परिवार बालक की प्रथम पाठशाला है
परिवार बालक की प्रथम पाठशाला है बालक के विकास में परिवार की भूमिका मूल्यों के विकास में परिवार की भूमिका परिवार सामाजिक जीवन की प्रथम पाठशाला है किसने कहा – इस सम्पूर्ण विश्व मे जितनी भी सजीव वस्तुएं हैं , उन सबका कभी न कभी जन्म हुआ होगा । मनुष्य भगवान के घर से सभी कार्यों मे पारंगत होकर नहीं आता । बल्कि वह एक ऐसे अबोध बालक के रूप मे जन्म लेता है ,जो दुनिया की जद्दोजहद से दूर अपने भोलेपन के विशाल सागर मे डूबा रहता है । उसे दुनिया से कोई मतलब नहीं होता ,परंतु दुनिया को उससे मतलब होता है । एक नन्हा सा बालक हमारे इस समाज की कुरीतियों से परे होता है । परंतु जैसे जैसे
बड़ा होता जाता है । उसे उसके माता – पिता समाज के अनुरूप ढालने के लिए शिक्षा देते हैं ।
मातृत्व का विकास
एक परिवार मे जब किसी शिशु का जन्म होता है , तो हर्षोल्लास का वातावरण बन जाता है । यह अपार हर्ष अनेक कारणों से होता है । जैसे कि लोगों को पता लगता है कि उनके बीच एक नया साथी आया है ,उनके परिवार मे एक नया सदस्य आया है । विवाह उपरांत एक स्त्री का स्वप्न या दूसरे शब्दों मे उसकी कामना केवल माँ बनने कि होती है और माँ बनने के साथ – साथ वह एक सम्पूर्ण नारी बन जाती है । अपने बच्चे को देखकर उसकी ममता बढ़ – चढ़ कर सामने आती है । उसमें मातृत्व का एक अनोखा संचार हो जाता है । एक निर्दयी से निर्दयी औरत भी माँ बनने के बाद एक दयालु और भावुक स्त्री के रूप मे परिवर्तित हो जाती है ।
नवीन आदर्शों का समावेश
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परिवार बालक की प्रथम पाठशाला है |
माँ बनने के बाद वह अपना सारा ध्यान व समय अपने अबोध शिशु पर लगा देती है । उसकी हर संकट से रक्षा करती है और उस दिन का बेसब्री से इंतज़ार करती है । जिस दिन वह नन्हा प्राणी उसे माँ कहें । धीरे – धीरे यह दिन भी आ जाता है कि बच्चा यह सम्बोधन करता है । अब उसके परिवारीजन उसे आगे बोलना सिखाते हैं । यही से उसका शैक्षिक जीवन आरंभ होता है । उसे अपने सभी रिश्तेदारों का सम्बोधन कराया जाता है । ढाई – तीन साल का होते – होते वह अबोध बालक सबको पहचानने लगता है और उसकी किलकारियों से घर – आँगन झूम उठता है । धीरे – धीरे बच्चा शरारती होने लगता है । शुरू मे तो छोटी – मोटी शरारतें सबको अच्छी लगती है ,लेकिन जब उसकी शरारतें बढ़ती जाती है ,तब उसके माता – पिता उसके गुरु बनकर उसे समझाने लगते हैं । उसमें नवीन आदर्शों का समावेश कराते हैं और समाज मे उठना बैठना सिखाते हैं , उसे अच्छे और बुरे का अंतर समझाया जाता है । उसे गलत काम करने पर रोका जाता है , परंतु सही काम करने को प्रोत्साहित किया जाता है । अगर बच्चा यह सब बातें ग्रहण कर लेता है तो हम कहते हैं कि माता – पिता ने अपने बच्चों की मजबूत नीव डाली है ।
बच्चे तो गीली मिट्टी की तरह होते हैं और उनके माता – पिता कुम्हार । जैसे कुम्हार मिट्टी को ढालेगा वैसे ही बर्तन बनेगा । अगर कुम्हार बर्तन को ठीक से नहीं बनाएगा तो बर्तन खराब हो जाएगा । ठीक इसी प्रकार से अनेक माता – पिता अपने बच्चों का सही तरीके से पालन – पोषण नहीं करते हैं ,उनका ध्यान नहीं रखते जिससे वह बिगड़ जाता है । बहुत से परिवारों मे यह भी पाया जाता है कि बच्चे को अपने माता – पिता द्वारा डांटा जाना दादा दादी को अच्छा नहीं लगता है और वह अपने लाड़ प्यार से उसे बिगाड़ देते हैं । यद्यपि प्यार और
स्नेह के जल से बालक रूपी पौधे को सींचना चाहिए तथा हर चीज़ की अति बुरी होती है ।
चार वर्ष की आयु का होते होते बालक को हिन्दी व अँग्रेजी के वर्ण सिखाये जाते हैं । उसको गिनतियाँ भी सिखायी जाती है , परंतु यह सब तो माता – पिता तभी सीखा सकते हैं ,जब वह स्वयं शिक्षित हों । बच्चों मे अच्छे संस्कार डालने के लिए परिवारिजनों का स्वयं सांसारिक होना अनिवार्य है ,परंतु चूंकि हमारे देश मे अत्यधिक गरीबी और निरक्षरता है । इसीलिए चाहते हुए भी वह अपने बच्चों को कुछ अच्छा नहीं सिखा पाते हैं क्योंकि उनका पूरा समय अपनी आजीविका कमाने निकल जाता है । वह हमारे देश के भावी कर्णधारों का गुरु बनने के सौभाग्य से वंचित रह जाते हैं और न ही बालक की प्रथम पाठशाला उसका परिवार बन पाता है ।
गुणों का समावेश
निरक्षर लोग बच्चों को पाठशाला भेजने का सपना तो देखते हैं ,परंतु यह नहीं समझ पाते हैं कि पाठशाला भेजने से पहले भी बालक को कुछ पढ़ाया जाता है , उसे कुछ सिखाया जाता है । बच्चों को सिखाने की सम्पूर्ण ज़िम्मेदारी गुरुजनों की नहीं होती है ।वह तो सिर्फ किताबी ज्ञान देते हैं , परंतु अच्छे संस्कारों का श्रेष्ठ ज्ञान देने वाले उसके माता – पिता ही होते हैं ,उसके परिवारीजन ही होते हैं ,जो पाठशाला जाने से पहले ही उसमें अधिकांश गुणों का समावेश कर देते हैं ,इसीलिए हम कह सकते हैं कि परिवार ही बालक की प्रथम पाठशाला होती है ।