खिड़की से उतर कर धूप जगाने लगी

सेंटीग्रेड क्या सीख गया धूप जलाने लगी

बारिश अगर नहीं तो हर पल सताने लगी,
गर्मी के मौसम में भी नज़ाकत आने लगी।
सारा गांव नाप देता था नंगे पांवों से मगर,
सेंटीग्रेड क्या सीख गया धूप जलाने लगी।
सेंटीग्रेड क्या सीख गया धूप जलाने लगी

मुश्किल नहीं था नक्शा तपिश का बनाना,

ये सूरज है दूर और मुझे उम्र थकाने लगी।
उसे मालूम क्यूं नहीं है कि सोया हूं देर से,
खिड़की से उतर कर जो धूप जगाने लगी।
उसके मिज़ाज का ख़ून तो कर देता मगर,
धूप चुपके से आकर मेरे पांव दबाने लगी।
तुम पसीना समझते हो जिसे पसीना नहीं,
धूप बदन से लिपट कर आंसू बहाने लगी।
चलो टूट जाएं हम शाख से पत्तों की तरह,
मर्यादा के पौधों पर नई कौंपल आने लगी।
मैंने खाया नहीं खाया, अलग बात है मगर,
चिन्ता की दीमक मुझे हर लम्हे खाने लगी।
ज़फ़र ज़िन्दगी से मौत की हमदर्दी देखिए,
सांस के पत्थर को और पास में लाने लगी।
– ज़फ़रुद्दीन ज़फ़र
एफ-413,कड़कड़डूमा कोर्ट,
दिल्ली -32 zzafar08@gmail.com

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