ज़हन में अटका हुआ-सा कुछ

ज़हन में अटका हुआ-सा कुछ 

हालाँकि यह बेहद दुखद है । और मुश्किल भी । लेकिन मैं अंत से शुरू करता हूँ । उनके अंत से । एक ऐसे अंत से जिसके आगे केवल काली रात है ।
दंगाइयों ने उनके गले में टायर डाल कर उन्हें ज़िंदा जला दिया था । क्योंकि उन्होंने पगड़ी पहन रखी थी । क्योंकि उनकी दाढ़ी थी । क्योंकि वे माथा टेकने गुरुद्वारे में जाते थे । क्योंकि उनका नाम गुरबख़्श सिंह था ।
गुरबख़्श सिंह मेरे टीचर थे । वह 1984 का साल था । देश में उथल-पुथल मची हुई थी । पंजाब जल रहा था । उन धधकती लपटों की आँच दिल्ली और पूरा देश महसूस कर रहा था । हवा में गोलियों और बम-धमाकों की आवाज़ें थीं । बारूद की गंध थी । एम्बुलेंस और पुलिस-जिप्सी गाड़ियों के सायरन का शोर था । क्षितिज पर केसरिया-पीली पगड़ियाँ थीं । आतंकवादियों के ज़हरीले नारे थे । हत्याएँ थीं । अमृतसर के स्वर्ण-मंदिर में टैंकों की घड़घड़ाहट थी । फ़िज़ा में फ़ौजी बूटों की चरमराहट थी । और चारो ओर इसका-उसका बहता हुआ लाल लहू था ।
गुरबख़्श सिंह मुझे इतिहास पढ़ाते थे । वे मुझे प्यार करते थे । वे अपने परिवार के साथ तिलक नगर में रहते थे ।
दंगा
दंगा 

वे मुझे ‘ पुत्तर ‘ ( बेटा ) कहते थे । मुझे उनका ‘स्कूल’ को ‘सकूल’ कहना , ‘ग़लत’ को ‘ग़ल्त’ कहना अच्छा लगता था । । वे एक नेक इंसान थे । वे बच्चों को कभी नहीं मारते थे । उनका बंदूक़ की गोलियों और बम-धमाकों से कोई लेना-देना नहीं था ।

मैं तब छोटा था । । लोग कहते थे कि माहौल बहुत ख़राब हो गया था । इसलिए हमारा स्कूल बहुत दिनों तक बंद रहा था । बाद में जब स्कूल दोबारा खुला , गुरबख़्श सिंह हमें इतिहास पढ़ाने नहीं आए । वे मुझे फिर कभी नहीं दिखे । मैं उन्हें बहुत ‘ मिस ‘ करता था । फिर हमें शास्त्री जी इतिहास पढ़ाने आने लगे । वे तिलक लगाते थे और लम्बी शिखा रखते थे । पढ़ाते हुए वे औरंगज़ेब को गालियाँ देते थे और ग़लती करने पर हम बच्चों को पतली छड़ी से मारते थे । तब मुझे गुरबख़्श सर की बहुत याद आती थी । मुझे क्या पता था कि हम बच्चों को इतिहास पढ़ाने वाले गुरबख़्श सिंह एक दिन खुद ही इतिहास बन जाएँगे ।
बाद में किसी ने मुझे बताया कि दंगाइयों ने गुरबख़्श सिंह के बाल और उनकी दाढ़ी ज़बर्दस्ती काट डाली थी और उनके गले में टायर डाल कर उन्हें ज़िंदा जला दिया था । जिस दिन मुझे यह बात पता चली थी , उस दिन मैं घर आ कर बहुत रोया था । माँ बताती है कि मैं बहुत दिनों तक सदमे में चला गया था । कई दिनों तक तेज बुखार में पड़ा न जाने क्या-क्या बड़बड़ाता रहा था ।
गुरबख़्श सिंह के नहीं रहने के बाद मुझे फिर कभी किसी टीचर ने प्यार से ‘पुत्तर’ नहीं कहा । मेरे कान यह सम्बोधन सुनने के लिए जीवन भर तरसते रहे ।
मैं एक कहानी लिखूँगा — ‘ पुत्तर ‘ । उसमें मेरा स्कूल होगा । मैं हूँगा । गुरबख़्श सर होंगे । 1983 होगा । 1985 होगा । लेकिन 1984 का मनहूस साल नहीं होगा । उस कहानी में पंजाब होगा । दिल्ली होगी । लेकिन हवा में बारूद की गंध नहीं होगी । चलती गोलियाँ और बम-धमाके नहीं होंगे । ऐम्बुलेंस और पुलिस जीपों के सायरन का शोर नहीं होगा । ज़हरीले नारे और हत्याएँ नहीं होंगी । टैंकों और फ़ौजी बूटों की धमक नहीं होगी । और इंसानों का बहता हुआ लहू नहीं होगा …
दो 
हालाँकि यह भी बहुत त्रासद है । लेकिन एक बार फिर मुझे अंत से ही शुरू करना पड़ेगा । उन सबके अकाल-अंत से । एक ऐसी अंधी रात से जिसकी कोई सुबह नहीं ।
दंगाइयों ने उनके घर में घुस कर उन सबको बेरहमी से काट डाला था । और फिर उनके घर में आग लगा दी । क्योंकि उस घर में रहने वाले मर्द दाढ़ी रखते
थे । कुर्ता-पायजामा पहनते थे । सिर पर जाली वाली सफ़ेद गोल टोपी पहनते थे । और वहाँ रहने वाली औरतें काला बुर्क़ा पहनती थीं । क्योंकि वे नमाज़ पढ़ते थे । इबादत के लिए मस्जिद में जाते थे । क्योंकि उनके नाम नफ़ीस , अकरम , ज़ेबा और हिना थे ।
नफ़ीस मेरा जिगरी यार था । हम साथ-साथ खेलते हुए बड़े हुए थे । स्कूल में एक ही कक्षा में पढ़ते थे । बाद में हमने एक ही कॉलेज में दाख़िला लिया
था । हमने साथ-साथ कंचे खेले थे , गिल्ली-डंडा खेला था , पतंगें उड़ाई थीं । स्कूल में साथ-साथ शरारतें की थीं । और साथ-साथ मार भी खाई थी ।
नफ़ीस के अब्बू यूनिवर्सिटी में उर्दू के प्रोफ़ेसर थे । उसकी अम्मी स्कूल-टीचर थी । नफ़ीस और उसका परिवार जामिया नगर में रहता था । मेरे पिता यूनिवर्सिटी में हिंदी के प्रोफ़ेसर थे । हम-लोग अक्सर एक-दूसरे के घर आते-जाते
थे ।
नफ़ीस की अम्मी मुझे बहुत प्यार करती थी । जब कभी मैं नफ़ीस के घर जाता , उसकी अम्मी मुझे सेवियों की खीर बना कर खिलाती थी जिसमें मेवे पड़े
होते । उन्हें पता था कि मुझे मेवे वाली सेवियों की खीर बहुत अच्छी लगती है । अक्सर वे मेरे सिर पर प्यार से हाथ फेरते हुए कहती — तू भी मेरा बेटा है । मेरे दो बेटे हैं । एक नफ़ीस । दूसरा तू । ” नफ़ीस के अब्बू का चेहरा मुझे अपने पिता के चेहरे जैसा लगता था । उसकी बहन हिना मुझे ‘ भाईजान ‘ कह कर बुलाती थी । उसकी शक्ल में मुझे अपनी बहन का चेहरा नज़र आता था ।
फ़रवरी , 2002 में नफ़ीस अपने पूरे परिवार के साथ अपने दादाजी से मिलने अहमदाबाद गया था । तभी गुजरात ‘ गोधरा ‘ की चपेट में आ गया । उसके बाद समूचा गुजरात दंगों की आग में जल उठा । नफ़ीस और उसका परिवार लौट कर दिल्ली नहीं आ सका था । बाद में पता चला कि वहशी दंगाइयों ने उसके दादाजी के घर में घुस कर एक-एक को काट डाला था । और पूरे घर में आग लगा दी थी ।
अब नफ़ीस जैसा मेरा कोई दोस्त नहीं । अब किसी की अम्मी मुझे सेवियों की खीर नहीं खिलाती , प्यार से ‘बेटा’ नहीं कहती । अब किसी के अब्बू का चेहरा मेरे पिता जैसा नहीं लगता । अब किसी की बहन का मैं ‘भाईजान’ नहीं । जान-पहचान वाले कहते हैं कि इस घटना से मैं ‘हिल’ गया हूँ । जामिया नगर में , जहाँ कभी नफ़ीस और उसका परिवार रहता था , वहाँ अब ‘ एन्काउंटर ‘ होते हैं । गोलियाँ चलती हैं । लाशें गिरती हैं । और गुस्से का लावा बहता है …
मैं एक कहानी लिखूँगा — ‘ भाईजान ‘ । उसमें मेरा दोस्त नफ़ीस होगा । उसके अम्मी-अब्बू होंगे । उसकी बहन होगी । और मैं हूँगा । 2001 होगा । 2003 होगा । लेकिन 2002 नहीं होगा । उस कहानी में नरोदा पाटिया नहीं होगा । दंगाई नहीं होंगे । मासूम लोगों की लाशें नहीं होंगी और जामिया नगर में ‘एन्काउंटर’ नहीं होंगे । वहाँ गुस्से का लावा नहीं बहेगा । उस कहानी में काला बुर्क़ा पहनने वाली औरतों और सिर पर जाली वाली सफ़ेद टोपी और कुर्ता-पायजामा पहनने वाले पुरुषों को कोई ‘पाकिस्तानी’ नहीं कहेगा । उस कहानी में यह मुल्क़ उन सब का भी होगा । 
तीन
हालाँकि यह भी बेहद दुखद है । कारुणिक है । और इसे बयान करना आसान नहीं । लेकिन इस बार भी मुझे अंत से ही शुरू करना होगा । उनके अंत से । एक ऐसे अंत से जिसके आगे सिर्फ़ अँधेरा है ।
उसका नाम जमुना था । और उसके पिता का रामसरूप । वह साँवली थी पर जब वह हँसती थी तो लगता था जैसे घुँघरू बज रहे हों । वह मेरी सहपाठी ही नहीं थी , अच्छी मित्र भी थी ।
जमुना कॉलेज की मेधावी छात्रा थी । वह मेरे एक और सहपाठी हरीश से प्रेम करती थी । लगता था जैसे दोनों एक-दूसरे के लिए ही बने थे । लेकिन जमुना उस जाति से थी जिसे सदियों से दबाया , सताया और कुचला जाता
सुशांत सुप्रिय
सुशांत सुप्रिय 

रहा था । दूसरी ओर हरीश उस जाति से था जिसका इलाक़े में रोब और दबदबा था । ज़ाहिर है , हरीश के घरवाले हरीश के जमुना से सम्बन्ध के ख़िलाफ़ थे ।

एक दिन जमुना ने मुझे बताया कि वह और हरीश शादी करने जा रहे थे — हरीश के घरवालों की चेतावनी के बावजूद । दोनों बालिग़ थे । मैं खुश हुआ किंतु आशंकित भी था । मैं चाहता था कि दोनों पुलिस सुरक्षा ले लें ।
घर-परिवार और जाति-बिरादरी वालों के विरोध के बावजूद हरीश और जमुना ने कोर्ट-मैरेज कर ली । मैं भी उनकी शादी में एक मित्र और गवाह के रूप में मौजूद था । मैं खुश था कि उनके बगीचे में भी हरियाली ने अँगड़ाई ली । पर इससे पहले कि वहाँ रंग-बिरंगे फूल खिल पाते , हरियाली को पाला मार गया । हरीश के घरवालों और जाति-बिरादरी वालों के दबाव में आ कर इलाक़े की वहशी महा-पंचायत ने इस विवाह को अवैध क़रार दे दिया । और उनकी हत्या का फ़रमान जारी कर दिया । दोनों जान बचाते हुए भागे-भागे फिरने लगे । और तब एक मनहूस दिन हरीश और जमुना अंग्रेज़ी अख़बारों के भीतरी पन्ने पर ‘ ऑनर-किलिंग ‘ की ख़बर बन गए । हरीश के घरवालों ने दोनों को गोली मार दी । मैं उन दोनों को नहीं बचा पाया । मैंने अपनी एक अच्छी दोस्त खो दी । इस घटना से आहत मैं जीवित तो था पर मेरे भीतर कहीं कुछ मर गया था ।
मैं एक कहानी लिखूँगा — ‘मित्र’ । उसमें मेरी दोस्त जमुना होगी । हरीश होगा । पर हरीश के घरवाले नहीं होंगे । कोई बर्बर महापंचायत नहीं होगी । जमुना और हरीश की शादी का दिन होगा पर उनकी हत्या का दिन नहीं होगा । लोग होंगे पर जातियों का जंजाल नहीं होगा । इक्कीसवीं सदी होगी पर इक्कीसवीं सदी में मध्य-क़ालीन मानसिकता नहीं होगी । नृशंस सामुदायिक फ़ैसले नहीं होंगे । दिन की आँत में कोई फोड़ा नहीं होगा । समय के चेहरे पर बदनुमा दाग़ नहीं होंगे । और हम सब उदास नस्लों के वारिस नहीं होंगे । 
काश , जीवन की सच्ची घटनाओं के अंत भी सुखद हो सकते । तब अंत से शुरू करना कितना आसान होता । तब हर अंत एक नई शुरुआत होता । एक रोशन शुरुआत ।
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प्रेषक : सुशांत सुप्रिय
A-5001 ,
गौड़ ग्रीन सिटी ,
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इंदिरापुरम् ,
ग़ाज़ियाबाद – 201014
( उ.प्र. )
मो: 8512070086
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