तुम ज़ुल्म करना अब तो श्रीमान छोड़ दो

तुम ज़ुल्म करना अब तो श्रीमान छोड़ दो

कुछ पल तो ज़िन्दगी में आसान छोड़ दो,
तुम ज़ुल्म करना अब तो श्रीमान छोड़ दो।

तुम ज़ुल्म करना अब तो श्रीमान छोड़ दो

ये गिला नहीं कि मुझको लूटा है उम्र भर,
मगर इंसान हूं इतनी तो पहचान छोड़ दो।

इंसानियत की आजकल घुट रही हैं सांसें,
दिलों को बांटने वालो हिन्दुस्तान छोड़ दो।

कड़वा कर दिया, सियासत की चासनी ने,
अब धर्मों को लोगों के दरमियान छोड़ दो।

दुआ है कि ज़ख्म भी भर जाएंगे एक दिन,
जो पहले हो गए हैं उल्टे फ़रमान छोड़ दो।

तुम रुतबा बढ़ा रहे हो, विदेशी लिबास से,
अपने मुल्क का भी कुछ सम्मान छोड़ दो।

लोगों की मुश्किलें हों, संसद की बहस में,
अब दूर जाकर कहीं राम रहमान छोड़ दो।

आज शबाब पर है उसके पाप का तूफ़ान,
उड़ ना जाओ कहीं, अपनी छान छोड़ दो।

रब के बग़ैर पत्ता भी हिलता नहीं जहां में,
तुम जनता पर जताना अहसान छोड़ दो।

अपने तो हो रहे हैं सारे आस्तीन के सांप,
मेरे शहर में कुछ लोग तो अंजान छोड़ दो।

जो पैदा हुआ है सच में वो ख़त्म है ज़रूर,
बहुत हो गया, अहसासे सुल्तान छोड़ दो।

दुनिया समझ गई तुम्हारी तमाम फितरतें,
अब ज़िन्दगी जीने की झूठी शान छोड़ दो।

ये “ज़फ़र” का मशविरा है ऐ अमीरे शहर,
आज ग़ुरूरे क़ैद से अपना ईमान छोड़ दो।



-ज़फ़रुद्दीन “ज़फ़र”

एफ-413,

कड़कड़डूमा कोर्ट,

दिल्ली-32,zzafar08@gmail.com

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