भारतीय समाज में शिक्षकों की भूमिका

भारतीय समाज में शिक्षकों की भूमिका

डॉ. शुभ्रता मिश्रा
भारतीय संस्कृति का एक सूत्र वाक्य प्रचलित है तमसो मा ज्योतिर्गमय इसका अर्थ है अँधेरे से उजाले की ओर जाना। इस प्रक्रिया को वास्तविक अर्थों में पूरा करने के लिए शिक्षा, शिक्षक और समाज तीनों की बड़ी भूमिका होती है। भारतीय समाज शिक्षा और संस्कृति के मामले में प्राचीनकाल से ही बहुत समृद्ध रहा है। भारतीय समाज में जहाँ शिक्षा को शरीर, मन, और आत्मा के विकास का साधन माना गया है, वहीं शिक्षक को समाज के समग्र व्यक्तित्व के विकास का उत्तरदायित्व सौंपा गया है। 
भारतीय शिक्षा का इतिहास भारतीय सभ्यता का भी इतिहास है।  भारतीय समाज के विकास और उसमें होने वाले परिवर्तनों की रूपरेखा में हम शिक्षा के स्थान और उसकी भूमिका को भी निरंतर विकासशील पाते हैं। महर्षि अरविंद ने एक बार शिक्षकों के सम्बन्ध में कहा था कि ”शिक्षक राष्ट्र की संस्कृति के चतुर माली होते हैं। वे संस्कारों की जड़ों में खाद देते हैं और अपने श्रम से सींचकर उन्हें शक्ति में निर्मित करते हैं।’ ‘महर्षि अरविंद का मानना था कि किसी राष्ट्र के वास्तविक निर्माता उस देश के शिक्षक होते हैं। इस प्रकार एक विकसित, समृद्ध एवम् हर्षित राष्ट्र व विश्व के निर्माण में शिक्षकों की भूमिका ही सबसे अधिक महत्वपूर्ण होती है। 
शिक्षा का केंद्रीय घटक विद्यार्थी होता है और उन्हें सही दिशा निर्देशन करनेवाला प्रमुख घटक शिक्षक होता है। शिक्षा के अनेक उद्देश्यों की पूर्ति शिक्षकों के माध्यम से ही होती है। अतः उनको प्रशिक्षित किया जाता है, उनकी सुविधा-असुविधा का ध्यान रखा जाता है। समाज का उनके प्रति कर्तव्य होता है और उनका भी समाज के प्रति उत्तरदायित्व रहता है। शिक्षक अपने दायित्वों का निर्वाह भलीभाँति करने हेतु सदैव तत्पर रहते हैं। शिक्षा में शिक्षक ही सामाजिक विकास का सूत्रधार होते हैं। वास्तव में किसी समाज की अभिलाषा, आकांक्षा, आवश्यकता, अपेक्षा और आदर्शों को सफल बनाने का कार्य शिक्षक ही कर सकते हैं।
भारत के महान शिक्षाविद् डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन जब सन् 1962 में देश के राष्ट्रपति के रूप में पदासीन हुए तो उनके चाहने वालों ने उनके जन्मदिन को “शिक्षक दिवस” के रूप में मनाने की अपनी इच्छा उनके समक्ष प्रकट की। इस पर उन्होंने स्वयं को  गौरवान्वित अनुभव करते हुए अपनी अनुमति प्रदान की और तब से लेकर आज तक प्रत्येक 5 सितम्बर को “शिक्षक दिवस” के रूप में उनका जन्मदिन मनाया जाता है। डॉ. राधाकृष्णन ने शिक्षा को एक मिशन के रुप में देखा और उनके अनुसार शिक्षक होने का अधिकारी वही व्यक्ति है, जो अन्य जनों से अधिक बुद्धिमान व विनम्र हो। उनका कहना था कि उत्तम अध्यापन के साथ-साथ शिक्षक का अपने विद्यार्थियों के प्रति व्यवहार व स्नेह उसे एक सुयोग्य शिक्षक बनाता है। मात्र शिक्षक होने से कोई योग्य नहीं हो जाता बल्कि यह गुण उसे अर्जित करना होता है। शिक्षा मात्र ज्ञान को सूचित कर देना नहीं होती वरन् इसका उद्देश्य एक उत्तरदायी नागरिक का निर्माण करना है। शिक्षा के मंदिर कहे जाने वाले विद्यालय निश्चित ही ज्ञान के शोध केंद्र, संस्कृति के तीर्थ एवं स्वतंत्रता के संवाहक होते हैं। 
डॉ. शुभ्रता मिश्रा
ऐसा माना जाता है कि यदि जीवन में शिक्षक नहीं है तो ‘शिक्षण’ संभव नहीं है। शिक्षण का शाब्दिक अर्थ ‘शिक्षा प्रदान करना’ है जिसकी आधारशिला शिक्षक रखता है। भारतीय समाज में शिक्षक सदैव पूजनीय रहे हैं क्योंकि उन्हें ‘गुरु’ कहा जाता है। परन्तु वर्तमान  सामाजिक व्यवस्थाओं के स्वरूप में आ रहे परिवर्तनों से  शिक्षक भी अछूते नहीं रहे हैं। यह शोचनीय विषय बनता जा रहा है कि आज के समय में शिक्षा का अर्थ मात्र पुस्तकीय ज्ञान और विश्वविद्यालय अथवा संस्थान में अच्छे अंक लाकर एक अच्छी सी नौकरी मिल जाना रह गया है। 
इसमें संदेह नहीं कि शिक्षक भी आम आदमी है। अतः सामान्य व्यक्ति की जो विशेषताएं हैं वहीं शिक्षकीय व्यक्तित्व में भी दृष्टिगोचर होती हैं परंतु कुछ ऐसी विशेषताएं है जो शिक्षक को सामान्यजन से पृथक करती हैं। भारतीय समाज के शिक्षकों में संवेदनशीलता, आत्मीयता, परोपकारी वृत्ति, सहृदयता, ममतामयीता, परदुःखकातरता, मानवतावादी वृत्ति, सीधे-सच्चे, प्रतिष्ठित, सौहार्दता, दया-करुणा, सहानुभूति, संघर्षशीलता, दायित्व के प्रति सजगता, मार्गदर्शकता, प्रवीणता, दक्षता, सक्रियता, मूल्यांकनपरकता, परिवर्तनवादिता, विषय ज्ञान पर असाधारण प्रभुत्व आदि गुण होते हैं। इनकी सहायता से वह समाज में मान-सम्मान और प्रतिष्ठा प्राप्त करता है। समाज भी अपने नौनिहालों के भविष्य के निर्माण का वजन शिक्षकों के स्कन्धों पर डालकर निश्चिंत हो जाता है लेकिन कहीं न कहीं वह शिक्षकों के प्रति अपने दायित्वों को भूल जाता है। वहीं दूसरी ओर शिक्षक अर्थाभाव, पारिवारिक उलझनों और समाज की उदासीनता के बावजूद भी अपने दायित्वों एवं कार्यों के प्रति प्रामाणिक रहने का प्रयास करते रहते हैं। विश्लेषणों से स्पष्ट होता है कि आज के परिवेश में समाज, सरकार और शिक्षा में सुदृढ़ सामंजस्य न होने के कारण शिक्षकों की सामाजिक प्रतिष्ठा में भारी गिरावट आ गई है।
समाज द्वारा शिक्षक पर दायित्वों का बोझ डालना तथा शिक्षक की इस कार्य से मुक्ति पाने के लिए अधिकाधिक धन अर्जन की प्रवृत्ति परोक्ष रुप से संपूर्ण शिक्षा व्यवस्था में अव्यवस्था उत्पन्न कर रही है। अर्थात् समाज शिक्षकों के प्रति उदासीन है और शिक्षक सामाजिक उत्तरदायित्व से दूर भागने के प्रयास में हैं। इस प्रकार की असंतुलित सामाजिक स्थिति समाज और देश  तथा शिक्षकों दोनों के भविष्य के लिए लाभदायी नहीं हो सकती। प्राचीन शिक्षा व्यवस्था में शिक्षक देवता-गुरु-मार्गदर्शक की भूमिका और दायित्व निभाया करते थे परंतु अब शिक्षकों में ऐसी संवेदनशील भावनाएँ कहीं खोती सी जा रहीं हैं। परिवर्तित भूमिका ने शिक्षक को विद्यार्थियों का मित्र अधिक बना दिया है।  
कभी कभी आभास होता है कि शिक्षा की निरंतर बदल रहीं व्यावसायिक नीतियों के कारण भारतीय समाज में शिक्षक अन्याय व अत्याचार के शिकार हो रहे हैं। जहाँ यह माना जाता था कि विद्यार्थियों को पुस्तकीय ज्ञान देने के अलावा उनको सामाजिक जीवन से संबंधित ज्ञान की प्राप्ति करवाना तथा समाज में योगदान देने के लिए समर्थ बनाना शिक्षक का ही उत्तदायित्व होता है। वहीं आज शिक्षक स्वयं को सामाजिक शोषण, दबाव, भय आदि से घिरा हुआ अनुभव करता है। वास्तव में इन गम्भीर सामाजिक परिस्थितियों ने शिक्षकों की भूमिका और दायित्वों को प्रभावित किया है। अतः वे अब अपने उत्तरदायित्वों से पलायन करने लगे हैं। यद्यपि इस स्थिति के लिए समाज, शिक्षा व्यवस्था और वे स्वयं जिम्मेदार हैं। 
स्वामी विवेकानन्द का मानना था कि भारत में ऐसी शिक्षा व्यवस्था होनी चाहिए, जिससे समाज के चरित्र का निर्माण हो, मन की शक्ति में वृद्धि हो, बुद्धि का विस्तार हो और जिसमें व्यक्ति अपने पैरों पर खड़ा हो सके। वास्तविक शिक्षा वह नहीं होती जो कक्षा में शिक्षक के व्याख्यान से शुरू होती है और उसी पर समाप्त हो जाती है। वर्तमान में बदल रहे शिक्षकीय मूल्यों को दृष्टिगत रखते हुए एक ऐसी सुदृढ़ शिक्षा व्यवस्था की आवश्यकता है, जिसमें विद्यार्थियों की सक्रिय सहभागिता हो, जिसमें विद्यार्थी अधिक से अधिक प्रश्न पूछें, जिनके सटीक उत्तरों के लिए शिक्षकों को भी उतना ही अधिक अध्ययन व चिंतन करना पड़े। सर्वश्रेष्ठ शिक्षक वही है जो जीवन पर्यन्त स्वयं विद्यार्थी बना रहता है और इस प्रक्रिया में वह पुस्तकों के साथ साथ अपने विद्यार्थियों से भी बहुत कुछ सीखता है। 
भारतीय समाज में शिक्षकों की बदल रही छवि को हमारे साहित्य और फिल्मों में शिक्षक पात्रों के चरित्र-चित्रण के माध्यम से सरलता से समझा जा सकता है। 20वीं सदी में प्रेमचंद, शरत चंद्र, बंकिम चंद्र, रवींद्रनाथ टैगोर आदि ने अपनी रचनाओं में शिक्षकों को बहुत सकारात्मक रूप में चित्रित किया है। इसी तरह भारतीय फिल्मों में भी स्वतंत्रता के पूर्व और बाद के अनेक दशकों में शिक्षकों को राष्ट्र निर्माता और एक आदर्श नायक के रूप में प्रस्तुत किया गया है। इन फिल्मों के माध्यम से देश के लिए एक कर्मठ व निष्ठावान भावी पीढ़ी तैयार करने वाले शिक्षक पात्र भारतीय युवाओं को एक अत्यंत मूल्यवान संदेश देते थे जिसमें हमारे शाश्वत मूल्यों यथा-न्याय, समानता, भाईचारा और सामाजिक सद्भाव को अक्षुण्ण बनाए रखने की प्रेरणा हुआ करती थी। लेकिन पिछले कुछ दशकों से भारतीय सिनेमा में शिक्षकों को एक हास्यास्पद चरित्र के रूप में प्रदर्शित किया जाने लगा है। इन फिल्मों में शिक्षक को एक सनकी, जिद्दी और तानाशाह के रूप में प्रदर्शित किया जाने लगा है, जो विद्यार्थीयों की मानसिकता से बिल्कुल कटे हुए दिखाए जाते हैं। कुछ फिल्मों जैसे थ्री इडियट्स और मुन्नाभाई एमबीबीएस में प्रिंसिपल को निश्चित रूप में एक नकारात्मक चरित्र के रूप में पेश किया गया था। किसी शिक्षक, प्रिंसिपल या कुलपति को सकारात्मक भूमिका में दिखाने वाली फिल्में जैसे समाप्त ही हो गई हैं। ऐसा भी हो सकता है कि कहीं न कहीं ये फिल्में भारतीय समाज में शिक्षकों के प्रति कम हो रहे सम्मान को दिखाती हैं।
भारतीय समाज में आज शिक्षा से सम्बद्ध समस्याओं ने विराट रुप धारण कर लिया है, जिनका स्थायी समाधान अब सरकार, शिक्षक और समाज के संयुक्त एवं दीर्घकालीन प्रयासों से ही संभव हो सकेगा। आज जो चुनौतियां भारतीय शिक्षा के समक्ष विकराल मुँह धारण किए आईं हैं, उनकी जड़ें बहुत गहरी 60 और 70 के दशकों तक जाती हैं। अतः स्पष्ट है कि भारतीय समाज और सरकार द्वारा शिक्षकों की भूमिका की नए सिरे से मूल्यांकन करने की आवश्यकता है। शिक्षकों में भी आत्मविवेचन की महती आवश्यकता है। उनको नवीन शिक्षण पद्धतियों, सूचना प्रौद्योगिकियों एवम्  21वीं सदी के बदल रहे शिक्षाशास्त्र से समायोजन बिठाना होगा।
भारतीय समाज के प्रत्येक घर तक शिक्षा को पहुँचाने के भागीरथी सरकारी प्रयासों के साथ साथ शिक्षकों की मनःस्थिति का विश्लेषण भी उतना ही अनिवार्य होना चाहिए। शिक्षकों को भी वह सम्मान मिलना चाहिए, जिसके वे अधिकारी हैं। शिक्षक, शिक्षा (ज्ञान) और विद्यार्थी के बीच एक सेतु का कार्य करता है और यदि यह सेतु ही निर्बल होगा तो समाज को खोखला होने में देरी नही लगेगी। आज प्राथमिक व माध्यमिक शिक्षा की आधारभूत संरचना व प्रवीण व सुयोग्य शिक्षकों की भर्ती पर सर्वाधिक ध्यान देने की आवश्यकता है।  एक समर्पित और निष्ठावान शिक्षक ही देश की शिक्षा-प्रणाली को सुंदर व सुदृढ़ बना सकता है। इसके लिए समाज को भी शिक्षकों को एक सम्मानजनक स्थान देना होगा जिससे 21वीं सदी के ज्ञानोन्मुख समाज के लिए हम उनको सही ढंग से प्रशिक्षित और प्रेरित कर पाएंगे। तभी एक ऐसे भारत के निर्माण की ईमानदार कोशिश हो सकेगी जो निरक्षरता, भ्रष्टाचार, गरीबी भुखमरी व मूल्यों में निरन्तर पतन जैसे कलंको से मुक्त होगा और जहाँ शिक्षा का तात्पर्य मात्र धन-ऐश्वर्य का अर्जन न होकर, देश के प्रति सच्चा प्रेम व सेवाभाव भी होगा। 

डॉ. शुभ्रता मिश्रा वर्तमान में गोवा में हिन्दी के क्षेत्र में सक्रिय लेखन कार्य कर रही हैं । उनकी पुस्तक “भारतीय अंटार्कटिक संभारतंत्र” को राजभाषा विभाग के “राजीव गाँधी ज्ञान-विज्ञान मौलिक पुस्तक लेखन पुरस्कार-2012” से सम्मानित किया गया है । उनकी पुस्तक “धारा 370 मुक्त कश्मीर यथार्थ से स्वप्न की ओर” देश के प्रतिष्ठित वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली से प्रकाशित हुई है । इसके अलावा जे एम डी पब्लिकेशन (दिल्ली) द्वारा प्रकाशक एवं संपादक राघवेन्द्र ठाकुर के संपादन में प्रकाशनाधीन महिला रचनाकारों की महत्वपूर्ण पुस्तक “भारत की प्रतिभाशाली कवयित्रियाँ” और काव्य संग्रह “प्रेम काव्य सागर” में भी डॉ. शुभ्रता की कविताओं को शामिल किया गया है । मध्यप्रदेश हिन्दी प्रचार प्रसार परिषद् और जे एम डी पब्लिकेशन (दिल्ली) द्वारा संयुक्तरुप से डॉ. शुभ्रता मिश्रा के साहित्यिक योगदान के लिए उनको नारी गौरव सम्मान प्रदान किया गया है।

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