शोर

शोर


शोर से घबरा जाने वाला  
इस बार उससे प्रेम कर बैठा मैं 
बहरा कर देने को सक्षम आवाज़ों में 
एक उम्मीद उभरी, एक सच्चाई दिखी 
एक विकल्प सुझा, और यकीन कर बैठा मैं  
शोर को हमदर्द आवाज़ समझ कर 
शोर
एक उम्मीद का आगाज़ कर बैठा मैं
उन्हें सराहा और वक़्त दिया 
वक़्त ने अपना काम किया 
अपनी रफ़्तार से आगे खिसकने लगा 
उम्मीद पर टिका इंसान 
एक बार फिर सिसकने लगा
उम्मीद के साये में लुप्त हो चुकी मायूसी 
फिर से उभर के सामने आना चाहती थी
छलियों ने छल से छला है 
यह बतलाना चाहती थी
झूठ और फरेब से बने भय के विकराल साये 
जो फैलना चाहते थे महामारी की तरह 
उनमे अपना वज़ूद फिर बनाना चाहती थी
और फिर एक आवाज़ उठी 
जो शायद हमदर्द की थी 
कहीं यह भी वैसा तो नहीं ?
आवाज़ जब उभरी तो दबी सी थी 
और आवाज़ें मिली तो शोर बन गया 
यह कैसा शोर है?
कहीं यह भी वैसा तो नहीं ?
फिर वैसा ही शोर उठा है 
फिर वैसे ही वादे हैं 
फिर वही उम्मीद, वही सपने 
फिर वही लोग सीधे सादे हैं 
अब टूट चूका हूँ मैं 
या शायद जाग गया हूँ मैं
उम्मीद और सच्चाई की तलाश में
खुद इस शोर का हिस्सा बन बैठा मैं
– अजीत सिंह

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