बुंदेलखंड की सांस्कृतिक चेतना की लौ का मद्धम होना !

बुंदेलखंड की सांस्कृतिक चेतना की लौ का मद्धम होना !

बुंदेलखंड की सांस्कृतिक चेतना की आत्मगौरव वाली दिया बाती की लौ थोड़ा कमजोर पड़ रही है । हम आप देखेंगे कि जो ये नई पीढ़ी हमारी आ रही है कमोबेश इसमें सांस्कृतिक चेतना वाली बात नहीं है । क्योंकि ये जो तथाकथित आधुनिकता का ज्वर चढ़ा है ये बड़ा खतरनाक है इसमें स्वीकारोक्ति लक्षण जैसा देशीपन बिल्कुल भी नहीं है या है भी तो वह ” पुरानी वाली बात अब कहाँ ? ”  ऐसा नहीं कि ये एकाएक हुआ है । विकास प्रक्रिया में शनैः शनैः वाली लता रूपी प्रवित्ति से नुकसान हुआ है वह नुकसान आधुनिकता को स्वीकार करने में नहीं वह नुकसान आधुनिकता के काले चश्मे को लगाने से हुआ है । ये प्रक्रिया कमोबेश आपको हर भाषा क्षेत्र में दिखेगी , सबकी यही समस्या है लेकिन हर जगह और बुंदेलखंड में सिर्फ एक थोड़ा सा अंतर इस बात को लेकर है कि फलाभाषा वासी कहीं भी कभी भी अपने भाषा बोली में बात करता हुआ दिख जाएगा और उसको इस बात का गर्व भी है लेकिन बुंदेलखंडी वासियों में ये बात औरों से कम या यूं कहें बहुत कम मात्रा में देखने को मिलेगी । बस ये जो आत्मस्वाभिमान वाली धमक है यही चीज विचारी कहीं दब गई है । हमनें जब वृक्षारोपण किया तो हमनें इस बात पर ग़ौर ही नहीं किया की हम कौन सा पौधा लगा रहें हैं दुर्भाग्य से हमनें आधुनिकता रूपी वट वृक्ष लगा दिया जिसने अपने नीचे विविधता रूपी सांस्कृतिक चेतना को पनपने ही नहीं दिया और ये हमारे वैविध्यपूर्ण वातावरण के लिए खतरनाक बात साबित हो गयी ।
                           

बुंदेलखंड की सांस्कृतिक चेतना की लौ का मद्धम होना !

बुंदेलखंड में सांस्कृतिक चेतना के प्रतिनिधि प्रगतिशील लेखकों की एक समस्या इस बात की भी है कि पाठकों का निरा अभाव और ये इस बात का भी गवाह है कि हम अपने लेखकों के प्रति उनके द्वारा उपलब्ध करायी जा रही बेशकीमती जानकारी वा साहित्यिक गतिविधियों के प्रति कितने बड़े उदासीन हैं । यदि बुंदेलखंड की नई जनरेशन से कवि ईसुरीके बारे में पूंछा जाए तो मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि नब्बे प्रतिशत युवा नहीं बता पाएंगे लेकिन आप बिहार में भिखारी ठाकुर के बारे में पूंछे तो शायद ही कोई होगा जो उन्हें न जानता होगा । कजरी , आल्हा , फ़ाग में रुचि तो अब बस पुराने लोगों को ही है नई जनरेशन फिल्मी सिनेमा के फगुवा में ही परेशान है । और सच मानिए इस सिनेमा से बुंदेलखंड ही नहीं बल्कि पूरे भारत की सांस्कृतिक विरासत को बड़ा तगड़ा नुकसान हुआ है । 
                                 

हमनें जब संवाद की भाषा बदली तो हमारी विचारी बोली उसके भार से दब गई । प्रवास के दिनों अधिकांशतः मैं बुंदेलखंडी में ही बात करता हूँ अब बात करते वक्त सामने वाले की एक कुंठा जरूर उभरती होगी की ये व्यक्ति जरूर गंवार है ! और ये समझने वाली बात है कि उसका ये पूर्वाग्रह किन आधारों पर बात करता है ? भोजपुरी , राजस्थानी , ब्रज , अवध अपनी बोली में बात करें तो बढ़िया लेकिन बुंदेलखंड का बंदा अपनी बोली में बात करे तो वह गंवार ? जहां तक मेरी समझ कहती है इस पूर्वाग्रह का आधार हमारा प्रतिकार न करना है । अपनी भाषा , अपनी संस्कृति के प्रति उदासीन रवैय्या ही हमारी नई पीढ़ी के लिए और दूसरे भाषा क्षेत्री वालों के लिए ही इस प्रकार के पूर्वाग्रह का निर्माण करतें हैं ।
                                   
आप आधुनिक बने रहिये और होना भी चाहिए क्योंकि समय के साथ बदलाव होना चाहिए लेकिन हमारी परंपरा हमारे सांस्कृतिक चेतना का आधार है और परम्परा का निर्वहन बड़े आत्मगौरव का विषय है । अपनी मिट्टी से जुड़े रहना चाहिए क्योंकि हमारी संस्कृति ही हमारी मां है और यदि हम अपनी मां की इज्ज़त नहीं कर सकते तो स्वाभाविक बात है कि हम दूसरों की मां की भी इज्ज़त नहीं कर पाएंगे इसलिए जरूरी है कि हम अपनी साझी विरासत को बड़े आत्मगौरव के साथ स्वीकार करें साथ ही आने वाली पीढ़ी से उसका परिचय करवाएं । 

हमें सजग होना चाहिए कहीं हमारी भाषा हमारी संस्कृति हमारी वेश भूषा किताब के पन्नों तक ही न सिमट जाए । अपनी बोली पर गर्व कीजिये , अपनी संस्कृति के गौरवशाली अतीत का स्मरण रखिये और गर्व से कहिये हम हन बुंदेलखंड सै 🙏

– अभिनव राज त्रिपाठी , चित्रकूट

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