिकर मत कर. 

छुटके की कमाई को देखते हुए फतेहसिंह ने घर में ही आगे का कमरा दुकान जैसा बनवा दिया था. जिसमें छोटी बहू किराने की दुकान चलाती थी. बेटी तारा उसी शहर में ब्याही थी लेकिन कामचोर ऐसी कि जब भी माँ की तबीयत नासाज़ होती तो पिता को फोन पर ही जवाब दे देती. “क्या है न बाऊजी, ये मुझे वहाँ  छोड़ेंगे नहीं और फिर अभी बच्चों का स्कूल है, टयूशन है, घर के दस लफड़े हैं” सो फतेहसिंह समझ जाते कि उनके बुरे दिन तो अब आने वाले हैं— उन्हें लगता कि उनके बच्चे शायद इतने बड़े कभी नहीं होंगे जो उनके बढ़ते बुढ़ापे को सँभाल लें. वे बस शांति से हारी – बीमारी में यही कहते “कहाँ जनमिया, कहाँ उपनिया, कहाँ लड़ाए लड्ड, क्या जाने किस खड्ड में पड़े रहेंगे हड्ड“ और फिर कुछ क्षणों के लिए दोनों गहरी चुप्पी में चले जाते. ये सुना हुआ जुमला ही उन्हें भविष्य से लड़ने ले लिए आश्वस्त करता.

एक रात तारों की बात करते – करते शांति का दायाँ हाथ फड़कने लगा. वह एक मिनिट तो चुप रही फिर लगा मैं तो सब बात इनसे करती ही हूँ न ! बता देती हूँ इनको. सो रुआँसी हो कर बोली “सुनो, मेरा दायाँ हाथ फड़क रहा है कुछ अशुभ होने का डर लग रहा है, औरतों के दाएँ अंग का फड़कना अशुभ मानते हैं” फतेहसिंह ने शांति का दायाँ हाथ अपने हाथ में दबा लिया. लो अब तो नहीं फड़क रहा ? बेटी तारा कल ही पीहर से ससुराल गई थी. शांति के मन में एक अज्ञात सा भय जन्म ले रहा था सो छोटी बहू को आवाज़ लगाई “छुटका आ गया क्या ? आ गया तो बाहर फाटक में ताला लगा दे” अब बड़के का ख्याल आने लगा अगर ये एक बार बड़के से फोन पर बात कर लें तो अच्छा हो. लेकिन फतेहसिंह ने इतने विश्वास के साथ हाथ पकड़ रखा था कि किसी भी अनहोनी का विचार कमज़ोर होता जा रहा था. 

उस रात छत पर सोई शांति सुबह नहीं उठी—फतेहसिंह ने बड़े बेटे और बेटी को खबर कर दी. बाहर नीम के नीचे दुपहिए सट – सट कर खड़े होने लगे. बड़ा बेटा और बेटी आ गए. बड़ी और छोटी बहू दहाड़े मार – मार कर रोने लगीं. ननद को गले लगा कर सांत्वना देने लगीं. भेंजी रोओ मत, एक दिन सभी को जाना है. पर जैसे ही वे चुप होतीं उनके चेहरे, एक तरह की ज़िम्मेदारी से कुछ मुक्त महसूस करते. घर में बारहवें पर किसी सुहागन को जिमाने और हाथे देने की बात चली. सो ननद ने कह दिया. मुझे ही दे देना, जो कुछ देना है, घर का घर में ही रह जाएगा. बड़ी भाभी ने भी भाई को समझाया भेंजी को ही दे दो, जो कुछ देना है, वरना भेंजी को अलग से देना पड़ेगा. इस मौके पर हिसाब – किताब की क़तर ब्यौत बहुत ही करीने से चल रही थी. सभी किसी भी तरह के विशेष खर्चे की आशंका के प्रति बड़े सजग थे.

“भेंजी तो कल बारहवें का माल बटोर कर चली जाएँगी फिर बाऊजी का तो हमको ही करना पड़ेगा न ! ये शब्द जैसे दोनों बहुएँ एकदूसरे के मुँह में डाल रही थीं.

अब तक तो फतेहसिंह की पेंशन से छुटके की नैया मज़े से पार लग रही थी और घर में माँ, पिता की टहल सेवा कर देती थी पर अब कौन करेगा ? यह सवाल सबके सामने था. इस सवाल पर बारहवें तक तो जैसे सबको मन मार कर चुप बैठना था, सो सब चुप बैठे रहते. इन दिनों दिनभर तो औरतें और आदमी  बैठने आते इसलिए घर में सब अलग – अलग बैठते लेकिन हर रात छत पर पिताजी के इंतजाम को लेकर हंडिया खदबदाती. बेटी – दामाद भी जम कर हंडिया में छोंक लगाते. दामाद को अपने घर में कोई पूछता नहीं था, सो वह ससुराल में अपने को सम्मानित सलाहकार समझता. जब भाई पास रह कर भी दूर – दूर हों तब तो सलाहकार दामाद की कीमत और भी बढ़ जाती है. 

”अब भी पेंशन का पैसा तो आएगा लेकिन बाऊजी की ज़िम्मेदारी कौन ले ? जो कि उनकी उम्र के साथ – साथ बढ़ती ही जाएगी, बुढ़ापे का शरीर है —

बाऊजी की जिम्मेदारी हमारी ही थोड़ी है. उन्हें बड़के के परिवार का सुख भी तो दिख रहा था कि भाभी और भैया कैसे मजे से रह रहे हैं. अब तो भाभी के माथे से पल्लू भी सरक – सरक जाता है, देखा तुमने ? और एक हम हैं जो पिसे जा रहे हैं. माँ – बाप की सेवा कर कर के. माँ – बाप तो सभी के हैं, हमारे ही थोड़ी हैं. सब रखो बाऊजी को थोड़े – थोड़े दिन. अब तीये की बैठक तो निबट गई बस अब भाईसाहब से बात कर लो क्या करना है बाऊजी का ? छोटी बहू एक साँस में छुटके से ये सब कह गई—”

इस बीच छोटी – छोटी बैठकें कोनों में होती रहीं लेकिन फेंसला तो लेना था न ! 

अनुपमा तिवाड़ी
अनुपमा तिवाड़ी

खदबदाती हंडिया बारहवें की रात आँगन में उतर आई, बैठक हुई. दोनों बहुएँ चेहरे पर हल्का – सा पर्दा डाले, सबसे सक्रिय दिमागों के साथ दरी पर बैठी हैं. दोनों बेटे और बेटी, दामाद फैसला करने बैठे हैं, पिताजी का. पिताजी चुप हैं. शांति की याद फतेहसिंह की आँखें बार – बार गीली कर रही हैं. इन दिनों में आँखों की रौशनी भी थोड़ी कम हो गई है. बैठक में बेटी बन्दर बन, तराजू सँभालते हुए बोली “अब देखो भाईसाहब, छुटके के तो इतनी कमाई है नहीं कि वह पिताजी को रख सके. साढ़े सात हज़ार की पेंशन से क्या होगा ? बुढ़ापा है पिताजी का, सो अब दवा दारू भी ज्यादा लगा करेगी. अब पिताजी को आप अपने साथ ले जाओ तो ज्यादा अच्छा रहेगा” बड़का ऐसे फेंसलों में चुप रहना ही ठीक समझता था लेकिन अब इस  मौके पर तो उसे बोलना ही पड़ता सो बोला “भाई वो पिताजी से पर्दा करती है, तो बताओ ये वहाँ कैसे रहेंगे ? पिताजी ने बारी – बारी से छुटके और बेटी को देखा. वे दोनों कुछ नहीं बोल पाए. कुछ – कुछ उपाय सोचने, सुझाने के बाद थोड़ी – थोड़ी देर के लिए सारा माहौल चुप हो जाता. अनमने से मन, एकदूसरे को अनजान – सा महसूस करवा रहे थे. सबका मन जैसे यही कह रहा था अब क्या करें इस आफत का ? हर कोई यही सोच रहा था कि इस बूढ़े का बढ़िया – सा कोई इंतजाम हो जाए तो अच्छा हो लेकिन ये इंतजाम मुझे नहीं करना पड़े. सभी को ये समस्या किसी विश्वयुद्ध से कम नहीं लग रही थी. सो, सारे पासे पिताजी से पिंड छुड़ाने के लिए इधर – से – उधर फेंके जा रहे थे. पासे के इस खेल में हर पासा पिताजी के दिमाग में खट से लग कर कह रहा था “देखो अब ये करेंगे मेरा फेंसला. घर की बात बाहर नहीं चली जाए ये फिक्र उन्हें बेटों को कुछ भी कहने से आज तक रोकती रही थी क्योंकि बाहर मोहल्लेभर और रिश्तेदारी में वह सबसे यही कहते थे कि “मेरे बच्चे बहुत अच्छे हैं और बड़ा बेटा तो जैसे राम है.” वो पिता था, उसने दुनिया देखी थी लेकिन वो दुनिया कभी उसके घर में भी आ जाएगी, ऐसा तो वो सोच भी नहीं सकता था. सो, पासेकारों के खेल को वह खूब गहरे से समझ रहा था. 

जब कोई फैसला हो ही नहीं पा रहा था तो वह चुपचाप उठ कर छत पर चला गया. उस रात बस वो तारे देखता रहा और आँसू बहते रहे— सोने की कोशिश करने लगा पर आँखें तो जैसे अगले दिनों को देखना चाह रही थीं. वह रातभर रह – रह कर यही बुदबुदाता रहा “शांति अच्छा हुआ, जो तुम पहले चली गईं—”

अगली सुबह दस बजे तक किसी ने पिताजी से बात नहीं की. बड़के की बेटी चाय ले कर आई. चाय पी कर फतेहसिंह ने थोड़ी ताकत महसूस की और फिर निकल गया बाहर. उसे खुद भी नहीं पता था कि वह कहाँ जाएगा. स्टेशन के बाहर सेठी की दुकान, रिक्शा किराए पर देने के लिए मशहूर थी. उसने एक रिक्शा लिया उसके नाक – कान ऐंठे और पैडिल मारा. रिक्शा चलने लगा पर चलाना तो अभी सीखना था. जिंदगीभर साईकिल चलाई. बुढ़ापे में रिक्शे से वास्ता पड़ेगा ऐसा तो कभी सोचा ही नहीं था. यूँ लम्बी – लम्बी आहें उसके सीने में बैठती जा रही थीं. किससे कहना था ? क्या कहना था ? और क्यों कहना था ? क्या सब कुछ कहने से ही होता है ? अपनी आवाज़ खुद सुनने से कुछ नहीं होता क्या ? खैर— 

अब हर रोज रात नौ बजे रिक्शे का किराया चुकता. तीन रोटी और साथ में मिली सब्जी खाई जाती और सोने की जगह खोजी जाती. कभी किसी मंदिर में तो कभी फ्लाईओवर की नीचे तो कभी फुटपाथ पर खुले आसमान के नीचे. वह देखता उसके जैसे कितने ही फतेहसिंह आधे – अधूरे से कम्बल ओढ़े वहाँ सो रहे होते. उन्हें देख कर उसका हौंसला थोड़ा बढ़ जाता. मैं ही नहीं हूँ फुटपाथ पर, बहुत सारे लोग हैं. फुटपाथ पर छोटे – छोटे समूहों में कुछ – कुछ बेघर, भिखारी आपस में बातें करते, हँसते पर सोते समय उनमें से किसी का दिल रोता, तो किसी की आँखें. 

फतेहसिंह आज के दिन को याद करते हुए रात को फूट – फूट कर रोया कि आज कैसे ट्रेफिक पुलिसवाले ने उसके रिक्शे के पहिए की हवा ज़ेब्रा क्रोसिंग पार कर जाने पर निकाल दी और उसे पुलिसवाले को हाथ जोड़ कर यही कहना पड़ा “साहब गलती हो गई” कैसे कहता कि अभी उसे रिक्शा चलाना ठीक से नहीं आता. उस समय सवारी भी उसे घूरते हुए बिना पैसे दिए उतर कर चली गई.

कार्तिक का महीना आ गया. सुनते हैं, इस साल ठण्ड बहुत पड़ेगी. आज चाय की दुकान पर लोग कुछ ऐसे ही कह रहे थे. सब फुटपाथी एकदूसरे की औकात को तोलते और शायद ये भी सोचते कि उनका बेटा नहीं तो बेटी, बेटी नहीं तो भतीजा, भतीजा नहीं तो भतीजी कोई न कोई, कभी न कभी, तो उन्हें लेने आएगा और मीठी झिड़की देगा अरे ! यहाँ क्यों सो रहे हो ? चलो, घर चलो ! और वो बच्चों जैसी गलती महसूस करते हुए उनके साथ – साथ चल देंगे. पर अनुभव कहते थे कि भीड़भाड वाले शहरों में भाग्य की चाबी एक बार खो जाती है, तो बड़ी मुश्किल से मिलती है.

शहर की सड़कों पर गाड़ियों की आवाजाही से फुटपाथ जल्दी ही जाग जाते. यूँ भी फुटपाथ पर थक कर चूर हुए आदमी को ही नींद आती है. ये रिक्शा नहीं होता तो चार – छह घंटे नींद भी नहीं आती. सुबह – सुबह फुटपाथ से उठकर सब फुटपाथी चाय की थड़ी पर जम जाते. कुछ चाय पीते, कुछ बिना चाय पीए ही जमघट का हिस्सा बनते. गर्मागर्म मौखिक समाचार चलते. वहाँ खड़ी आँखें कुछ भौंचक्की, कुछ कयासी – सी बहुत सारे जवाब बिना प्रश्न के ही देती रहतीं. “अरे ! इस बार तो सरकार कह रही है कि वो सर्दी में चालीस रेनबसेरे चलाएगी. चलो, सोने का इंतजाम तो हुआ.” 

फतेहसिंह हर दिन रिक्शे का किराया दे कर, सुबह – शाम की रोटी, दो चाय पी कर बीस  – पच्चीस रूपये रोज़ बचा लेता और खुद से कहता ठीक है. चलो पेंशन तो बची हुई है, छुटके के परिवार के लिए. 

जब भी 2 – 3 तारीख को फतेहसिंह घर आता छुटके के बच्चे भी समझ जाते कि बाबा पेंशन देने आए हैं. वह घंटे – दो – घंटे वहाँ रुकता फिर निकल जाता. ज्यादा समय वहाँ रुकना उस दिन की कमाई खोटी करना था. आधी सर्दी के बाद सेठी की दुकान से पाँच सौ मीटर की दूरी पर बेघरों के लिए रेनबसेरे का तम्बू तन गया. रात में फतेहसिंह बहुत खुश हो कर बुदबुदाया “शांति, आज की रात तारे नहीं देख पाऊँगा, खूब सोऊँगा, सच ! पैर बहुत दुखते हैं रिक्शा खींचते – खींचते—

उसने रेनबसेरे के रजिस्टर में अपना नाम लिखवाया, पाँच रूपये जमा करवाए और सबसे किनारे पीछे जा कर चद्दर फर्श पर डाल दी. उसे चद्दर पर पड़ कर कब नींद आ गई पता नहीं. सुबह उठा, अरे ! कल रात सिर के नीचे रखे थैले में से तेईस रूपये कहाँ गए ? एकदम खूब सारे ख्याल दिमाग में दौड़ने लगे. कल ही दवा दारू की ज़रुरत पड़ जाए तो क्या करूँगा ? विश्वास नहीं हुआ, उठकर थैला झटक कर फर्श पर औंधाया, चद्दर फटकारी पर पैसे होते तो मिलते. वह बुदबुदाया “कल पाँच रूपये जमा करवाते समय कहीं गिर तो नहीं गए” ? आस – पास जगे सपाट चेहरे यूँ सुन्न – से थे जैसे वे जानते ही नहीं हों कि पैसों का खोना क्या होता है ? कोई बात नहीं, हम्म ! तो आज की सुबह बिना चाय के ही रहना पड़ेगा. 

उसने अगली रात रिक्शा जमा किया तीन रोटी और साथ में मिली सब्जी खाई और फिर चल दिया, रेनबसेरे की तरफ. अगली सुबह फिर पच्चीस रूपये गायब. ये क्या ? कहीं ऐसा तो नहीं कि ये रेनबसेरे वाले— कोई भिखारी—कोई चोर—अगली सुबह फिर बिना चाय के रिक्शा खींचना पड़ा. लगता है यहाँ कोई पैसे निकाल लेता है— अब नहीं सोऊँगा यहाँ. पर, यहाँ नहीं सोऊँगा तो सोऊँगा कहाँ ? मुझे तो अब दूर का दिखना भी कम होता जा रहा है लेकिन चश्मा भी तो चार – पाँच सौ बिना नहीं बनता न ! रोज की कमाई से पच्चीस – पच्चीस रूपये तो बहुत दिन में जुड़ेंगे. चलो देखते है क्या होता है ? 

भगवान की दी आसमानी छत के नीचे फुटपाथ पर सोना ही अच्छा है तारों को देखते हुए, तारों से बात करते हुए— उसने चद्दर बिछाई, थैले को सिर के नीचे लगाया और लेट गया कम्बल ओढ़कर. वह कुछ पिछले दिनों को याद करते हुए बुदबुदाया शांति, अपन छत पर सोते हुए तारे देखते थे, मैं आज भी तारे देख रहा हूँ. बस, अब जगह बदल गई है और एक बात और कि तब सारे तारे चमकीले दिखते थे, अब धुँधले दिखते हैं. बहुत धुँधले— 

बहुत अच्छा हुआ जो तुम पहले तारा बन गईं पर, ये और भी अच्छा होता कि मैं भी तुम्हारे साथ तारा बन जाता.

– अनुपमा तिवाड़ी, जयपुर

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