हर तरफ भारी तबाही

डॉ. राकेश जोशी

डॉ. राकेश जोशी की पाँच ग़ज़लें
1
हर तरफ भारी तबाही हो गई है
ये ज़मीं फिर आततायी हो गई है

कुछ नए क़ानून ऐसे बन गए हैं
आज भी उनकी कमाई हो गई है

जब से हम पर्वत से मिलकर आ गए हैं
ऊँट की तो जग-हँसाई हो गई है

फिर किसानों को कोई चिठ्ठी मिली है
फिर से ये धरती पराई हो गई है

मैं तुम्हारे पास आना चाहता हूँ
बीच में गहरी-सी खाई हो गई है

वो तो बच्चों को पढ़ाना चाहता है
पर बहुत महंगी पढ़ाई हो गई है

2
बंद हैं सब इस शहर की बत्तियां
पेड़ पर भी अब नहीं हैं पत्तियां

फूल हमको हर बगीचे में मिले
भूख में पर याद आईं सब्जियां

भूख के किस्से थे, तुम थे, और मैं
रास्ते में जब मिलीं कुछ बस्तियां

दम मेरा घुटने लगा था आज फिर
दूर से दिखती रहीं कुछ खिड़कियां

रात बचपन की कहानी फिर सुनी
याद आईं ढेर सारी छुट्टियां

एक दिन दुनिया को बदलेंगी यही
आँगनों में खेलतीं ये लड़कियां

3
हर तरफ गहरी नदी है, क्या करें
तैरना आता नहीं है, क्या करें

ज़िंदगी, हम फिर से जीना चाहते हैं
पर सड़क फिर खुद गई है, क्या करें

यूं तो सब कुछ है नए इस नगर में
पर तुम्हारा घर नहीं है, क्या करें

पेड़, मुझको याद आए तुम बहुत
आग जंगल में लगी है, क्या करें

लौटकर हम फिर शहर में आ गए
फिर भी इसमें कुछ कमी है, क्या करें

तुमसे मिल पाया नहीं, बेबस हूँ मैं
और बेबस ये सदी है, क्या करें

4
धरती के जिस भी कोने में तुम जाओ
वहाँ कबूतर से कह दो तुम भी आओ

अगर आग से दुनिया फिर से उगती है
जंगल-जंगल आग लगाकर आ जाओ

बादल से पूछो, तुम इतना क्यों बरसे
कह दो, लोगों की आँखों में मत आओ

गूंगे बनकर बैठे थे तुम बरसों से
अब सड़कों पर निकलो, दौड़ो, चिल्लाओ

महल में राजा के कल फिर से दावत है
भूखे-प्यासे लोगो, अब तुम सो जाओ

फसलो, तुमसे बस इतनी-सी विनती है
सेठों के गोदामों में तुम मत जाओ

5
इस धरती पर कुछ लोगों को मर जाने से डर लगता है
और कहीं पर कुछ लोगों को डर जाने से डर लगता है

कानों से सब कुछ सुनकर भी, ज़ुबां बंद रखते हैं वो
जिनको अब भी सच का झंडा फहराने से डर लगता है

जूते पहने घूम रहे हैं शहर-शहर और गली-गली
शायद इनको पाँव ज़रा-सा छिल जाने से डर लगता है

रोज-रोज जिनको सपनों में खूब उजाले दिखते हैं
उनको अक्सर अंधियारों से भर जाने से डर लगता है

वो जो अक्सर ख़ुद ही ख़ुद से आँख बचाते फिरते हैं
उनको अक्सर ख़ुद से ख़ुद के मिल जाने से डर लगता है

राजा को तो रहती ही है चिंता अपनी गद्दी की
महलों को भी कभी अचानक ढह जाने से डर लगता है

अंग्रेजी साहित्य में एम. ए., एम. फ़िल., डी. फ़िल. डॉ. राकेश जोशी मूलतः राजकीय  महाविद्यालय, डोईवाला, देहरादून, उत्तराखंड में अंग्रेजी साहित्य के असिस्टेंट प्रोफेसर हैं. इससे पूर्व वे कर्मचारी भविष्य निधि संगठन, श्रम मंत्रालय, भारत सरकार में हिंदी अनुवादक के तौर पर मुंबई में पदस्थापित रहे. मुंबई में ही उन्होंने थोड़े समय के लिए आकाशवाणी विविध भारती में आकस्मिक उद्घोषक के तौर पर भी कार्य किया. उनकी कविताएँ अनेक राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने के साथ-साथ आकाशवाणी से भी प्रसारित हुई हैं. छात्र जीवन के दौरान ही उन्होंने साहित्यिक पत्रिका “लौ” का संपादन भी किया. उनकी एक काव्य-पुस्तिका “कुछ बातें कविताओं में” तथा एक ग़ज़ल संग्रह ‘पत्थरों के शहर में’ “यथार्थ प्रकाशन”, नई दिल्ली से प्रकाशित हुआ है. साथ ही, उनकी हिंदी से अंग्रेजी में अनूदित एक पुस्तक “द क्राउड बेअर्स विटनेस” भी देहरादून से प्रकाशित हुई है.

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