पांच रुपये की चाय

चाय

पानी के बाद पृथ्वी में सबसे लोकप्रिय पेय शायद चाय ही है । खास कर ठंड में चाय की एक चुस्की लेना स्वर्ग जैसा अनुभव देता है । सुबह की एक कप चाय न मिलने पर कई लोग बिस्तर से उठते ही नहीं । इससे बेड-टी भी कहा जाता है ।फिर रात को खाने के बाद कईं लोग काली चाय लेना पसंद करते हैं । इसके पीछे  उनका यही तर्क होता कि इससे खाना हजम करने में मदद मिलती है । 
चाय
चाय
घर कोई मेहमान आए तो हम उसे चाय पिलाते हैं । आजकल गली -गली चाय पर चर्चा मशहूर कॉफी बड़े लोगों की बड़ी बात और चाय हम जैसे लोगों की सौगात  ! इसीलिए तो चाय पर चर्चा और काफी विथ करण ।
भारत के उत्तरी पूर्वांचल में लोग सदियों से चाय पीते आ  रहे थे लिकेन भारत में इसे लोकप्रिय बनाने में अंग्रेजों की बड़ी भूमिका  रही है । मेरा मानना है कि भारत में अंग्रेजों ने जो कुछ भी थोड़े भले काम किए हैं इसमें से चाय का प्रचलन भी है । तब भारत के कईं लोग खासकर उत्तर और पूर्व भारत के लोग चाय पीना पसंद नहीं करते थे । उन्हें मुफ्य चाय पिलाई गई । विज्ञापन के माध्यम से चाय पीने के फायदे गिनाए गए । उसके बाद भारत के लोगों ने इतनी चाय पी कि चीन को भी पीछे छोड़ दिया । 
हमारे देश में चाय पीने के पचास तरीके हैं । उत्तर भारत में चाय में दूध की रबड़ मिलाकर पीते हैं । उसपर इलाइची, अदरक, दालचीनी आदि मसाले डाल कर चाय की चुस्की ली जाती है । इसको लेकर पंजाब में एक गुगली भी  है-
सांता ने चायबाले से  कहा- अगर तू चाय बनाने के लिए इतना मेहनत करेगा, इतने मसाले डालेगा तो चाय क्यों चिकन बटर मसाला ही बना ले?
लेकिन असम या बंगाल में अलग तरह की चाय पी जाती है .वह मसाले वाली चाय नहीं पीते । उन्हें काली चाय ज्यादा पसंद है । उत्तर बंगाल के पहाड़ी इलाके खुशबूदार चाय के लिए महशूर हैं वहीं दार्जिलिंग भी चाय के उत्पादन के लिए लोकप्रिय है । असम भी चाय के लिए काफी प्रसिद्ध है । हिमाचल प्रदेश के पालमपुर में चाय की खेती होती है । केरल, कर्नाटक और तमिलनाडु में भी । 15दिसंबर को अंतर्राष्ट्रीय चाय दिवस मनाया जाता है । सोशल मीडिया में मुझे चाय संबंधि कुछ पंक्तियां मिलीॆ । लेखक का नाम नहीं जानता । लेकिन आपके सामने परोस रहा हूं …
बस तेरी यादें ही हैं मेरे पास
वरना अकेले बैठ कर ‘चाय’ की चुस्की कौन लेता है…

मैंने देखा ही नहीं कोई मौसम
मैंने चाहा है तुझे ‘चाय’ की तरह…

दर्द क्या होता है उससे पूछो
जिसकी ‘चाय’ ठंडी हो जाए…

मैं पिसती रही इलायची, अदरक, दालचीनी 
पर महक ‘चाय’ से तेरी यादों की आई…

जरूरी नहीं कह देना हर बात हमेशा
कभी-कभी अच्छी लगती है बिन ‘चाय’
खाली प्याली भी….

वो पांच रूपये की ‘चाय’
हाथों को कभी-कभी ऐसी  गर्मी दे जाती है 
कि मैंने सूरज को भी शर्माते देखा है…

हलके में मत ले सांवले रंग को
मैंने यहां दूध से भी ज्यादा
‘चाय’ के दीवाने देखें हैं…
-मृणाल चटर्जी
अनुवाद- इतिश्री सिंह राठौर

मृणाल चटर्जी ओडिशा के जानेमाने लेखक और प्रसिद्ध व्यंग्यकार हैं । मृणाल ने अपने स्तम्भ ‘जगते थिबा जेते दिन’ ( संसार में रहने तक) से ओड़िया व्यंग्य लेखन क्षेत्र को एक मोड़ दिया । हाल ही में इनके स्तंभों का संकलन ‘पथे प्रांतरे’ का प्रकाशन हुआ है .

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