भाषा और आत्मनिर्भर भारत

भाषा और आत्मनिर्भर भारत

वैश्विक पटल की ओर बढ़ता जा रहा है
नित – नित नए आयाम गढ़ता जा रहा है
गौरवमय इतिहास फिर दोहरा रहा है
विश्वगुरु भारत शिखर चढ़ता जा रहा है।”
आत्मनिर्भर-भारत वह अवधारणा है जो भारत को उसके स्वावलंबी रूप में परिभाषित करती है। पारिभाषिक रूप से देखें तो आत्मनिर्भरता का तात्पर्य होता है – किसी वस्तु अथवा कार्य हेतु स्वयं पर निर्भर रहना । सामान्य जीवन में भी व्यक्ति को विकसित व पूर्ण तभी माना जाता है, जब वह काफी हद तक स्वयं पर आश्रित हो जाता है। उसे अपनी ज्यादातर आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए किसी और पर निर्भर नहीं रहना पड़ता है और इसी स्थिति में उसे ज़िम्मेदार और काबिल भी माना जाता है। बात चाहे व्यक्ति की हो अथवा देश की, कोई भी समाज सही मायने में तभी विकसित हो सकता है जब वह पूर्णत: स्वयंसिद्ध हो, उसकी सभी आवश्यकताओं की पूर्ति के संसाधन सुलभ हों तथा उसे किसी और पर आश्रित होने की आवश्यकता न हो। 
भारत वह देश है जिसने विश्व को बड़े -बड़े आविष्कार प्रदान किए हैं। धर्म, दर्शन, विज्ञान, वास्तु, ज्योतिष, खगोल, स्थापत्य कला, नृत्य कला, संगीत कला आदि सभी तरह के ज्ञान का जन्म भारत में हुआ है। प्राचीन समय से भारत अपने विशाल धन, खनिज, मसाले, सोने और प्राकृतिक संसाधनों के एक विशाल विस्तार के कारण अंतर्राष्ट्रीय सुर्खियों में रहा है। यही कारण है कि भारत को एक समय में ‘सोने की चिड़िया’ के रूप में जाना जाता था।  इसी अथाह धन का फायदा उठाने के लिए कई देशों के राजवंशों ने बार-बार भारत पर आक्रमण किया जिनमें कुषाण, हुण, अफ़गान, तुर्क, खिलजी, लोधी, मुगलों तथा अंग्रेज शामिल थे। 
भाषा और आत्मनिर्भर भारत

हमारा भारत देश इतना सक्षम, प्रबुद्ध व कुशल रहा है जो न जाने कितने देशों के विकास का कारण तथा साम्राज्यों के विस्तार की नींव रहा है। आज यह विडम्बना विचित्र है कि इस महान राष्ट्र को अपने विकास की आधारशिला स्वयं बनने या न बनने का प्रश्न प्रासंगिक हो गया है।  यह प्रश्न वास्तव में भारत के प्रत्येक नागरिक को स्वयं से पूछना चाहिए कि क्या वह अपने लिए प्रगति का पथ स्वयं प्रदर्शित नहीं कर सकता है? 

आत्मनिर्भर-भारत की संकल्पना वस्तुत: एक काल्पनिक विचार ही नहीं बल्कि हमारे राष्ट्र की आधारशिला रखने वाले सभी स्वतंत्रता सेनानियों के आशाओं व अपेक्षाओं की अभिव्यक्ति है । स्वतंत्रता दिवस के साथ जिस आत्मनिर्भर-भारत का लक्ष्य देश के सामने रखा गया है, उसका उद्देश्य भारत में उपलब्ध  संसाधनों को भारत में ही यथासंभव उपयोग में लाना है। भारत में अधिक उद्योगों को सुचारू करना और यहां के हर युवा को रोज़गार के लिए अग्रेषित करना और आत्मनिर्भर बनाना है। 
अर्थव्यवस्था, अवसंरचना, प्रौद्योगिकी, गतिशील जनसांख्यिकी व मांग जैसे पाँच स्तंभों पर सुशोभित आत्मनिर्भर-भारत योजना में भाषा की एक बहुत ही अहम भूमिका है। शिक्षा, रोज़गार, तकनीक, अर्थव्यवस्था तथा सुरक्षा जैसे विविध विषयों का विश्लेषण क्या भारतीय भाषाओं के बिना पूर्ण हो सकता है? कदापि नहीं। विकास की इस रफ्तार ने जहां ठहरकर एक विश्लेषण स्वावलंबन के विचार पर किया है, वहीं एक विचार भारत की भाषाओं पर होना भी तो आवश्यक है। जब सब कुछ अपना होने की बात हो रही है तो भाषा भी तो अपनी ही होनी चाहिए। आत्मनिर्भरता का आधार भारत की भाषाओं से इतर कोई भाषा हो यह कभी भी शोभनीय नहीं है। अपनी भाषा को छोड़कर अन्य भाषाओं के प्रयोग से हम आत्मनिर्भर नहीं बन सकते, हम आश्रित ही रह जाएंगे। वह उपलब्धि ही क्या जिसका वर्णन करने के लिए किसी और की भाषा का सहारा लेना पड़े। संस्कृत में कहा गया है: 
“मातृभाषां परित्यज्य येऽन्यभाषामुपासते,
तत्र यान्ति हि ते यत्र सूर्यो न भासते”
अर्थात जो अपनी मातृभाषा का परित्याग करके, किसी और भाषा की उपासना करता है, वह अंधकार के उस गर्त में जा पहुंचता है, जहां सूर्य का प्रकाश भी नहीं पहुंचता है। 
भाषा के अभाव में देश व समाज दोनों की ही कल्पना संभव नहीं है। भाषा केवल सम्प्रेषण का माध्यम, संचार का सेतु अथवा विचारों की अभिव्यक्ति ही नहीं है बल्कि भाषा एक देश की वाणी है। अपनी भाषा की उपेक्षा का अर्थ स्वयं अपने अस्तित्व को ही नकारना है। भाषा के संदर्भ में भारत विश्व का अग्रणी देश है। भारत विश्व का एकमात्र ऐसा देश हैं जहाँ 1000 से अधिक भाषाएँ हैं एवं आधिकारिक रूप से 22 भाषाओं को मान्यता प्राप्त हैं। संस्कृत विश्व की सबसे प्राचीन व वैज्ञानिक भाषा है एवं समस्त भारतीय भाषाओं की जननी है। ‘संस्कृत’ का शाब्दिक अर्थ है “संस्कार पूर्ण” और “संस्कृत भाषा” का अर्थ संस्कारित भाषा यानी ‘परिपूर्ण भाषा’। पहली बार व्याकरण की रचना भी संस्कृत भाषा की उत्पत्ति के बाद ही हुई और इस प्रकार पहला भाषाकोष भी संस्कृत भाषा के लिए ही निर्मित हुआ। 
संस्कृत भाषा के व्याकरण ने विश्वभर के भाषा विशेषज्ञों का ध्यानाकर्षण किया है। उसके व्याकरण को देखकर ही अन्य भाषाओं के व्याकरण विकसित हुए हैं। आधुनिक वैज्ञानिकों के अनुसार यह भाषा कम्प्यूटर के उपयोग के लिए सर्वोत्तम भाषा है। मात्र 3,000 वर्ष पूर्व तक भारत में संस्कृत बोली जाती थी तभी तो ईसा से 500 वर्ष पूर्व पाणिनी ने दुनिया का पहला व्याकरण ग्रंथ लिखा था, जो संस्कृत का था। इसका नाम ‘अष्टाध्यायी’ है। भारत में आज जितनी भी भाषाएं बोली जाती हैं, वे सभी संस्कृत से जन्मी हैं जिनका इतिहास मात्र 1500 से 2000 वर्ष पुराना है। उन सभी से पहले संस्कृत, प्राकृत, पाली, अर्धमागधि आदि भाषाओं का प्रचलन था।  
भारत विविधता में एकता को स्थापित करने वाला देश है। भारत में जितनी महत्वपूर्ण हिंदी है उतनी ही तमिल, तेलुगु, कन्नड़, पंजाबी, डोगरी, बोडो, मलयालम, बंगला, असमिया, मराठी और कश्मीरी जैसी भाषाएँ भी हैं। यदि हिंदी राजभाषा रूपी धारा है तो अन्य प्रादेशिक भाषाएं भी कवेरी, सतलज और ब्रह्मपुत्र की धाराएं हैं। जैसे सभी नदियां बहते हुए अंत में एकीकृत हो जाती हैं उसी तरह से भारत की सभी भाषाओं का मिलान भी निरंतर होता रहता है। भारतीय संस्कृति और समाज के विकास में किसी के योगदान को नकारा नहीं जा सकता है। 
इसी विचार को प्रतिपादित करते हुए सुब्रह्मण्यम भारती ने कभी कहा था:-
‘‘भारत माता भले ही 18 भाषाएं (अब 22 हो गई हैं) बोलती हों, फिर भी उसकी चिंतन प्रक्रिया एक ही है।’’
वर्तमान परिदृश्य में जिस प्रकार प्रतिस्पर्धात्मक होड़ में हम दूसरे देशों का अनुकरण करने लगे हैं, उनके द्वारा उत्पादित वस्तुओं और सेवाओं को श्रेष्ठ समझने लगे हैं, इसने हमारे देश की जन-संस्कृति में एक प्रकार का हस्तक्षेप उत्पन्न कर दिया है। इस हस्तक्षेप का भारतीय समाज पर प्रभाव स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। इसने लोगों में मूल्यों से अधिक सुख-सुविधाओं के प्रति मोह बढ़ा दिया है। सांस्कृतिक और भाषाई चेतना धीरे-धीरे बदलती या गायब होती जा रही है। ऐसे में आत्मनिर्भरता की अवधारणा में सांस्कृतिक और भाषाई चेतना को जोड़कर आगे बढ़ना बहुत जरूरी है। आत्मनिर्भर-भारत में संस्कृतियों की अभिव्यक्ति देश की अस्मिता का द्योतक है। इन संस्कृतियों का अंतर्संबंध वह सूत्र है जो भारत को एक देश के रूप में स्थापित करता है। संस्कृतियों की तरह भाषाई अंर्तसंबंध भी है, लेकिन इस अंतर्संबंध को हमने कभी गहराई से समझने का प्रयत्न नहीं किया है। इस अंतर्संबंध को समझने के लिए अंग्रेजी जैसी पश्चिमी भाषाएँ कभी माध्यम नहीं बन सकती है। 
 
गांधी जी का कथन था कि:-
‘‘आप और हम चाहते हैं कि करोड़ों भारतीय आपस में अंतर्प्रान्तीय संपर्क कायम करें। स्पष्ट है कि अँग्रेजी के द्वारा दस पीढ़ियां गुजर जाने के बाद भी हम परस्पर संपर्क स्थापित न कर सकेंगे।’’
स्पष्ट है सात दशक व्यतीत हो जाने के बाद भी गांधी जी द्वारा महसूस किया गया भाषाई संकट आज उससे कहीं अधिक गहरा हो गया है। हम भले ही इसे राजनीतिक षडयंत्र या स्वार्थ का परिणाम बताएं लेकिन सच यह भी कि हिंदी और हिंदीतर (हिंदीएतर) भाषाओं का आपसी भाईचारा कायम करने में पश्चिमी भाषाओं का मोह सबसे बड़ा बाधक रहा है। ऐसे में डॉ. रामविलास शर्मा का यह कथन कितना प्रासंगिक हो जाता है:- 
‘‘हिंदी अंग्रेजी का स्थान ले, इसकी बजाय यह वातावरण बनाना चाहिए कि सभी भारतीय भाषाएं अंग्रेजी का स्थान लें।’’
विकास के पहिये पर आज जिस प्रकार हम दूसरे देशों के निर्देशित पथ पर अग्रसर हैं, इसमें भूमंडलीकरण और उदारीकरण के नाम पर अंग्रेजी जैसी विदेशी भाषाओं का अवांछित पुट व कृत्रिमता भारतीय भाषाओं की मौलिकता और नवीनता को समाप्त करने का कार्य करने लगी हैं। हिन्दी का हिंग्लिश के रूप में प्रचलित होना इसका एक ज्वलंत उदाहरण है। ऐसे में यदि हमारी भाषाएं अपनी मूल प्रवत्ति से ही दूर होती चली गई तो अन्य भाषाओं के साथ इनके अंतर्संबंध पर भी संकट बढ़ता जाएगा। स्वतंत्रता के 74 वर्षों के बाद आज जब हम हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के संबंधों का अवलोकन करते हैं तो पाते हैं कि यह संबंध सुदृढ़ होने की जगह निरंतर कमजोर हुए हैं। हिंदी वालों को तमिल, तेलगू, कन्नड़, पंजाबी और उड़िया शब्द-संस्कृति में तैरने की जगह अंग्रेजी के जाल-जंजाल में फँसना अधिक भाता रहा है। इस बिडम्बना और संकट को वर्षोंपूर्व हिंदी के महान् उन्नायक  फादर डॉ.कामिल बुल्के ने समझ लिया था। 
डॉ. बुल्के कहते हैं:
– ‘‘भारत पहुँचकर मुझे यह देखकर दुःख हुआ कि बहुत से शिक्षित लोग अपनी ही संस्कृति से नितांत अनभिज्ञ हैं और अंग्रेजी बोलना तथा विदेशी सभ्यता में रंग जाना गौरव की बात समझते हैं।’’
आत्मनिर्भर-भारत का जो स्वप्न हमने देखना प्रारंभ किया है, उसमें आत्मविश्वास अपनी भाषा से सतत जुड़ाव से ही मिल सकता है। आत्मनिर्भर-भारत का भौतिक पक्ष – लोक दक्षता, देशज ज्ञान, स्थानीय उत्पादों को महत्व देने पर टिका हुआ है। इस पक्ष को भी मातृभाषाओं एवं आत्म भाषाओं से जुड़ा नागरिक ही मजबूत कर सकता है। ऐसा ही नागरिक उन्हें जानकर, उनकी प्रक्रियाओं को अंकित कर उन्हें भारत में बढ़ते बाजार से जोड़ पाएगा। सबसे बड़ी बात है कि जो उन देशज कौशल को जियेगा, उनका मूल्य समझेगा, वही दूसरों को भी उन्हें महत्व देने के लिए तैयार कर सकता है।
अन्नू मिश्र
अन्नू मिश्र 

हमारे देश द्वारा अपनाई जा रही नई शिक्षा नीति-2020 भी मातृभाषा व स्थानीय भाषा के प्रयोग पर ज़ोर देती है। नई शिक्षा नीति-2020 में पांचवीं कक्षा तक आवश्यक रूप से मातृभाषा एवं स्थानीय भाषा में शिक्षा देने का प्रावधान किया गया है। कोई चाहे तो आठवीं कक्षा तक या उसके बाद भी अपनी मातृभाषा एवं स्थानीय भाषा में शिक्षा ग्रहण कर सकता है। संस्कृति की भाषा और शिक्षा की भाषा के एक होने के महत्व को अब बड़े स्तर पर आँका जा रहा है। हर मातृभाषा एवं स्थानीय भाषा अपने साथ एक विशेष जीवन मूल्य, जीवन अनुभव, ज्ञान संस्रोत लिए रहती है। स्वदेशी भाषाओं में शिक्षा और कामकाज को बढ़ावा मिलने से सभी भारतीय भाषाओं के बीच आवाजाही बढ़ेगी। भाषाओं में सीधे आपसी अनुवाद को बढ़ाकर हम अपने बौद्धिक समाज को भी ताकत देंगे। 

किसी भी देश की उन्नति के लिए उस देश की मुख्य भाषा की अनदेखी तर्कसंगत नहीं है। अपनी भाषा में न्याय, शिक्षा, स्वास्थ्य, व्यापार का होना राष्ट्रीय एकता के साथ-साथ हमारी आर्थिकी को भी मजबूत करेगा। आज विश्व के सभी विकसित व शक्तिशाली देश भाषा के दबदबे से विश्व शक्ति के रूप में प्रतिष्ठित हैं। वास्तव में जिस भाषा में हम सहज होते हैं, जिस भाषा में हम सोचते, अभिव्यक्ति करने में सक्षम होते हैं, उसी में काम करने से बेहतर परिणाम मिलते हैं। हमारी आत्मनिर्भरता की एक कुंजी हमारी भाषाओं में छिपी है। देश के विकास के साथ अपनी भाषा का भी महत्व है। विकास यदि प्रौद्योगिकी क्षेत्र का हो, तो उसमें भाषा का प्रवेश होता है। विकास यदि व्यापार के क्षेत्र का है, तो वैश्विक चलन में भाषा प्रवेश कर जाती है। पूंजी-निवेश के अनुपात में भाषा के उपयोग का अनुपात बढ़ता है। इसलिए भारतीय भाषाओं का विकास भारत के अपने विकास पर निर्भर है। हिन्दी भारत में सार्वधिक प्रयुक्त होने वाली संपर्क भाषा है। यदि वैश्विक बाजार में भारत की भूमिका बढ़ेगी, तो निश्चित रूप से हिंदी का दायरा भी बढ़ेगा। इस तरह हम अंग्रेजी भाषा पर अनावश्यक आश्रित होने से मुक्त हो सकते हैं।
हमारी भाषाएं संघर्ष की भाषाएं हैं, विशेष रूप से हिंदी। इसका जन्म ही आंदोलन से हुआ है। अपनी भाषा से विश्वास बढ़ता है। विश्वास से आत्मविश्वास और आत्मविश्वास से आत्मनिर्भरता आती है। आज के संदर्भ में यह और भी महत्त्वपूर्ण है। वैश्विक फलक पर अपने देश की उपस्थिति को और अधिक मजबूत बनाने के लिए अपनी भाषा और संस्कृति की एकजुटता प्रकट करनी होगी। आत्मनिर्भर-भारत के चित्र को कैनवस पर उतारने के लिए स्वदेशी भाषाओं के रंगों का समावेशन आवश्यक भी है और अनिवार्य भी। 
“देश में मातृ भाषा के बदलने का परिणाम यह होता है कि नागरिक का आत्मगौरव नष्ट हो जाता है, जिससे देश का जातित्व गुण मिट जाता है।“ – सैयद अमीर अली मीर




– सुश्री अन्नु मिश्रा 
हिन्दी अधिकारी 
उत्तरी क्षेत्र पाइपलाइन्स 

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