इश्क की राह

इश्क की राह 


इश्क की राह पर हम कुछ कदम ही चले थे,
जख्म हरे थे और घाव बड़े  गहरे थे I

टूटा हुआ दिल लेकर मैं, अनजानी राह पर चल पड़ा था,
मुसाफ़िर की तलाश थी, पर पीछे अँधेरा खड़ा था I

इश्क की राह
इश्क की राह

बड़े सोख से सुनाता था, अपनी दिले-दास्तान काफिलों में
शायद इसलिए ही अब जाने से डरता हूँ, महफ़िलों में I

डरता हूँ मैं, कहीं मुहोब्बत फिर न हो जाए,
बड़ी सिद्दत से बनाए गए आशियाँ, फिर न ढह जाए I

बड़ा दुःख हुआ था, ये जानकर की मुझे तो बंजर मिला है,
हैरान हूँ मैं, की उसी बंजर में एक फूल खिला है I

उनकी क्या तारीफ करूँ मैं, जिनकी गुलाबी सैंडिल हैं,
दीपक की जरुरत नहीं मुझे, उनकी आँखे ही कैंडिल हैं I

खुदा कहूं, रब कहूं या फिर भगवान उसे,
यकीन करो मेरा, ईश्वर ने बड़ी सिद्दत से बनाया है उसे I

उसे देखने के बाद, बातें करने को दिल करता है,
लेकिन क्या करूं, मुझे अपनी औकात से डर लगता है I

दिल करता है, उनकी थोड़ी तारीफ  ओर करलूं,
लेकिन कल फिर मिलना है, जरा सा तो सो लूं I


– राजेन्द्र कुमार शास्त्री `गुरु`

                 

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