संत साहित्य की भूमिका

संत साहित्य की भूमिका

ऑनलाइन राष्ट्रीय संगोष्ठी  , ३ मई, २०२० । विषय:  ‘संत साहित्य की भूमिका’)समर्थ रामदास स्वामी के ‘मनाचे श्लोक’ का वर्तमान परिवेश के परिप्रेक्ष्य में अवलोकन – समर्थ रामदास स्वामी का जन्म २४ मार्च, १६०८ ई. में महाराष्ट्र के जालना जिले के जांब प्रांत में हुआ। समस्त महाराष्ट्र के लिए वे समर्थ रामदास स्वामी के नाम से प्रसिद्ध हुए किन्तु उनका मूल नाम नारायण सूर्याजी ठोसर हैं। समर्थ रामदास स्वामी श्री राम के भक्त एवं हनुमान के उपासक थे, कारणवश उन्होंने रामदास नाम स्वीकार किया। महाराष्ट्र की जनता को सचेत करने हेतु उन्होंने धर्म के माध्यम से राजनीति को जागृत किया। छत्रपति शिवाजी महाराज उन्हें अपना गुरू मानते थे। अपने साहित्य के माध्यम से रामदास स्वामी ने महाराष्ट्र में नव-चेतना निर्माण का अद्भुत कार्य किया। मानसिक बल के साथ साथ रामदास स्वामी शारिरीक बलोपासना के महत्त्व को भी उद्घाटित करते हैं। अपने श्लोकों के द्वारा उन्होंने समाज प्रबोधन किया, प्रजा के मन में स्वधर्म रक्षा के भावों को जागृत करने का प्रयास किया। उनके ग्रंथ ‘दासबोध’ में लोकोद्धार का किया गया प्रयत्न निम्नलिखित पदों द्वारा उद्धृत होता है,
” उत्तम गुण तितुके घ्यावे । घेऊन जनास शिकवावे।
उदंड समुदाय करावे । परी गुप्तरूपें ।।१८।।
अखंड कामाची लगबग। उपासनेस लावावें जग।
लोक समजोन मग । आज्ञा इच्छिती।।१९।।”
     
समर्थ रामदास स्वामी छत्रपति शिवाजी महाराज को राजनीति एवं धार्मिक उपदेश देते थे। इसप्रकार रामदास
संत साहित्य की भूमिका
संत साहित्य की भूमिका

स्वामी परमार्थ, स्वधर्म निष्ठा , राष्ट्रप्रेम के श्रेष्ठ  प्रतीक है। दासबोध, मनाचे श्लोक, करूणाष्टके, आनंदवनभुवनी, मारूती स्त्रोत्र समर्थ रामदास स्वामी के साहित्य माला के कुछ मोती हैं।वर्तमान स्थिति का अवलोकन करें तो चारों दिशा में संत्रास, भय, निराशा, कुंठा, अकेलेपन का भाव फैला हुआ है। परिणामस्वरूप आधुनिक मनुष्य को अपना जीवन निरर्थक प्रतीत होता है। आज के मनुष्य को कई सामाजिक, सांस्कृतिक , राजनीतिक समस्याओं से उलझना पड़ता है, तब कई बार उसके मन में विद्रोह की भावना उत्पन्न होती है।

    
प्रगति, परिवर्तन और आधुनिकता के नाम पर मानव ने प्रकृति के साथ बड़ा खिलवाड़ किया, पर्यावरण के महत्त्वपूर्ण अंगों को अपने स्वार्थ पूर्ति के लिए नष्ट किया। परिणामस्वरूप आये दिन प्राकृतिक कोप को मानव सह रहा है। मानव की महत्त्वाकांक्षाओं की भागदौड़ को आज वैश्विक महामारी के कारण थोड़ी -बहुत रोक लगी। व्यक्ति आज फिर एक बार मानवीय संबंधों की कोमलता, अपनी परंपरा, अपने नैतिक मूल्यों का अनुसरण करने लगा । अपने मन को ‘क्वारंटाईन’ कर उसकी शुद्धि का अवसर मनुष्य को प्राप्त हुआ। वास्तविक समर्थ रामदास स्वामी ने सैकड़ों वर्ष पूर्व मानव के चंचल मन को उपदेश किया है, आज की पृष्ठभूमि पर वह मन की शुद्धि ही कहलाएगी। आधुनिक मनुष्य से नैतिक मूल्यों का विघटन हुआ है तब ‘मनाचे श्लोक’ का चौथा श्लोक हमें विचार करने के लिए प्रेरक प्रतीत होता है –
“मना वासना दुष्ट कामा न ये रे।
मना सर्वथा पापबुद्धी नको रे।।
मना धर्मता नीति सोडूं नको हो।
मना अंतरीं सार वीचार राहो।। ४ ।।
समर्थ रामदास स्वामी मानव को वासना के परे रहने का बोध देते हैं। किसी व्यक्ति, समाज अथवा देश-काल के संदर्भ में बुरा चिंतन करना कदापि योग्य नहीं। इससे नकारात्मक विचार उत्पन्न हो कर उसी मनुष्य की नैतिक अधोगति होती है। वर्तमान परिवेश में मानवीय संबंधों में बढ़ता वैमनस्य , दूराचार, भ्रष्टाचार मानव की मनुष्यत्व  का पतन कर फिर उसे पशुत्व की ओर फेंक रहा है। वास्तविक विज्ञान , तंत्रज्ञान का सही उपयोग प्रकृति के संवर्धन में ही है, न कि प्राकृतिक संहार में। मनुष्य को जहाँ श्रीमान, सज्जन, सद् गृहस्थ, महाशय, महोदय कहकर संबोधित किया जाता है , तब उसका उत्तरदायित्व है कि वह उस भॉंति व्यवहार करे।भारतीय इतिहास में संत साहित्य की उज्ज्वल परंपरा है। महाराष्ट्र की पहचान ही संतों की भूमि ऐसी है। संत जानते थे कि भारत की एकात्मकता बनाये रखने का भक्तिभाव एक मात्र मार्ग हैं। 
      
आज विश्व में फैली महामारी के दाह की चपेट में  विकसित , विकसनशील, अविकसित देश जल रहें है। पृथ्वी का सबसे उन्नत प्राणी एक बिंदूमात्र वाइरस को नष्ट करने में असफल हो रहा है। तब यहॉं किसी धर्म, समाज, देश से बढ़कर मानव संस्कृति का संवर्धन करने की आवश्यकता विश्व के सम्मुख खड़ी है। भौतिक सुखों के पीछे अविरत भागने वाला मानव आज परिस्थितिवश घर की चार दीवारों में क़ैद हुआ, उसकी समस्त उच्छृंकुलता को लगाम लगा। ऐसे संत्रस्त हुए मनुष्य को समर्थ रामदास प्रश्न उपस्थित करते हैं- 
“जनीं सर्व सूखी असा कोण आहे।
विचारें मना तूंचि शोधूनि पाहें।।
मना त्वांचि रे पूर्वसंचीत केलें।
तयासारिखें भोगणें प्राप्त झालें ।।११।।
    
आधुनिक काल में मानव ने उत्क्रांति की, अशक्यप्राय संशोधन किया, यंत्र-तंत्र का सृजन किया और धीरे-धीरे स्वयं यंत्रवत बना। आधुनिकीकरण की परिभाषा मनुष्य के लिए केवल औद्योगिकीकरण बनकर रह गयी। औद्योगिकीकरण से जहाँ भौतिक सभ्यता का जन्म हुआ , वहीं अनेक जटिल समस्या मुँह फैलाकर खड़ी भी हुई। समकालीन मनुष्य भावहीन बनता गया और उसका अस्तित्व अर्थ -केंद्री हुआ। इस मानसिकता से वर्तमान व्यक्ति के भीतर विक्षोभ, ईर्ष्या और विषाद पनपता गया । इतिहास में अस्त्र-शस्त्र के युद्ध हुए, बीसवीं शताब्दी में मानव ने आण्विक युद्ध का संहार देखा, आज एक प्रकार से जैविक युद्ध हमें पराजित करने के लिए नर संहार कर रहा है। आज की इस स्थिति में विवश हुए मानव को ‘मनाचे श्लोक’ का बीसवाँ श्लोक दिशा प्रदान करता है – 
“बहू हिंपुटी (दुःखी ) होइजे मायपोटीं ।
नको रे मना यातना तेचि मोठी ।।
निरोधें ( छटपटाहट ) पचे कोंडिलें गर्भवासीं ।
अधोमूख रे दुःख त्या बाळकासी।।२०।।”
     
समकालीन मनुष्य समाज से विद्रोह करता रहा है। व्यक्ति विरूद्ध समष्टि की लड़ाई तो युगों युगों से चल रही है। विकसित तंत्रज्ञान के कारण मानवीय जीवन पद्धति मे पिछले युगों की तुलना अमुलाग्र परिवर्तन हुआ है। औद्योगिकीकरण , नगरीकरण का संबंध मनुष्य की बौद्धिकता से है। जहाँ मानव व्यक्तिगत विकास करता है, वहॉं उसके साथ समाज के उन्नत भविष्य की भी कामना करता है। इस प्रक्रिया में उसकी अन्य सामाजिक समूह के साथ प्रतियोगिता आरंभ होती है। केवल अपने आप को श्रेष्ठ दर्शाने के लिए विश्व में दो महायुद्ध हुए, जिसकी विभिषिका  आज भी संसार भुगत रहा है।  समाज में पाप-पुण्य, अच्छे -बुरे की कसौटी तय करने के लिए अनेक धर्म ग्रंथों का सृजन हुआ, पर आधुनिक काल में मानव पा रहा है कि जिस प्रामाणिकता को वह प्रमाणित मान रहा था , वह तो आज के युग में कालबाह्य साबित हुए। समाज उसे हमेशा ही what to do और what not to  do की शिक्षा देता रहा, पर इसमें उसका व्यक्तिगत अस्तित्व मानों नष्ट हुआ। मनुष्य वास्तविक समाज प्रिय प्राणी है, किन्तु आधुनिक मनुष्य अपनी त्रासदी के कारण एकांत प्रिय बनता जा रहा है। समर्थ रामदास स्वामी के इस संदर्भ के विचार प्रेरणादायी है,
“जनीं सांगतां ऐकतां जन्म गेला ।
परी वादवेवाद तैसाचि ठेला ।।
उठे संशयो वाद हा दंभधारी ।
तुटे वाद संवाद तो हीतकारी ।।११२।।
   
समर्थ रामदास स्वामी अपने श्लोकों द्वारा विविध युगीन सापेक्षाओं पर मानों प्रश्न छेड़ रहें है। समकालीन स्थिति में मानवीय संबंधों का खंडन हो रहा है। इस परिस्थिति मे मूल्यहीन समाज एक रिक्तता की अनुभूति कर रहा है। मनुष्य का यह संक्रमण उसे भयाक्रांत बना रहा है, वह अपने आप्त जनों पर ही संदेह करने के लिए विवश कर रहा है। व्यक्ति की इस घुटन का कारण उसकी उक्ति और कृति में भेद है। अपने एक सौ पंद्रहवें श्लोक में रामदास स्वामी लिखते हैं,
“तूटे वाद संवाद तेथें करावा ।
विवेकें अहंभाव हा पालटावा ।।
जनीं बोलण्यासारिखे आचरावें ।
क्रियापालटें भक्तिपंथेचि जावें ।।११५।।”
     
समाज की निरंतर गतिमान प्रक्रिया मे आज का व्यक्ति टूटन, घुटन, विघटन, शोषण का शिकार हुआ है। मनुष्य को हमेशा ही अपनी बुद्धि एवं शक्ति का अभिमान रहा है। यहीं कारण है कि वह कुंठित एवं संत्रस्त जीवन जीने के लिए अभिशप्त रहा है। आज मनुष्य को यथार्थ का बोध करते हुए ‘मनाचे श्लोक’ में रामदास स्वामी एक आदर्श प्रस्तुत करते हैं,
“अविद्यागुणें मानवा ऊमजेना ।
भ्रमें चूकले हीत तें आकळेना ।।
परीक्षेविणें बांधिलें दृढ नाणें ।
परी सत्य मिथ्या असें कोण जाणे ।।१४३।।”
   
महानगरीय जीवन की चकाचौंध में व्यक्ति मानवीय प्रेम की ऊष्मा को ढुँढ रहा हैं, किन्तु चारों ओर वह केवल स्वार्थ और दंभ का अनुभव करता है। रामदास स्वामी मनुष्य की इस पाखण्डी वृत्ति के विरूद्ध अध्यात्म के माध्यम से मुक्ति का मार्ग दिखलाने की सफल चेष्टा करते हैं।
” मनाचीं शतें ऐकतां दोष जाती ।
मतीमंद ते साधनायोग्य होती ।।
चढे ज्ञान वैराग्य सामर्थ्य अंगीं ।
म्हणे दास विश्वासतां मुक्ति भोगी।।२०५।।”
  
अपने कुल २०५ श्लोकों के द्वारा समर्थ रामदास स्वामी परंपरागत मान्यताओं के स्थान पर नये आदर्शों की स्थापना करते है। आधुनिक व्यक्ति जिस जीवन को निरर्थकता मान बैठा है, उस जीवन की सार्थकता ‘मनाचे श्लोक’ का अध्ययन कर प्राप्त होती है। परंपरागत मूल्यों के प्रति वितृष्णा का भाव न रखकर अगर आज मानव नये मूल्यों की भी स्वीकार करेगा तो उसका जीवन अधिक सफल एवं सहज होगा। समाज में फैली अराजकता को देख जहाँ मन उद्विग्न होता है, वहॉं रामदास स्वामी के श्लोक मन को शांति प्रदान करते हैं। भारतीय समाज ने विश्व को गौतम बुद्ध , सम्राट अशोक, महात्मा गॉंधी , डॉ. अब्दुल कलाम जैसे आदर्श पुरूषों की देन दी है, आधुनिक भारतीय युवक उस पथ पर ही मार्गस्थ हों तो भारत एक बार फिर अपनी वैभवशाली परंपरा से जगमगा उठेगा। समर्थ रामदास स्वामी का श्लोक इसका ही प्रतिक है,
“देह त्यागितां कीर्ति मागें उरावी ।
मना सज्जना हेचि क्रीया धरावी ।।
मना चंदनाचेपरी त्वां झिजावें ।
परी अंतरीं सज्जना नीववावें ।।८।।”
संदर्भ : श्री मनाचे श्लोक
प्रकाशक : सुमंगल प्रेस प्रा. लि.
शोधछात्रा : सौ. गौतमी अनुप पाटील,
हिंदी विभाग,गुरू नानक खालसा महाविद्यालय , माटुंगा , मुंबई।
शोध निर्देशक : डॉ. मृगेन्द्र राय
ई मेल: save.gautami@gmail.com
भ्रमणध्वनि : 9920898979

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