प्रेम रंगहीन प्राणी है

 प्रेम रंगहीन प्राणी है 

हर मोड़ पर
दौड़ते हैं नंगे पाँव
बहुत दूर
भाषणों के वहशीपन से
मिट्टी और कोयला के घोटालों में
करते हुए अपने सपनों को
दफ्न ,
वे वेदों को नहीं पढ़तें
मंत्रोच्चार नहीं करते
उनके लिए कोई शिक्षक
सिर्फ होता है ” माटर जी “
राह आते-जाते
बस कभी-कभार निहार लेते है
“सकुल”
अंधेरी सड़क पर
किसी नाले के बदबू में सोने वाले
किताबें पढ़ते नहीं
ढोतें है

प्रेम रंगहीन प्राणी है
प्रेम रंगहीन प्राणी है 

कारोबार के लिए नहीं
पेट के लिए
कारोबार तो ” देशबेचवा” करते हैं।
वे धूप में तपते है
भूख के लिए
किराने की दुकान सी इस दुनिया में
सो जातें है
आत्मा सिकोड़ कर
रोटी पर उम्मीद की फटी चादर डाल कर
वे गढ़ जातें हैं फ़िर नये मुद्दें
चुनावी मुद्दों से दूर।
टूटे बर्तनों में डाल देते हैं
उम्र की पाबंदी
मध्दम आँच पर पकाने के लिए
गुब्बारे के पीछे भागनें की उम्र में
भागतें है लोगों के पीछे
” दो रुपिया कम ” ले लो
तुम्हारा गंदा उठाते हुए क्या
नहीं जलते उनके नंगे पाँव?
वे ताकते हैं
कुरान, गीता के ज्ञाता
भिखारी राहगीरों को…
उनके गढ़े पत्थर को
अपना शालिग्राम बनाने वाले तुम
उनकी पीड़ाओं को कह जाते हो
“नीच जाति” ।

(२)
और
उतर जाती है शाम
शहर की आबादी के बीच
गहरा सुर्ख होकर
कि जैसे
तुम्हारी लाली नें
छू लिया हो शरद पूर्णिमा के चाँद को

पेड़ चलने लगतें हैं
कमर तक लटके केश से
करते हुए कदमताल
इस दुनिया में
रात अपने समय पर नहीं होती
वह अटक जाती है
जैसे दादीमाँ का टेपरिकॉर्डर

तुम्हें याद हो
कि मेरे रंग का एक हिस्सा
तुम्हारे तलवे पर चौक पूरता है
मेरी फिरकी लेने वाली
सुन.. शहर मेरा घरौंदा नहीं
मैं नवजात शिशु हूँ
तुम्हारी करधनी से खेलता हुआ

मेरी शाम तो लटक जाती है
उन दो गज्झिन आँखों के बीच
जो झाँकती है किवाड़ से

इस समय का
(जो दहशत में गुजरतें हैं)
होता है इंतज़ार
एक-एक क्षण काटता हूँ
जैसे कोई कर्मचारी
तंख्वाह के इंतज़ार में हो

चलते हुए शरीर को
मन थाम लेता है
सच! मैं तुम्हारे देह में नहीं
नेह में जीना जानता हूँ।

(३)
जब कभी चलते चलते
चटक जाता है पैर
खुल जातें हैं
अंदरूनी घावों की डायरी
माँ तड़प जाती है
निकालती है सिंदूर की डिब्बी
और छिड़क देती है मेरे पैरों पर 
उन्हें लगता है…
मैं मुक्त हो गई किसी बंधन से
सच कहानियाँ नहीं
उनके किरदार होतें हैं
हररोज का दर्द
पिघलते बर्फ़ की चट्टानों-सा होतें हैं
सही होता है क्या?
भारी जख्म को
अपने हाथों से रौदना और
लिख देना कि
दुनिया बहुत खूबसूरत है  ।

(४)
मजनू होतीं लड़कियाँ
नहीं पहनती
अपने पैरों में ” बिछुआ”
वे उगाती है
अपने पीठ पर रंगीन तितलियाँ
किसी प्रेमी को भजने से ज्यादा
वे पसंद करती है
प्रेम में आवारा बन जाना।
अकेले ही नाप लेती हैं
मीलों की दूरियाँ
मजनू होतीं लड़कियाँ
दीवारों पर दिल नहीं बनातीं
वे तो चुन लेती हैं
शोर और चुप्पी के बीच
गहन उदासी
और लिख देती हैं
” प्रेम रंगहीन प्राणी है “

(५)
विचारों की आँच से
बहुत दूर टहलती हुई मेरी आत्मा
भाग जाना चाहती है
किसी गीतकार के शब्दों में
बशर्ते
मेरे रास्ते में होना चाहिए
गीली मिट्टीयों का ढेर
जिसमें फिसल जाए
मेरी आत्मा की दिशाओं का एकाकीपन
मौन की आहटों पर
थिरकती हुई मेरी आत्मा
निकल जाना चाहती है बीहड़ों में
कभी ना लौटनें की उम्मीद में।
                           


– कवितांजलि
हिंदी साहित्य (परास्नातक) 
काशी हिंदू विश्वविद्यालय 

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