अपनी अपनी भाषा

अपनी अपनी भाषा


अपनी अपनी भाषा मानव जीवन में भाषा का अद्भुत स्थान है और हो भी क्यों न ,आख़िर भाषा ही तो वो साधन हैं जिसके द्वारा हम आपस मे जुड पाते है व एक-दूसरे के साथ जुडाव महसूस करते है अपने भाव ,सवेंदनाए ,आवश्यकताएं आदि सम्प्रेषित कर पाते है । फिर चाहे वह सम्प्रेषण किसी भी रूप मे हो,लिखित, मौखिक अथवा सांकेतिक । भाषा ही एकमात्र साधन है जो मनुष्य को प्रकृति मे अहम स्थान दिलाती हैं।यूं तो प्रकृति मे रचे बसे अन्य सभी प्राणियों की भी अपनी भाषा होती है, किंतु उनकी भाषा मनुष्यों की भाषा की तुलना मे अधिक सरल होती है ।

भाषा की आवश्यकता

अपनी अपनी भाषा
मनुष्य होने के नाते हमें अपने जीवन के हरेक क्षण मे भाषा की आवश्यकता होती है न केवल दूसरों से सम्प्रेषण हेतु अपितु स्वंय के विचार व स्वंय को जानने समझने हेतु भी हमे भाषा की आवश्यकता होती है । भाषा के अभाव मे विचार भी शून्य हो जाते है । अब विडंबना यह  है कि हम दूसरो से सम्प्रेषण करना तो आवश्यक समझते है लेकिन स्वंय से नहीं ।जबकि यह तो अति आवश्यक है ,न जाने कितने लोग इस बात की प्रासंगिकता को समझने के लिये तैयार होंगे, किंतु यह भी सत्य है कि हम ही अपने जीवन के निर्माता हैं । ऐसी स्थिति मे यह आवश्यक है कि हम अपने विचारों से,दुविधाओं से, समाधानों से रूबरू रहे । ताकि किसी भी  परिवर्तन व परिस्थिति मे जीवन को सही दिशा-र्निदेश दे सके । फिर क्या फर्क पड़ता है कि वह भाषा कौनसी हैं , हिन्दी, इंग्लिश या जापानी । प्रत्येक भाषा का  मूलभूत ढांचा तो सामान  ही है । और फिर सभी भाषाओं की जननी भी तो संस्कृत ही है । इस प्रकार दुनिया की सारी भाषाएँ एक ही मां से जन्मी बहने ही हैं । हालांकि बदलते वक्त व तेजी से होते वैशवीकरण ने सभी भाषाओं को एक सामान्य पटल पर लाकर बैठा दिया है । सभी अपनी-अपनी आवश्यकता अनुसार भाषा चुन सकते है, बोल व सीख -सिखा सकते हैं तथा अन्य रूपों मे भी प्रयोग मे ला सकते हैं ।

भाषा के प्रति सम्मान व प्रेम

भाषा कल भी वही थी , भाषा  आज भी वही है । भाषा का स्थान भी ज्यों का त्यों ही है । यदि कुछ बदल रहा हैं तो वह हैं आवश्यकता ।अतं मे केवल यही कहना चाहूंगी कि विश्व की प्रत्येक भाषा सम्मानीय है,महत्वपूर्ण है । तथा हमारे भीतर प्रत्येक भाषा के प्रति सम्मान व प्रेम होना चाहिए ।
                                                
        – शुभी

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