कन्यादान की रस्म क्यों ?

कन्यादान की रस्म क्यों ?

 विवाह के अवसर पर गाया जाने वाला एक गीत बहुत प्रचलित है —“हम तो बाबुल तोरे खूंटे की गैया..जित हाँके ….हंक जाएँ …!!” –इतना बड़ा अपमान है !ये स्त्रियों का ….गाय की तरह हमें जहां चाहा हांक दिया और जिसे चाहा दान कर दिया !! तो क्या समाज में हमारी स्थिति किसी पशु के समान है ? प्राचीन शास्त्रों से लेकर वर्तमान

कन्यादान
कन्यादान

कानून और संविधान में कौन है जो कन्यादान का अनुमोदन करता है? इसका जवाब पाने से पूर्व यह जान लेना आवश्यक है कि दान किसे कहते हैं ?और दान देने का अधिकारी कौन होता है ?—-” किसी भी चल अचल वस्तु को उसके स्वामी द्वारा किसी अन्य को उस वस्तु का मूल लिए बगैर हस्तांतरित कर दिया जाता है ,तो उसे ‘दान ‘ कहते हैं । ” -गौर करने वाली बात है ये कि दान में दी जाने वाली वस्तु का पूर्ण स्वामित्व दान देने वाले पर होना आवश्यक है । अर्थात दान की वस्तु ‘दानदाता ‘ की निजी संपत्ति हो , यह आवश्यक है । इसी संदर्भ में आधुनिक संपत्ति हस्तांतरण विधान की परिभाषा देखिए –‘ यदि एक व्यक्ति के द्वारा ( जिसे दाता कहते हैं ) दूसरे व्यक्ति को (जिसे और अदाता कहते हैं ) कोई चल या अचल संपत्ति इच्छा पूर्वक और बिना किसी प्रकार की आशा के हस्तांतरित की जाए तो उस इस हस्तांतरण को ‘दान’ कहते हैं । यद्यपि  हमारे प्राचीन शास्त्रों में कहीं -कहीं कंयादान का समर्थन जरूर मिलता है बृहस्पति स्मृति , लिंग पुराण ,याज्ञवल्क्य स्मृति’ को छोड़ शेष सभी प्राचीन शास्त्र कन्यादान का विरोध करते हैं ।  हमारा आधुनिक सविधान और वर्तमान कानून भी कन्यादान  के महत्व को नहीं स्वीकारता है। जैसा कि स्पष्ट किया जा चुका है – दान केवल उस वस्तु का ही दिया किया जा सकता है जिस पर दान दाता का स्वामित्व हो या दान में दी जाने वाली वस्तु निजी संपत्ति हो । यदि पुत्री को पिता की संपत्ति मान लिया जाए तो इसका अभिप्राय हुआ कि पिता अपनी ही कन्या का उपभोग करने का उत्तराधिकारी है । किंतु ऐसी कल्पना स्वप्न में भी करना हमारे लिए निंदनीय घृणित और असंभव है । बल्कि असामाजिक दृष्टि से तो यह महापाप है। तो  फिर ऐसी अवस्था में पिता को क्या हक़ है कि वह उस पुत्री का दान करें , जो उसकी संपत्ति ही नहीं ।। क्योंकि वह एक  अभिभावक या पालनकर्ता  के रूप में अपनी संतान का पालन करता है। इस  संदर्भ में मुस्लिम विधान के लिए ‘सय्यद अमीर अली’ द्वारा दी गई टिप्पणी बहुत महत्वपूर्ण है–”  पिता लड़की का वली मात्र होता है ,जो कन्या की ओर से कानूनी काम करता है। वह किसी भी दृष्टि से उसका स्वामी नहीं होता है। पति भी उसका स्वामी नहीं होता है ।

भारतीय सविधान तथा भारतीय दंड संहिता के अनुसार 18 वर्ष की आयु पूरी करने के पश्चात लड़की अपना वर स्वयं चुनने की स्वतंत्र अधिकारी है। फिर  इसमें पिता द्वारा किया गया कन्या दान का महत्व ही कहां रह जाता है ? कोर्ट मैरिज में भी विवाह के लिए इच्छुक युवक -युवती के हस्ताक्षर तथा गवाह के हस्ताक्षर आवश्यक होते हैं ! यहाँ भी माता-पिता के कन्यादान की आवश्यकता नहीं समझी जाती है। …
कन्यादान के विरोध में सर्वाधिक प्रबल आवाज श्री कृष्ण की है । महाभारत में प्रसंग है –‘ कृष्ण की बहन सुभद्रा मन ही मन अर्जुन के प्रति आसक्त थी । तब श्री कृष्ण की सहायता से ही अर्जुन तथा सुभद्रा का गंधर्व विवाह संपन्न हुआ था । ( गंधर्व विवाह लगभग आजकल के कोर्ट  मैरिज की तरह होता था ) ।  बलराम ने सुभद्रा और अर्जुन के विवाह  पर असहमति प्रगट करते हुए कहा था, –”  कि ब्राम्ह विवाह  के अनुसार जबतक कन्यादान नहीं हो जाता वह विवाह नहीं माना जाता ।”  इस पर  श्री कृष्ण ने बलराम से पूछा …..” प्रदान मपी कन्याया: पशुवत को नुमन्यते ?” अर्थात – ”  पशु की भांति कन्या के दान का अनुमोदन कौन करता है?  कन्यादान के विरोध के स्वर में मनुस्मृति और नारद स्मृति भी पीछे नहीं है ।
अब जरा विवाह अन्य रस्म तथा वैदिक मंत्रों  पर विचार करें । हमारे यहां विवाह की सर्वाधिक महत्वपूर्ण कड़ी है -‘ सप्तपदी ‘ ! जिसके बिना वास्तव में कोई भी युवक एवं युवती को पति- पत्नी के रुप में स्वीकार नहीं किया जा सकता ।  यहां तक कि यदि ‘सप्तपदी ‘ (सात फेरे )  होने से पूर्व यदि कोई हादसा घटित हो जाये , या  विवाह में व्यवधान उपस्थित हो जाता है, तो  ऐसी स्थिति में कन्या को कभी भी विवाहिता नहीं माना गया , बल्कि उस का दूसरा विवाह करने की अनुमति भी प्राचीन शास्त्र देता है।
 कहने की आवश्यकता नहीं , कि आधुनिक कानून  भी विवाह विच्छेद या तलाक के समय यही प्रश्न पूछता है – “कि सप्तपदी ‘ हुई या नहीं ?  कन्यादान के बारे में तो कानून कोई सवाल ही नहीं उठाता ।  दूसरी बात ये  है , कि कन्यादान के बाद चूँकि पति को कन्या का स्वामित्व प्राप्त नहीं होता , तो फिर कन्यादान का क्या महत्व है ? अब विवाह के समय पढ़े  जाने वाली वैदिक मंत्रों की ओर भी ध्यान दें ।इन वैदिक मंत्र में – पत्नी को पति की दासी ना बताकर गृह स्वामिनी का दर्जा दिया गया है। इन मंत्रों में यह स्पष्ट आदेश है कि  अपनी  पत्नी के बिना पति कोई भी विविध धार्मिक कार्य या अनुष्ठान पूर्ण नहीं कर सकता । इसी तरह सावित्री की कन्या सूर्या के विवाह में पढ़ा गया एक मंत्र तब से आज तक प्रत्येक शास्त्र सम्मत हिंदू विवाह में दुहराया जाता है —
सम्राज्ञी श्वसुरे भव , सम्राज्ञी श्वश्रवा भव ।
ननान्दिर सम्राज्ञी भव , सम्राज्ञी आदि देवुयु ।।”
अर्थात – ” (तू )ससुर की सम्राज्ञी  हो ,ननद एवं देवर की सम्राज्ञी हो । ”

तो क्या दान में दी हुई वस्तु अपने प्रियजनों की सम्राज्ञी हो सकती है ? दान में दी जाने वाली प्रत्येक  वस्तु का सबसे दुर्बल पक्ष यही होता है,  कि वह दान लेने वाले के बराबर कभी नहीं हो सकता । वह सदैव एक निम्न वस्तु मानी जाती है । तो यह दान में प्राप्त कन्या कभी भी ससुराल जनों के बीच बराबरी के स्थान पर सकती है ? …उसे

डॉ निरूपमा वर्मा
डॉ निरूपमा वर्मा

परिवार के अभिन्न  व्यक्ति के रुप में स्वीकार नहीं किया जा सकता क्योंकि वह  दान में प्राप्त है । ….उसका स्थान ससुराल में सदैव नीचे ही होना चाहिए । जबकि वास्तव में ऐसा नहीं है , हमारे यहां बहू को लक्ष्मी की रुप में इज्जत दी जाती है और यहां बहू को उसका स्थान नीचा  नहीं बल्कि बराबरी का होता है।  सच तो ये है कि यदि ऐसा होता तो वर  अपनी होने वाली पत्नी से विवाह की वेदी  पर लिए गए वचनों में यह कभी नहीं कहता—” मैं अपने सौभाग्य के लिए तुम्हारा हाथ पकड़ता हूं । .. हम दोनों साथ-साथ वृद्धावस्था को प्राप्त हों …भग , अर्मया, सविता और पुरधि नामक देवताओं की कृपा से मेरे घर की स्वामिनी बनने के लिए तुम मुझे प्राप्त हुई हो..” ।।

हमारे किसी भी वैदिक मंत्र में वर द्वारा यह नहीं कहलाया  गया है —-“कि मैं (वर ) तुम्हे (कन्या को ) दान के स्वरुप स्वीकार करता हूँ ।”  
ऐसा तो किसी शास्त्र में नहीं कहा गया है ,फिर  कन्यादान  की रस्म क्यों की जाती है? आखिर  इसका औचित्य क्या है ?
कन्या को जीवन संगिनी के रूप में उसके माता-पिता वर के हाथों में सौंपते हैं ।  तो फिर कन्यादान का क्या महत्व है ? सोचिये  जब कन्या का दान ही कर ,  दिया गया तो वह पति के मन प्राण और गृह स्वामिनी कैसे हुई ? और फिर पति पत्नी के बीच आत्मिक संबंधों की बात ही कहां रह जाती है ? क्योंकि दान में प्राप्त भी वस्तु को पति चाहे दासी के रूप में मान दे या  वेश्या का स्थान दे । क्या फर्क पड़ता है ! किन्तु हम जानते हैं हमारे भारतीय समाज में पति पत्नी के मध्य एक आत्मिक संबंध जुड़ा हुआ है । दोनों एक दूसरे के पूरक है । जीवन साथी है । परिवार को कायम रखने वाला एक अटूट रिश्ता है।  पत्नी , पति की दासी नहीं अर्धांगिनी मानी गई है । इसका सबसे उत्तम उदाहरण शिव – पार्वती का है । जब पार्वती ने शिव जी के साथ विवाह किया,  तब उन्होंने यह इच्छा प्रकट  की — कि वे पति से भिन्न या अलग होकर नहीं रहना चाहती है।  इस पर शिव जी ने पार्वती को अपने बाएं हिस्से में समाहित कर लिया , तभी से स्त्रियों को ‘वामा ‘ कहा जाता है।  जरा सोचिए यदि पत्नी को दान की वस्तु मानकर ग्रहण किया जाता तो शिव जी  क्या कभी पार्वती को अपने अस्तित्व का वाम (बायां) हिस्सा मानते ?  और पत्नी को अर्धांगिनी का उच्चतम स्थान देते ?
फिर हम क्यों सुंदर और पवित्र रिश्ते के  साथ दान जैसे पदस्थ हीन ,शब्द का उच्चारण करके विवाह ,दाम्पत्य तथा परिवार की समस्त उच्च स्तरीय मान्यताओं पर आघात क्यों किया जाए?

डॉ निरूपमा वर्मा
जन्म 13/5/1953 . शिक्षा – एम ए , एम् फिल. , पीएचडी । रविशंकर वि.वि. रायपुर , छत्तीसगढ़ । 6,वर्ष जवाहर लाल नेहरू डिग्री कॉलेज एटा में समाज शास्त्र की व्याख्याता रही । पाँच वर्ष , जिला उपभोक्ता फोरम की न्यायिक सदस्य । तीन वर्ष जिला बाल किशोर न्यायालय की बोर्ड में सदस्य । साहित्यिक …समसामयिक लेखों का विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशन । आकाशवाणी से अनेक विषयों पर वार्ताएं प्रसारित । कुछ कहानी भी प्रकाशित । शोध प्रबंध – पुस्तक रूप में प्रकाशित । अखिल भारतीय भाषा से सम्मलेन से सम्बद्ध । तथा सामाजिक कार्य कर्ता ..। सम्मान — उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा ” नारी सम्मान ।” दैनिक जागरण ,पत्र समूह द्वारा -‘नारी सशक्तिकरण सम्मान ‘। दैनिक अमर उजाला ,द्वारा पर्यावरण संरक्षण हेतु सम्मान ।  तथा हिंदुस्तान प्रकाशन समूह द्वारा –‘ सशक्त नारी सम्मान ‘ से सम्मानित । पता-निरुमन विला वर्मा नगर ,आगरा रोड एटा (उत्तर प्रदेश ) -207001 email– drnirupama.varma@gmail .com मोबाईल —9412282390

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