कहां हो तुम?

कहां हो तुम?

मैं कुछ कहने जा रहा हूं,
कहां हो तुम?

कहां हो तुम?

यही मेरे ईर्द-गिर्द हो,
या फिर कहीं और हो तुम।
सच है मैनें अभी तक,
कुछ कहा नही तुमसे।
यूहीं जुबां पर शिकायतो के ताले लग जाते है।
कुछ तुम्हारी और,
कुछ मेरे शब्दों के जुबां पर।
यह तो सच है सच तुम्हें भी मालूम है,
झूठ तो रिश्ते सींचते है।
सच उन्हें बढ़ने नही देते।
और तुम्हारे-मेरे बीच तो,
बहुत है सच?
एक धर्म की एक जाति की।
एक शोहरत की एक गुमनाम की।
मैं भी हूं बद्किस्मत ही सही,
लेकिन मैं हूं।
इस लिए दिल है मेरे पास।
जिसमें दबी है तुम्हारे लिए,
एक बेकरारी का सबब।
तुम्हें खोने का डर,
तुम्हें कभी न देख पाने का डर,
कुछ तुम्हें न जानने का डर,
क्योंकि इसी डर पर तो टिका था,
तुम्हारे और मेरे उम्मींद की आशियाना।

– राहुलदेव गौतम

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