शब्दों का आईना

शब्दों का आईना

तारीखों से पुराने हो जाते है,
दिन,महीने,साल
लेकिन कुछ घाव नये ही रहते हैं।

जब भी उस गली से,
कुछ सोचता हुआ गुजरता हूं।
न जाने कितने गमों की सौगात लिए आता हूं।

शब्दों का आईना

खुशकिस्मत से मिला था वो,
दरख़्त की छांव।
लेकिन बद्किस्मत से मेरे,
जीवन का धूप गुजर चुका है।

बड़ी मुश्किल से चलाता हूं,
अपने जिन्दगी का सौदा।
फटे-पुराने नोट की तरह,
मरोड़ कर चला ही लेता हूं।

नाखूनों की तरह काट देता हूं,
मैं अपनी औकात।
शायद दोनों का बढ़ना,
अच्छा नहीं होता।

जब भी देखता हूं,
दीवार की घड़ी
आंखों में चुभ जाती है,
उसकी सुईयां
जिन्दगी का एक कतरा बीताकर।

पगडंडियों से नहीं गुजरता अब,
ठहरा हुआ शाम,
शेष बचा कुछ ले जाने के लिए।

                 



– राहुलदेव गौतम

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