ओबीसी साहित्य

ओबीसी साहित्य की प्रासंगिकता

विगत कुछ वर्षों से ओबीसी साहित्य पर निरंतर सेमिनार हो रहे हैं, कभी पुणे में , तो कभी नागपुर में | इसी क्रम में  उत्तर भारत की पहली अंतरराष्ट्रीय एक दिवसीय ओबीसी संगोष्ठी ३० अगस्त को दिल्ली विश्वविध्यालय के द्‍याल
साहित्य

सिंह कॉलेज में भी हुई जिसका विषय था- ओबीसी साहित्य की अवधारणा : संभावनाएँ और चुनौतियाँ. सौभाग्य से इस गोष्ठी में सरीक़ होने का मौका मिला. ओबीसी साहित्य नामक हिन्दी साहित्य की इस नयी विधा की क्या प्रासंगिकता  है ? इसपर  विचार करना महत्वपूर्ण है. इस नये साहित्यिक विमर्श को समाज से जोड़कर देखा जाना ज़रूरी है. ये नया विमर्श किस खास वैचारिकी को व्यक्त करता है , इसे खोजना आवश्यक है.

व्यक्ति की अपनी पहचान क्या है ? ये आधुनिक युग का महत्वपूर्ण प्रश्न है. उस पहचान  में भी विशिस्टता क्या है ? ये प्रश्न हमें उत्तर आधुनिकता से जोड़ देता है. जब इसी पहचान की राजनीति को साहित्य से जोड़ कर देखा जाता है, तब साहित्य में विभिन्न विमर्शों की जड़ें फूटती हैं. स्त्री, दलित, और आदिवासी विमर्श भी कुछ इसी तरह के विमर्श हैं. इसी क्रम में ओबीसी  विमर्श भी उठ खड़ा हुआ है . कल अगर ब्राह्मण विमर्श , ख़ास धार्मिक विमर्श, स्वतंत्र संघों का विमर्श भी साहित्य में पैर पसारने लगे तो भी कोई खास चौकने की बात न समझनी चाहिए!
                              दरअसल हिन्दी साहित्या के आधुनिक युग ने इस दौर में  जो गति पकड़ी है उसका वेग दिन दूना और रात चौगुना बढ़ रहा है. ये वेग मानव विकास के साथ- साथ चल रहा है. चलना भी चाहिए. जब मानव के विकास की गति तेज होगी तो साहित्य के वेग में तेज़ी आना तो स्वाभाविक है. लेकिन मेरी स्वाभाविकता अस्वाभाविकता में  तब बदलेगी जब साहित्य को राजनीति का हथियार बनाया जाएगा .
            साहित्य में किसी खास वाद का आना पहचान की विशिष्ठता का संकेत प्रायः है.दलित वाद की अपनी पहचान है अपनी समस्याएँ हैं. ठीक इसी प्रकार स्त्री और आदिवासी विमर्श की भी . अब प्रश्न यह उठता है की  ऑबीसी  साहित्या की क्या कोई अपनी पहचान है? समस्याएँ हैं? अगर ओबीसी साहित्य की अपनी कोई पहचान है तो क्या है ? समस्याएँ हैं तो क्या हैं?  क्या इन समस्याओं का कोई ठोस आधार है ? क्या आज से पहले इस पहचान को आधार बना कर रचना की गयी है? या इस  पहचान और समस्या को साहित्य में उपेक्षित नज़रों से देखा जाता रहा है? क्या ये समस्याएँ इतनी बड़ीं हैं कि जिनको आधार बनाकर एक खास वाद का शुभारंभ हो सके.  इन्हीं प्रश्नों को खोजने पर ओबीसी साहित्य की अवधारणा और प्रासंगिकता को समझा जा सकता है. 
      
         ऑबीसी साहित्या की पहचान को खोजने के लिए ऑबीसी वर्ग की चर्चा करना ज़रूरी हो जाता है. सीधे – सीधे तौर पर समझा जाए तो ऑबीसी एक ऐसा वर्ग है जो सामाजिक प्रतिष्ठा और शैक्षणिक विकास में किन्हीं कारणों से पीछे रह  गया है.  मंडल कमीसन ने भारत सरकार को 1980 में सौपी अपनी रिपोर्ट में भारत की कुल जनसंख्या का 52% ओबीसी वर्ग स्वीकार किया था. 
        अब बात करते हैं ऑबीसी साहित्य की . ऑबीसी साहित्य की पहचान  क्या होगी ? पहचान हमेसा अन्य से बनती है. जब तक अन्य नहीं होता तब तक पहचान बनाने की ज़रूरत नहीं पड़ती. ऑबीसी  साहित्य की पहचान को दलित और स्त्री साहित्य की पहचान के उदाहरण से समझना चाहिए.  “दलित” शूद्र जातियों का एक समूह है , जिसका बृहाम्मद व्यवस्था ने खूब शोषण किया है.  
                        ध्यान रहे कि भारत में संविधान आने से पहले समाज जातिगत आधार से बटा था . यह जातिगत ढाँचा पिरामीडिकल आकर का था. जिसका जितना सामाजिक अहौदा ऊँचा था, समाज में उसकी संख्या उतनी ही कम थी. मजेदार बात तो यह थी कि उच्च सामाजिक स्थिति वाले व्यक्ति का निम्न सामाजिक प्रतिष्ठा वाले व्यक्ति से रोटी – बेटी का कोई संबंध नहीँ था.  मतलब सीधा है कि निम्न सामाजिक जाति का अपने से उच्‍च सामाजिक जाति के प्रति अपार  कर्तव्य थे , परंतु उच्च सामाजिक जाति का निम्न सामाजिक जाति के लिए कोई दायित्व नहीं था. इनका ऊपर से नीचे का क्रम है – ब्राह्मण, क्षत्रिय, वेश्य, शूद्र. समाज में ब्राह्मण की संख्या सबसे कम है तो शूद्रोकी संख्या सबसे ज़्यादा. 
         समाज में इस ऊँच – नींच की राजनीति को ब्रहम सत्य है और जगत मिथ्या है, के मध्यम से चलाया जाता रहा. परंतु आधुनिक युग में विज्ञान के विकास के बाद लोगों का ब्रह्मा से जितना रिस्ता टूटा , उतना ही जगत से मोह बढ़ता गया. यह होता भी क्यू नहीं? ब्रह्मा का संबध धर्म से है और विज्ञान के विकास के साथ – साथ धर्म झूटा साबित होता जा रहा था. ऐसे हालत में भारत वासियों ने भी जातिव्यवस्था के खिलाफ मोर्चा खोला. जिससे सामाजिक ढाँचे में थोड़ी ढील आई. और दलितों को पढ़ने का मौका मिला.  परंतु दलितों की जिंदगी तब भी संघर्षो से भरी थी और अब  भी संघर्सो से भरी है. संविधान  बेसक आ गया है परंतु दलितों पर अत्याचार आज भी हो रहे हैं. आज भी क्षत्रिय और ब्रह्मण वर्ग उन्हें शिक्षा पाने से रोक रहे हैं और मंदिर जाने से भी रोक रहे है. 
                                   दलित साहित्य की पहचान भी इसी शोषण पर टिकी है | जब प्रतिरोध वाद- विवाद से नहीं हो पाता तब सभ्य व्यक्ति को कलम उठानी पड़ती है. दलितों पर कैसे – कैसे अत्याचार  ढाए जाते हें ये साफ – साफ दलित साहित्य में उभर कर आता है. कहने का मतलब है कि दलित साहित्य में वर्णाश्रम व्यवस्था पर संवेदनात्मक प्रहार किया जाता है.  . ताकतों का प्रतिरोध किया जाता है. मानवता के रिस्ते को कायम करने की अपील की जाती है. यही दलित साहित्य की वैचारिकी है यानी पहचान है. सामाजिक ढाँचे का जो मनुवादी रूप है उससे दलितों की स्वतंत्रता , समानता  और बंधुत्वा जोकि आधुनिक युग के मूल सामाजिक तत्व हैं, पर चोट पहुचती है. यही उनकी समस्या है . 
                  ठीक इसी तरह स्त्री को पुरषवादी समाज में  वो स्वतंत्रता नहीं है जो वास्तविक रूप में होनी चाहिए. स्त्री क्या खाए , क्या पहने, किन बातों में दिलचस्पी रखे, ये पुरुष समाज ही तय करता है स्त्री नहीं. समाज ने स्त्री को घर तक ही सीमित कर के रखा है. इसी के विरुद्ध दलितों के साथ – साथ स्त्रियों ने भी अपने हक के लिए आवाज़ उठाई. स्त्री साहित्य भी स्त्री के इसी संघर्ष की संवेदन पूर्ण व्याख्या करता है. इस तरह जिस प्रकार दलितों के लिए अन्य ब्रहम्मनवाद है , उसी तरह स्त्री के लिए अन्य पुरषवादी मानसिकता है. 
                   इसी प्रकार स्त्री साहित्य की पहचान पुरषवादी मानसिकता के विरोधी रूप में प्रकट होती है. और पुरुषों द्वारा स्त्रियों पर ढाए गये अत्याचार ही स्त्री साहित्य की समस्या है. जिसका विरोध हमें स्त्री साहित्य में दिखाई देता है.  
                          आदिवासियों की बात कुछ अलग है. आदिवासियों का सामाजिक शोषण भी हो रहा है तथा संविधान आ जाने के बाबजूद भी अर्थात भारत स्‍वतंत्र हो जाने के बावजूद भी विकास के नाम पर सरकार की नीतियों द्वारा भी . इस तरह आदिवासियों की पहचान है उन पर  ढाए गये सामाजिक अत्याचार और सरकार की नीतियों के प्रति उनके संघर्ष की कहानी. और समस्या है सामाजिक अत्याचार और सरकार की नीतियों के प्रभाव से उनकी जीवन शैली का अस्त – व्यस्त हो जाना. यहाँ ध्यान देने की बात यह है कि साहित्य सदैव सीधे – सीधे सरकार या यूँ कहें की राजनीति का प्रतिरोध करने से बचा है. इसलिए आदिवासी साहित्य में भी सरकार की कठोर नीतियों का विरोध तो है, परंतु उस विरोध से सरकार का प्रतिरोध मुखर रूप से नहीं उभरा है. यही कारण है की आदिवासी साहित्य दुखांत साहित्य की तरफ ज़्यादा मुड़ा हुआ है. इस साहित्य में आदिवासी की आह! को सुना जा सकता है. परंतु इसका नायक इतना सक्षम नहीं होता कि वह सरकार और पूंजीवादी ताक़त का विरोध कर सके. यह वास्तविकता भी है. आदिवासियों की जनसंख्या कम होने के कारण सरकार और पूंजीवादी ताक़तें उनके समूहों के प्रतिरोध को तवाह  कर देती हैं.
                          अब बात आती है ओबीसी साहित्य की. ओबीसी : एक ऐसा वर्ग जिसका अस्तित्व संविधान निर्माण के तीस साल बाद मंडल कमीशन की रिपोर्ट के ज़रिए आता है. प्रश्न यह है कि इसकी पहचान क्या होगी? अभी स्पष्ट किया जा चुका है कि दलित एक सामाजिक जाती है. स्त्री विमर्श कई जातियों का एक वर्ग है , जो कि सामाजिक ढाँचे के विरुद्ध खड़ा हुआ है. तो यह स्पष्ट होना ज़रूरी होता है कि ओबीसी जाति है या फिर वर्ग? सरकार इस इसे वर्ग के भीतर रखती है(अन्य पिछड़ा वर्ग) . जिसका सामाजिक ढाँचे की बजाय सरकार की विकासवादी नीतियों से ज़्यादा संबंध है. क्योकि यह आर्थिक रूप से पिछडा वर्ग है. अब प्रश्न उठता है कि क्या ये सिर्फ़ आर्थिक रूप से पिछड़ा वर्ग है या सामाजिक प्रतिष्ठा मे भी पिछड़ा है? इस उत्तर के लिए ओबीसी की कुछ जातियों का नाम से उदाहरण देना आवश्यक बनता है. जाट हरियाणा में ओबीसी मे आते हैं, और इनकी सामाजिक प्रतिष्ठा उँची है. परंतु दूसरी तरफ राजस्थान में जाटों की सामाजिक प्रतिष्ठा नीची है. इसी प्रकार यादवों , राजपूतों आदि के साथ भी ऐसा ही है. इस तरह यह भी सच है कि ओबीसी वर्ग के साथ ऊँच-नींच की राजनीति भी है. संकेतिक भाषा में कहें तो ओबीसी जातियाँ कहीं पर शोषित हैं तो कहीं पर शोषक हैं. 
                                ओबीसी वर्ग की समस्या यदि आर्थिक विकास का कम होना माना जाए तो पूंजीवाद इसका पहचान के रूप में अन्य बनेगा. और सरकार की नीतियाँ भी अन्य के रूप में उभर कर आएँगीं. इस तरह इसकी पहचान पूंजीवाद के विरोध के रूप में बनेगी . या फिर सरकार की उदारवादी नीतियों के लिए संघर्ष के रूप में
वरुण प्रताप सिंह ‘विरंजक’
वरुण प्रताप सिंह ‘विरंजक’

बनेगी. अतः ओबीसी साहित्य की मूल समस्या आर्थिक कोटि के रूप में सामने आएगी . अब प्रश्न उठता है की क्या हिन्दी साहित्या में आर्थिक असंतुलन की रचनाएँ हुई हैं या नहीँ . जवाब सीधा है कि आर्थिक रूप की गैर बराबरी को आधार बना कर मार्क्सवाद पनपा है. और हिन्दी साहित्य  में मार्क्सवादीसाहित्यकारों की एक अच्छी ख़ासी जनसंख्या है. तब ओबीसी विमर्श को मार्क्सवादी साहित्यिक विमर्श से कैसे अलग रखा जा सकता है. अर्थात यदि ओबीसी साहित्य की समस्या आर्थिक गैर बराबरी होगी तो इसे मार्क्सवादी साहित्य की कोटि से अलग नहीं किया  जा सकता . यानि यदि ओबीसी साहित्य वर्ग विशेष साहित्य के रूप में उभरेगा तो इसे मार्क्सवादी साहित्यिक  कोटि में ही समाहित होना पड़ेगा. इस के लिए नये ‘वाद’ की कोई खास ज़रूरत न बनेगी.

                                                  अब ओबीसी की सामाजिक प्रतिष्ठा को देखा जाए तो सैकड़ों जातियाँ ऐसी देखी जा सकती हैं, जिनका सामाजिक शोषण होता रहा है. इन जातियों का ब्राहमड़ और क्षत्रिय जातियाँ शोषण करती हैं. स्मरण रहे की बहुतेरी क्षत्रिय जातियाँ ओबीसी वर्ग में आती हैं. अब अगर साहित्य के मध्या से  आवाज़ बुलंद की जाए तो इस साहित्य की कोटि दलित साहित्य से बाहर न जा सकेगी. दलित साहित्य में भी सामाजिक शोषण यानि ऊँच – नींच के विरुद्ध आवाज़ है. अब अगर कोई विद्वान ये कहे की ओबीसी में कई जातियाँ ऐसी हैं जिनको साहित्य में स्थान नहीं मिल पा रहा है. परंतु दलितों की तरह उन पर भी अत्याचार ढाए जा रहे हैं , तो यह बात अप्रासंगिक होगी. क्योकि दलित साहित्य जातिगत  भेदभाव का प्रतिरोध करने वाले साहित्य के रूप में समाज में प्रतिष्ठित है. ऐसे हालात में ओबीसी जातियों के सामाजिक भेदभाव को दूर करने का सजग मध्यम दलित साहित्य साबित हो सकता है.
                     अगर आप यह सोच कर दलित साहित्य के भीतर ओबीसी वर्ग की समस्याओं को नहीं रख सकते कि यह एक दलित वर्ग यानि शूद्रो का साहित्य है और ओबीसी की शूद्रो से ज़्यादा सामाजिक प्रतिष्ठा है. तब यह कथन एक सतही राजनीति के अलावा और कुछ नहीं हो सकता. क्योकि ऐसे तर्कों से सामाजिक ऊँच- नींच घटेगी नहीं अपितु बढ़ेगी. 
                     इस तरह यदि ओबीसी वर्ग की समस्या जातिगत भेदभाव है तब उससे साहित्य में नया ‘वाद’ नहीं खड़ा किया जा सकता. क्योकि  जातिगत भेदभाव का समाप्तिकरण तो दलित साहित्य के भीतर ही समाहित हो जाएगा. 
                        कुछ विद्वानों का मानना है कि ओबीसी वर्ग के पास खेती की समस्या है. जो  दलित और स्त्री साहित्य से उसे अलग ठहराती है. जी, ये सच है कि खेती की समस्या के आधार पर ओबीसी वर्ग दलित और आदिवासी साहित्य से अलग हो जाता है. परंतु यहाँ ध्यान देने की बात यह है की खेती को आधार बनाकर शोषण करने वाला वर्ग भी ओबीसी ही है. अगर ओबीसी वर्ग की खेती पर ख़तरा मंडरा रहा है तो उसका कारण सरकार की उदारवादी नीतियों के माध्यम से पूंजीवादी वर्ग का खेती पर प्रहार होना है. वास्तब में  समाज की ये एक समस्या है जिसको आधार बनाकर प्रेमचंद जैसे महान लेखकों ने रचना कर्म किया है.        
                                                   अब जब ओबीसी वर्ग की समस्या को खेती आधारित समस्या के रूप में देखा जाएगा तब यह ओबीसी जातियों में भी सीमित जातियों का ही साहित्य कहलाएगा. क्योकि ओबीसी मे कुछ खास ऐसी सीमित जातियाँ है जिन पर भूमि का एक बड़ा हिस्सा रहता है. इसलिए खेती की समस्या को आधार बनाकर एक नये ‘वाद’ का खड़ा होना महज  साहित्य का बंदर बाँट होगा. 
                                                       ओबीसी साहित्य के रूप में,साहित्य में एक नये ‘वाद’ को ना आर्थिक कोटि को आधार बनाकर खड़ा किया जा सकता और ना ही सामाजिक भेदभाव को आधार बनाकर. इसके बाबजूद भी यदि साहित्य में ओबीसी विमर्श उभरता है तो महज ये एक सतही राजनीति होगी , जिसका मकसद सामाजिक सुधार नहीं अपितु राजनीतिक हित – लाभ होगा. साहित्य के नाम पर ओबीसी वर्ग को एकत्र कर राजनीति करना इस नये “वाद” का मकसद होगा.        
                                 हाँ, ओबीसी साहित्य की भविष्य में  संभावनाएँ हैं या नहीं ये एक कठिन प्रश्न है. क्योंकि किसी भी संधर्व या प्रसंग का भविष्य नहीं तय किया जा सकता. परंतु यह कहना तो तर्क संगत है कि ओबीसी साहित्य तब तक नहीं उभर सकता जब तक कि उसकी स्त्री, आदिवासी और दलित साहित्य से स्वतंत्र वैचारिकी नहीं बनती . जिस दिन इसकी ठोस और अलग वैचारिकी बन जाएगी उस दिन ओबीसी विमर्श की कल्पना की जा सकती है.
     
-वरुण प्रताप सिंह ‘विरंजक’
 (   दिल्ली विश्वविद्‍यालय में हिन्दी साहित्य से अध्ययनरत )
 MOB: 9891914110

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