बस एक बार और

बस एक बार और

ऐ निराश रही, बस एक बार और,

अर्चना त्यागी
अर्चना त्यागी

मुड़ राह की ओर।
चलते चलते मंजिल की ओर,
कितनी मंजिल गुज़र गई।
बस गई बस्ती कई,
एक हस्ती गुज़र गई।
खोयी खोई, थकी, टूटी सी,
ज़िन्दगी गुजर गई।
काली काली अाई रातें,
सर्वत्र फैला अंधियारा।
पर, मंजिल न मिली।
ऐ थके पंथी, बस एक रात और,
संभव हो जाए भोर।
बस एक बार और, मुड़ राह की ओर।





– अर्चना त्यागी 
जोधपुर

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