उपन्यास -सेवासदन लेखक -प्रेमचंद |
दहेज का दंश तब भी था और आज भी है
में दहेज प्रथा को मार्मिक रूप से चित्रित किया गया है कि किस प्रकार दहेज
की रमक चुकान में सक्षम न हो पाने के कारण एक ईमानदारी पिता अपनी ईमानदारी
को बेच देता है। कहानी के कुछ अंश इस प्रकार..पश्चाताप के कड़वे फल कभी–न–कभी सभी को चखने पड़ते हैं, लेकिन और लोग बुराईयों पर पछताते हैं, दारोगा कृष्णचन्द्र अपनी भलाइयों पर पछता रहे थे। उन्हें थानेदारी करते हुए पच्चीस वर्ष हो गए, लेकिन उन्होंने अपनी नीयत को कभी बिगड़ने नहीं दिया था। उनकी पत्नी गंगाजली सती–साध्वी पुत्री थी। उसने सदैव अपने पति को कुमार्ग से बचाया था। पर इस समय वह चिंता में डूबी हुई थी। दारोगा के सिवा घर में तीन प्राणी और थे; स्त्री और दो लड़कियाँ। अपनी बेटियों के लिए वर की खोज में दौड़ने लगे, कई जगहों से टिप्पणियां मंगवाईं। वह शिक्षित परिवार चाहते थे। वह समझते थे कि ऐसे घरों में लेन–देन की चर्चा न होगी, पर उन्हें यह देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ कि वरों का मोल अनुसार है उनकी शिक्षा के। राशि वर्ण ठीक हो जाने पर जब लेन–देन की बातें होने लगतीं, तब कृष्णचन्द्र की आँखों के सामने अंधेरा छा जाता था। कोई चार हजार सुनाता। कोई पांच हजार और कोई इससे भी आगे बढ़ जाता। बेचारे निराश होकर लौट आते। इसमें संदेह नहीं कि शिक्षित सज्जनों को उनसे सहानुभूति थी; पर वह एक–न एक ऐसी पख निकाल देते थे कि कि दारोगाजी को निरुत्तर हो जाना पड़ता था। एक सज्जन ने कहा- महाशय, मैं स्वयं इस कुप्रथा का जानी दुश्मन हूँ, लेकिन क्या करूँ अभी पिछले साल लड़की का विवाह किया, दो हजार रुपये केवल दहेज में देने पड़े दो हजार और खाने पीने में खर्च करने पडे़, आप ही कहिए यह कमी पूरी हो कैसे? दूसरे महाशय इनसे अधिक नीतिकुशल थे। बोले–दारोगाजी, मैंने लड़के को पाला है, सहस्रों रुपये उसकी पढ़ाई में खर्च किए हैं। आपकी लड़की को इससे उतना ही लाभ होगा, जितना मेरे लड़के को। तो आप ही न्याय कीजिए कि यह सारा भार मैं अकेला कैसे उठा सकता हूँ?
गद्दी का महंत था। उसके यहाँ सारा कारोबार श्री बांकेबिहारीजी के नाम पर होता था। श्री बांकेबिहारीजी लेन–देन करता था। और बत्तीस रुपये प्रति सैकड़े से कम सूद न लेता था। वही मालगुजारी वसूल करते थे, रेहननामे–बैनामे लिखाता था। श्री बांकेबिहारीजी की रकम दबाने का किसी को साहस न होता था और न अपनी रकम के लिए कोई दूसरा आदमी उससे लड़ाई कर सकता था। महंत रामदास के यहाँ दस–बीस मोटे–ताजे साधु स्थायी रूप से रहते थे। वह अखाड़े में दंड पेलते, भैंस का ताजा दूध पीते संध्या को दूधिया भंग छानते और गांजे–चरस की चिलम तो कभी ठंडी न होने पाती थी। ऐसे बलवान जत्थे के विरुद्ध कौन सिर उठाता?
सुमन का चरित्र
कहानी की नायिका इसीलिए नहीं कि कहानी में उसक किरदार सबसे लंबा है लेकिन
वह इसीलिए नायिका है क्योंकि वह राह भटक कर पश्चाताप की जिंदगी अतिवाहित कर
रही हर नारी की वह प्रेरणा है। कहानी के अंत में सुमन सेवादसदन के लिए खुद को समर्पित कर देती है। यह संकेत है कि जिंदगी कांटों से भरे होने के बावजूद नई और खुशहाल जिंदगी की शुरुआत की जा सकती है।
इतिश्री सिंह |
है। सेवासदन में सुमन का चरित्र इतना सशक्त है कि किसी और किरदार की तरफ आपका ध्यान कम ही जाएगा। उपन्यास में लगभग सभी समाजिक विकृतियों जिनकी उपस्थिति आज भी समाज में है, को लेखक प्रेमचंद ने भलीभांति उजागर किया है। इस बात से इंकार नहीं किया जाता कि नारी के संघर्ष की गाथा उपन्यास को महाउपन्यास का दर्जा देती है।
यह समीक्षा इतिश्री सिंह राठौर जी द्वारा लिखी गयी है . वर्तमान में आप हिंदी दैनिक नवभारत के साथ जुड़ी हुई हैं. दैनिक हिंदी देशबंधु के लिए कईं लेख लिखे , इसके अलावा इतिश्री जी ने 50 भारतीय प्रख्यात व्यंग्य चित्रकर के तहत 50 कार्टूनिस्टों जीवनी पर लिखे लेखों का अंग्रेजी से हिंदी अनुवाद किया. इतिश्री अमीर खुसरों तथा मंटों की रचनाओं के काफी प्रभावित हैं.