एक बार फिर बोली लगी – विचार मंथन

मनोज सिंह

विगत दिवस इंसानों की एक बार फिर नीलामी हुई। दुनिया के सामने, खुले में। यह पढ़कर थोड़ा अटपटा लगता है। मगर उतना नहीं जितना कुछ समय पूर्व लगा करता था। यह जमीनी हकीकत है। एक दशक पूर्व तक अगर इस तरह की बात की जाती तो हल्ला मच जाता। मीडिया भरपूर आलोचनात्मक लहजे में अपने संपादकीय और प्रमुख पृष्ठों को भर देता। इसी संदर्भ में देखें तो मनुष्य की दासता से मुक्ति और उसके संघर्ष का लंबा इतिहास रहा है। जहां आदमी तमाम उम्र के लिए बेच दिया जाता था और फिर उसकी आने वाली कई पीढ़ियां गुलामी की सजा भोगती थीं। औरतें तो आदमी के बाजार में हमेशा से बिकती रही हैं लेकिन इस पर समाज हमेशा अपनी तिरछी निगाह रखता था और अखबारों के लेख से लेकर समाज-सुधारक तक मुक्ति के लिए प्रयासरत थे। पृष्ठ तो इस बार भी भरे गए थे। सभी भाषाओं के राष्ट्रीय से लेकर स्थानीय समाचारपत्रों में यह प्रमुखता से प्रथम पृष्ठ पर छपी थी। यही नहीं मीडिया के प्राइम टाइम की यह सबसे बड़ी खबर रही। मगर खबर के अंदर छिपे मूल में जाएं तो उसमें आलोचनात्मकता या विरोध की दूर-दूर तक कोई भी चिंगारी छोड़ धुआं तक नहीं था। असहमति का इशारा भी नहीं था। उलटे कहीं न कहीं इसमें बिके हुओं की भूरि-भूरि प्रशंसा की बू आ रही थी। उनके गौरव-गान में खुशी का इजहार इतना तगड़ा था मानों सूरज पर कब्जा जमा लिया गया हो, आत्मसंतुष्टि इतनी थी कि शायद दुनिया से भुखमरी खत्म कर दी हो। खबर मिली कि दुनियाभर के क्रिकेटरों को क्रिकेट के तमाशे में नौटंकी करने की भूमिका अदा करने के लिए बड़े-बड़े धनवान सेठों द्वारा खरीद लिया गया है। कुछ खेल के नाम पर, कुछ खेल के माध्यम से मनोरंजन के नाम पर। इस संपूर्ण घटनाक्रम को अप्रत्यक्ष समर्थन देते हुए मीडिया द्वारा सही करार दिया गया प्रतीत होता था। कुछ आर्थिक स्वतंत्रता के नाम पर, कुछ समाज के विकास के नाम पर और कुछ ऐसे नाम पर की जो हमारी समझ से बाहर है। 
ज्यादा पुरानी बात नहीं है। मात्र दो-चार-पांच साल के अंदर ही समाज में कब और कैसे उपरोक्त प्रक्रिया को सामाजिक स्वीकृति प्राप्त हो गयी, पता ही नहीं चला। यह ऐसे ही नहीं हुआ होगा। ऐसे परिवर्तन अपने आप होते भी नहीं। मगर इसके लिए किसी पीढ़ी ने कोई क्रांति नहीं की। बस मीडिया ने एक महत्वपूर्ण खेल खेला। उसके द्वारा हमें बताया गया, हमें पढ़ाया गया, हमें दिखाया गया। बार-बार। और आधुनिक युग के तथाकथित बुद्धिमान मस्तिष्क ने इसे धीरे-धीरे स्वीकार कर लिया। बस, शायद यही कारण है कि बहुत मोटे-मोटे अक्षरों में प्रथम पृष्ठ के आधे से भी अधिक भाग में लुभावने फोटो के साथ बड़े-बड़े आकर्षक आंकड़ें और संबंधित मसालेदार खबरें निरंतर छापी जा रही है। कार्पोरेट और खेल जगत का बाजार में संयुक्त प्रदर्शन, जिसका लिखित एजेंडा तो खेल और मनोरंजन ही है। मगर अघोषित लक्ष्य कुछ और। इन खबरों को उसी तरह से छापा गया, उसी रूप में छापा गया, जैसा मीडिया से चाहा गया था। यह भी सुनिश्चित किया गया कि इसे पढ़ा-देखा जाए। वो भी इतना कि जो नहीं भी पढ़ना चाहते हैं उसकी निगाह भी इस पर जरूर पड़े। अर्थात इस प्रोजेक्ट में मीडिया ने सक्रिय भागीदारी निभाई और वो बाजार का नया हथियार बना।
पूछकर देख लीजिए, अधिकांश को इस पूरे प्रकरण में कोई बुराई नहीं लगेगी। आज के आधुनिक विकास प्रक्रिया के मॉडल से उत्पन्न हुआ मध्यमवर्ग इसके आगे जाकर, परे हटकर सोच नहीं सकता, क्योंकि उसे सोचने की अब मनाही है। उसे तो अब हर बात मीडिया समझाता है। क्या खाना-क्या पीना से लेकर कपड़े धोने के साबुन तक। चाय-कॉफी स्वास्थ्यवर्धक तक दिखाई जा सकती हैं तो काले चेहरे को गोरा बना दिया जाता है। यहां जितना और जिस तरह से बताया जाता है उससे बाहर सोचना आसान भी नहीं। और जो सोचेंगे उनकी संख्या या तो नगण्य होगी या फिर उन्हें जब प्रमुखता मिलेगी नहीं तो वे अपने आप ही समय के नीचे दबकर समाप्त हो जाएंगे। उच्चवर्ग का क्या कहें, वो तो इस खबर को छापने व छपवाने के लिए पूरी तरह से सक्रिय है। इसका वो प्रमुख लाभार्थी भी है। जहां तक रही निम्न वर्ग की बात, जब दिहाड़ी से दिनभर की रोटी का इंतजाम भी नहीं हो पाता तो उसके लिए यह सब खबर निरर्थक है। हां, जिन्हें पेटभर रोटी मिल गई तो फिर उन्हें छोड़ा नहीं जाएगा। समाचारपत्रों के प्रथम पृष्ठ और टीवी पर दिखाये जा रहे आकर्षक रंगीन चित्रों से वह इतना प्रेरित होगा कि उत्तेजित होकर इससे जुड़ने के लिए प्रयासरत हो जाएगा। पेट काटकर ही सही। उसे भ्रमित किया गया है और वो दो मिनट की मस्ती में डूब जाना चाहता है। और वह उस ओर बढ़ जाता है जहां इस खेल का तमाशा रचा जाएगा। बुद्धिजीवी कहेंगे कि उनका भी जीवन है और वह इसका हकदार है। और फिर इसी को संदर्भ बनाकर हमारे विकास की परिभाषा गढ़ी जाएंगी। अर्थात वह इस तमाशे में शामिल होने के लिए प्रयास करता है, दो पैसे अधिक कमाने की कोशिश करता है, चाहे फिर जो करना पड़े, अच्छा या बुरा, न मिले तो छीनना चाहता है। क्यूं? क्योंकि उसे पागलपन की हद तक प्रेरित किया जा चुका है।
इसके आगे शुरू होता है खेल के पीछे का खेल। बात यहीं नहीं रुक जाती। उपरोक्त बिके हुए चेहरों को दिखा-दिखाकर इतना महत्वपूर्ण और लोकप्रिय बना दिया जाता है कि वे सामाजिक नेतृत्व के रूप में स्वीकृत हो जाते हैं। धीरे से इनकी ब्रांड वेल्यू (कीमत) बढ़ जाती है। और फिर इन चेहरों के द्वारा बाजार में मिट्टी को सोने के दाम बेचने का एक और खेल खेला जाता है। बाजार तो सामान बेचने के लिए हर कुछ करने को तैयार है। उसके लिए इससे बेहतर और आसान तरीका और कोई हो नहीं सकता। अंत में एक बार फिर आम आदमी जिसमें उच्च, मध्यम और निम्न सभी वर्ग शामिल हैं अपनी-अपनी जेब की पहुंच के हिसाब से बिकने और खरीदने के लिए तैयार हो जाता है। पढ़े-लिखों से ज्यादा उम्मीद न की जाए, जिस युग में तेजी से कर्ज लेने-देने को जीवन के अर्थशास्त्र का मूलमंत्र मान लिया जाए और अश्लीलता को फैशन स्वीकार कर लिया है, उसे क्या कहेंगे? वो तो उपरोक्त खबरों को पढ़-पढ़कर आश्चर्यचकित और अचंभित है। तथा इसी तरह के बनने की प्रक्रिया में तन-मन-धन से सक्रिय।
इस पूरे चक्रव्यूह में मीडिया ने अपना रोल बखूबी निभाया है। वह तो आज समाज को नेतृत्व प्रदान करने के रूप में स्थापित हो चुका है। यह उसकी स्वतंत्रता और स्वायत्तता का मामला है और वो इस बात की दुहाई दे सकता है कि सभी खबरों को अपने दर्शक-पाठकों तक पहुंचाना उसका कर्तव्य और जवाबदारी है। लेकिन बात क्या यहीं खत्म हो जाती है? सवाल उठता है कि जब असमानता की दीवार समाज में निरंतर बढ़ती जा रही हो वहां सिर्फ उन्हीं खबरों को प्रकाशित करना जिसमें एक बड़ी रकम की लेनदेन हुई हो, कहां तक लोक हितकारी हो सकता है? यह घटनाक्रम भ्रष्टाचार में लिप्त होने का नया अध्याय नहीं लेकिन शायद उससे अधिक घातक है। मीडिया को किसी खबर को प्रमुखता देते समय यह तो जरूर सोचना होगा कि समाज को इससे क्या और कितना फायदा होगा? क्या खेल और मनोंरंजन ही जीवन का प्रमुख ध्येय बन चुका है? हजारों मुसीबतें व सैकड़ों आफत झेल रहे इस युग में कुछ और महत्वपूर्ण खबर न हो, क्या ऐसा हो सकता है? खेल पृष्ठ से निकलकर प्रथम पृष्ठ पर तकरीबन रोज आ रहे क्रिकेट के आंकड़ों में आज की पीढ़ी बाकी सब आंकड़े भूल चुकी है। अन्य तारीख महत्वहीन हो गई हैं। जो अपनी स्वतंत्रता की बड़े गर्व से दुहाई देता है वहीं इस तरह की खबरों को रोज छापकर अपनी बिकी हुई सोच का प्रमाण देता है। खबर तो खबर है, सिर्फ यही कहना ठीक नहीं, समाज में उसके प्रभाव और प्रतिक्रिया की परख कौन करेगा? स्वतंत्रता के साथ अधिकार तो आ जाते हैं लेकिन फिर कर्तव्य कौन निभाएगा? क्या इससे उन लोगों का पेट भर पायेगा जो एक वक्त की रोटी के लिए कई दिनों तक संघर्ष करते हैं? युवाओं के लिए क्या यही संदेश है कि इंजीनियरिंग, मेडिकल, कृषि या विज्ञान छोड़कर उन्हें सिर्फ क्रिकेट खेलना शुरू कर देना चाहिए? मीडिया को यह स्वीकार करना होगा कि उसकी रिपोर्टिंग इस बात को भी प्रदर्शित और प्रमाणित करती है कि पाठक/दर्शक ऐसी व्यवस्था से अपने आपको तुरंत जोड़े और लाभान्वित हो। उम्मीद की जाती है कि आप एमबीए की पढ़ाई करके क्रिकेट का मैनेजमेंट संभालें, गणित पढ़कर रनों व शतकों का हिसाब रखें! अजीब व्यवस्था का आलम है। और इस व्यवस्था को तोड़ना तो छोड़ खुद जोड़कर आगे बढ़ने के लिए सभी प्रयासरत हैं। सच माने तो इतने सुनियोजित तरीके से तो गुल्ली-डंडा भी इस देश का सर्वाधिक लोकप्रिय खेल बन जाता। और सबसे दूर शॉट मारने वाला नया आइकॉन। क्यूं इस खेल में हुनर नहीं है? यकीन मानिए, इतना जबरदस्त नेटवर्किंग व मैनेजमेंट का फंडा किसी भी क्षेत्र में लगा दिया जाए तो वह सफल होगा ही। सवाल इस बात का है कि पूरी की पूरी ऊर्जा समाज की मूल समस्याओं को दूर करने के लिए क्यों नहीं लगायी जाती? जबकि हमारा बहुत बड़ा पीड़ित वर्ग युगों से न्याय की अपेक्षा कर रहा है। मगर हम उस ओर से आंखें मूंदे सो रहे हैं। गजब विरोधाभास का युग है।
 
 

यह लेख मनोज सिंह द्वारा लिखा गया है.मनोजसिंह ,कवि ,कहानीकार ,उपन्यासकार एवं स्तंभकार के रूप में प्रसिद्ध है .आपकी'चंद्रिकोत्त्सव ,बंधन ,कशमकश और 'व्यक्तित्व का प्रभाव' आदि पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी है.

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