मैंने सागर को गंभीर और नदी,नालों को कोलाहल करते हुए देखा
मैंने सागर को गंभीर और नदी,नालों को
कोलाहल करते हुए देखा।
समाज के कुछ लोगों को आई.ए.एस.पी सी एस अधिकारी
बनकर मौलिकता को खोते हुए देखा ।
समाज और भाईचारे को भूलकर
अपने स्वार्थ के लिए तड़पते हुए देखा।
क्या इस तड़पन के लिये ही
देशभक्ति और जनसेवा का सपना देखा।
मित्र को मित्र से दूर जाते हुए
मित्रता खोते हुए देखा।
मैंने सागर को गम्भीर और नदी नालों को
कोलाहल करते हुए देखा।
मौलिकता का त्यागकर
निष्ठुरता का जामा पहनते हुए देखा।
इन्ही मे से कुछ को
देशभक्ति, जनसेवा और मौलिकता से पूर्ण भी देखा।
बुलंदियों को छूते,मानवता को खोते
मनुष्य को निष्ठुर होते हुए देखा।
मनुष्य होते हुए भी यह अन्तर क्यों?
किसी को निष्ठुर तो किसी को करुण देखा।
मित्र को मित्र से दूर
सांसारिकता की ओर जाते हुए देखा।
किसी को कृष्ण तो किसी को
कंस बनते हुए देखा।
व्यक्ति के व्यक्तित्व को
बदलते हुए देखा।
मैंने सागर को गम्भीर और नदी,नालों को
कोलाहल करते हुए देखा।
– अजय मिश्र ,
रीवा (म.प्र.), email-ajay.mishra837@gmail.com
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