मन का विषाद
हर एक पल को संजोता ये मन ,
कभी हँसता तो कभी रोता ये मन
सपने है बुनता पर डरता भी है ,
कसक सी लेकर चलता ये मन
आडम्बर भरी ये दुनिया सारी ,
सोच कर आहत होता ये मन
न रिश्ते न नाते न अपना न पराया ,
इस भूल भुलैया में उलझा ये मन
गुम हो गया प्यारा समां वो ,
जिसे याद करके रोया ये मन
बचपन के झूले वो प्यारी सी बातें ,
बस उन्ही यादों में खोया ये मन
जीते थे जी भर के यार वेली ,
आओ न साथी फिर कहता ये मन
लड़ते-झगडते भी रौनक थी लगती ,
वो घर-घर का खेला बहनों के संग ,
गुड़िया की विदाई याद करता ये मन
वो माचिस की डिब्बी का टोहना ओ भाई ,
वो रंगों का मिलाना भूल न पाता ये मन
सड़क पे रेलगाड़ी का चलाना वो दिन भर ,
वो मिलना फिर बिछड़ना याद करता ये मन
जीवन के रेले में ऐसे ही अकेले में ,
उन प्यारे दिनों को तरसता ये मन
जादू की दुनियां थी जादू से सपने थे ,
आज उन्ही को तलाशता ये मन
कहाँ हैं वो साथी कहाँ है वो दुनिया ,
वापस जाने को मचलता ये मन
बड़े हो गए अपने पैरों पर खड़े हो गए ,
लेकिन वो लड़खड़ाना न भूल पाता ये मन
बातें बड़ी करना सीख गए हम ,
पर वो छुटपन की बातें न छोड़ पाया ये मन
हर एक पल को संजोता ये मन ,
कभी हँसता तो कभी रोता ये मन
– ज्योत्सना
सुंदरनगर, मंडी, हिमाचल प्रदेश