सद्गुणों का विकास

सद्गुणों का विकास हिंदी साहित्य में कल और आज

“प्रत्येक देश का साहित्य वहाँ की जनता की चित्तवृत्ति का संचित प्रतिबिंब होता है।”
– आचार्य रामचंद्र शुक्ल
साहित्य सद्गुणों की खेती करना सिखाता है। साहित्य से संस्कृति उन्नत होती है और संस्कृति जब आचरण में उतरती है तो समाज और व्यक्ति में सद्गुणों का विकास होता है। साहित्य हमें सेवाभावी व सुसंस्कारी बनाता है।
साहित्य वस्तुतः सभ्यता और संस्कृति का अविरल झरना है।
जहां एक ओर सभ्यता बहिरंग है जो बाह्य जीवन पद्धति सिखाती है, जबकि संस्कृति अंतरंग है और विचारों का परिशोधन करते हुए आगे बढ़ना, पीड़ितों की सेवा करना सिखाती है। शिक्षा जहाँ सभ्यता के विकास एवं व्यावहारिक ज्ञान के संर्वधन के लिए आवश्यक है, वहीं विद्या अपने जीवन के उद्देश्यों को समझने, अनगढ़ता को सुगढ़ता में बदलने और जीवन जीने की कला के शिक्षण में रूप में जरूरी है।और इन चारों का केंद्र या धुरी साहित्य है।
साहित्य
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उन्नत साहित्य जीवन को वे नैतिक मूल्य प्रदान करते हैं जो उसे उत्थान की ओर ले जाते हैं । साहित्य के विकास की कहानी वास्तविक रूप में मानव सभ्यता के विकास की ही गाथा है ।
समाज के युवा अच्छे साहित्य को पढ़ते हैं वह समाज उन्नति की ओर बढ़ता है। कहा धार्मिक साहित्य पढ़ने से धर्म में रुचि बढ़ने के साथ ही संस्कृति से भी लगाव बढ़ता है, जिससे संस्कृति का संरक्षण होता है। 
मैथ्यू अर्नाल्ड ने ‘साहित्य को जीवन की व्याख्या कहा है।” इस व्याख्या से उनका तात्पर्य जीवन के गुण दोष कथन से नहीं है, अपितु जीवन के सर्वांगीण विकास से है। वास्तव में जीवन के शाश्वत मूल्य सत्यं शिवं सुंदरम् तीनों की सामंजस्यपूर्ण प्रतिष्ठा ही सफलता की पराकाष्टा है। ‘हितेन सह सहितं’ कहकर साहित्य शब्द के व्याख्याकारों ने उसमें स्वयं कल्याण भावना की प्रतिष्ठा की है। साहित्य में जीतना संदेश होता है, जैसे ‘तमसो मा ज्योतिर्गतम’ उसी प्रकार धर्म और साहित्य का घनिष्ठ संबंध होता है।
सबसे पुराना जीवित साहित्य ऋग्वेद है जो संस्कृत भाषा में लिखा गया है। संस्कृत, पालि, प्राकृत और अपभ्रंश आदि अनेक भाषाओं से गुज़रते हुए आज हम भारतीय साहित्य के आधुनिक युग तक पहुंचे हैं। भारत में 30 से भी ज्यादा मुख्य भाषाएँ हैं और 100 से भी अधिक क्षेत्रीय भाषाएँ है। लगभग हर भाषा में साहित्य का प्रचुर विकास हुआ है।
प्राय: सभी धर्मों में उनका धार्मिक साहित्य ही प्राचीन साहित्य माना जाता है । वैदिक साहित्य को विश्व का प्राचीनतम साहित्य अगर माना जाए तो कहना होगा कि उसके पूर्व का समाज और साहित्य अतीत के गर्भ में विलीन हो गए । भारत के पूर्व-इतिहास काल में ऋषियों ने तत्कालीन समाज और जीवन-क्रम का जो वर्णन किया, वह ‘वैदिक साहित्य’ कहलाया ।
उपनिषदों के ‘सत्यम’ वद् धर्मचार’ से लेकर कबीर तथा तुलसीदास से लेकर रहीम के नीति काव्य तक व्याप्त नीति साहित्य मानव मूल्यों की प्रतिष्ठा का प्रत्यक्ष प्रयास है। आधुनिक साहित्य में ‘मूल्य’ शब्द का प्रयोग वैयक्तिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक तथा सांस्कृतिक स्तर का संपूर्ण मानव व्यवहार के मानदंड के रूप में किया जाता है। ‘मूल्य’ शब्द का आवश्यकता, प्रेरणा, आदर्श, अनुशासन, प्रतिमान आदि अनेक अर्थों में प्रयोग होता है। आज मनुष्य पुराने विचारों को काल बाह्य समझने लगा है, प्राचीन मूल्य अस्वीकृति हो रहे हैं और नए-नए मूल्य स्वीकार किए जा रहे हैं।
साहित्यकार समाज और अपने युग को साथ लिए बिना  रचना कर ही नहीं सकता है क्योंकि सच्चे साहित्यकार की दृष्टि में साहित्य ही अपने समाज की अस्मिता की पहचान होता है। भारत की आजादी के संग्राम के समय भारतीय समाज और साहित्य का पता दुनिया को हो चुका है। अंग्रेजों को देश छोड़कर भागना पड़ा, इसमें भारतीय समाज और साहित्य की बहुत बड़ी भूमिका रही। साहित्य मानव जीवन को परिवर्तन के साथ तथा मानवजाति को आपस में जोड़ता है। इसीलिये हमारे समाज में साहित्य, समाज का प्रतिबिम्ब माना जाता है। साहित्य बीते हुये कल का आईना है और भविष्य के जीवन को दिशा देने वाला भी है। सच्चा साहित्य कभी पुराना नहीं होता। साहित्य जीवन के मूल्यों को प्रतिष्ठित करता है। वाल्मीकि, कालीदास, रविदास, सूरदास, तुलसीदास एवं आधुनिक युग के साहित्यकारों की रचनाएँ आज के पूंजीवादी और व्यावसायिक युग में भी आधुनिक समाज का दिशा निर्देशन करने में सक्षम हैं।
परम्परा से प्राप्त यह अमूल्य धन  साहित्य में निहित है। ज्ञान, सदाचार, कलाएँ जो कुछ साहित्य के विविध रूपों में विद्यमान है, उनके लिये हम प्राचीन विद्वानों और ऋषि मुनियों के कृतज्ञ हैं। उन्हीं की कृपा से आज हमको श्रुति, स्मृति, वेदाँग, चौसठ महाविद्या और कलाओं के मूल तथ्यों का ज्ञान हो सकता है अथवा कम से कम उनके अस्तित्व का पता लग सकता है। यह समस्त साहित्य देव वाणी अथवा संस्कृत में प्रकट किया गया है। परन्तु ज्ञान की परम्परा में किसी विशेष भाषा या उसके विशेष रूप का बन्धन नहीं है। भगवान बुद्ध और जैन आचार्यों ने पाली, मगधी आदि प्राकृत भाषाओं का आश्रय लिया और उनकी परम्परा भी आज तक चली आ रही है। हिन्दी, बँगला, मराठी, गुजराती, उड़िया तैलंगी, तेलुगु, कन्नड़, मलयालम, पंजाब, आसमी आदि आजकल की प्रचलित प्राकृत भाषाएँ हैं, जिनमें संत, महात्मा, सुधारकों ने सदाचार की शिक्षाएँ देकर अपनी परम्परा को स्थिर रखा है। इन सबकी परम्परागत शिक्षाएँ अधिकाँश में लेखबद्ध हैं। वह सब की सब भारतीय परम्परा के ही अंग हैं और सभ्यता ,धर्म तथा भारतीय संस्कृति की पोषक हैं।
भक्तिकाल को हिंदी साहित्य का स्वर्णिम काल कहा जाता है । कविवर रहीम, तुलसी, सूर, जायसी, मीरा, रसखान आदि इसी युग की देन हैं जिन्होंने धार्मिक भावनाओं से ओतप्रोत कविताओं छंदों आदि के माध्यम से समाज के सम्मुख वैचारिक क्रांति को जन्म दिया ।
इन कवियों ने भक्ति भाव के साथ ही साथ लोगों में नवीन  आत्मचेतना का संचार भी किया तथा अपने उन्नत काव्य के माध्यम से समाज को एक नई दिशा दी ।
हिंदी साहित्य में आदर्शवाद और यथार्थवाद का मूल प्रश्न गद्य-साहित्य में उठ खड़ा होता दिखाई देता है, जिसकी स्थापना भारतेंदु हरिश्चंद्र कर चुके थे और परिष्करण आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी द्वारा किया गया था ।
इसका बीज पड़ चुका था, सिर्फ उसे खाद-पानी की आवश्यकता थी और वह काम किया प्रेमचंद ने । उनकी परवर्ती पीढ़ी ने, जिसने प्रेमचंद के द्वारा लगाए गए वृक्ष को हरा-भरा रखा और यहाँ-वहाँ उसके बीज रोपते रहे, किंतु उन अंकुरों का हर बार श्रेय सिर्फ प्रेमचंद ने ही पाया 
उन्नत साहित्य जीवन को वे नैतिक मूल्य प्रदान करते हैं जो उसे उत्थान की ओर ले जाते हैं । साहित्य के विकास की कहानी वास्तविक रूप में मानव सभ्यता के विकास की ही गाथा है ।


– सुशील शर्मा

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