कतकी पूनो – अज्ञेय

छिटक रही है चांदनी,

मदमाती, उन्मादिनी,
कलगी-मौर सजाव ले
कास हुए हैं बावले,
पकी ज्वार से निकल शशों की जोड़ी गई फलांगती–
सन्नाटे में बाँक नदी की जगी चमक कर झाँकती !

कुहरा झीना और महीन,

झर-झर पड़े अकास नीम;
उजली-लालिम मालती
गन्ध के डोरे डालती;
मन में दुबकी है हुलास ज्यों परछाईं हो चोर की–
तेरी बाट अगोरते ये आँखें हुईं चकोर की !

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