सिसकते घाव
खुले घावों में
लहूरंजित छींटें,
जि़न्दगी की चादर पर
मलहम की उम्मीद में,
सिसकते – सिसकते
आखि़र सो गए ।।
नदी
ग़म ये नहीं कि नदी
पुष्पलता शर्मा |
सागर से मिलती है,
ग़म ये है कि नदी
सागर में गिरती है,
कैसा छलावा दिया,
भोली नदिया को,
ऐ सागर तूने,
मिलन की आस
दोनों में है,
पर
पतन
नदी ही सहती है ।।
बहस की सार्थकता
बहस की सार्थकता
तभी है
जब हम,
चिपके न रहें
अपनी असहमतियों पर
और संशय न करें
अपनी सहमतियों पर ।।
यह रचना पुष्पलता शर्मा ‘पुष्पी’ जी द्वारा लिखी गयी है . आपकी आपकी विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में सम-सामयिक लेख ( संस्कारहीन विकास की दौड़ में हम कहॉं जा रहे हैं, दिल्ली फिर ढिल्ली, आसियान और भारत, युवाओं में मादक-दृव्यों का चलन, कारगिल की सीख आदि ) लघुकथा / कहानी ( अमूमन याने….?, जापान और कूरोयामा-आरी, होली का वनवास आदि ), अनेक कविताऍं आदि लेखन-कार्य एवं अनुवाद-कार्य प्रकाशित । सम्प्रति रेलवे बोर्ड में कार्यरत । ऑल इंडिया रेडियो में ‘पार्ट टाइम नैमित्तिक समाचार वाचेक / सम्पादक / अनुवादक पैनल में पैनलबद्ध । कविता-संग्रह ‘180 डिग्री का मोड़’ हिन्दी अकादमी दिल्ली के प्रकाशन-सहयोग से प्रकाशित हो चुकी है ।