लक्ष्मी पूजन

लक्ष्मी पूजन 


दीपावली का अवसर था ӏ गाँव के सभी घरों में दीपावली पर्व की रौनक छाई हुई थी ӏ गाँव में छोटी बड़ी सभी दूकानों पर अलग-अलग तरह के पटाखों, फुलझड़ियों, अनार व रोकेटो के ढेर लगे हुए थे ӏ लेकिन पांच  वर्षीय विवेक उदास मुहं से घर में दस्तक देता है ӏ  वह जैसे ही घर में प्रवेश करता है, उसकी माँ उसे आवाज देते हुए कहती है, “ आ गया मेरा राजा बेटा ӏ चल इधर आ ӏ तेरा मुहं यूं उदास क्यों है?“ 
“ कुछ नहीं माँ बस यूँही ӏ  क्या तुम मुझे पटाखे दिला सकती हो?“, छोटे से विवेक ने अपनी माँ से हिचकिचाते हुए पुछा ӏ
`क्यों नहीं ये ले 20 रुपये और जो पटाखे तुझे अच्छे लगे जाके ले आ ӏ`, उसकी माँ उसे बीस रूपये का एक नोट देते हुए कहती है ӏ
लक्ष्मी पूजन
लक्ष्मी पूजन
विवेक बीस  रूपये लेकर खुश हो जाता है ӏ  वह जब दौड़ता हुआ दूकान की तरफ जाता है, तो अचानक बिच रास्ते में उसे उसका पिताजी हरिराम मिल जाता है ӏ वह उससे पूछता है, `ये पैसे किसने दिए रे तुझे?`  
 `माँ ने`, विवेक ने  मुस्कुराते हुए कहा ӏ 
“ ला इधर ला नालायक कही का ӏ पैसे पेड़ पर उगते है क्या?“, फिर वह झपट्टा मारकर विवेक से पैसे छीन लेता है ӏ   “ऐ! कुलछनी तेरे पास इसे देने के लिए बीस रूपये आ गए और मेरे लिए बिल्कुल नहीं ӏ“, हरिराम ने घर में आकर अपनी पत्नी से क्रोधित होकर कहा ӏ 
“मेरे पास दारू के लिए पैसे नहीं है ӏ “
“क्या कहा तेरी तो मैं?“,   फिर वह लक्ष्मी के दो चार लातो की मारता है ӏ बेचारी लक्ष्मी चीखे मारती है ӏ  वह उससे बाकि के पांच सौ रूपए भी छीन लेता है ӏ पैसे छिनने के बाद वह दारू के ठेके की तरफ निकल पड़ता है ӏ लक्ष्मी आँगन में निढाल होकर गिर पड़ती है ӏ विवेक उसे पानी पिलाता है ӏ फिर वह उसके आंसू पोंछते हुए कहता है,“ माँ!  आप बाबा को पैसे दे देती ӏ मुझे नहीं छोड़ने हैं  पटाखे वटाखे ӏ “ 
यह पहला मौका नही था जब  हरिराम ने लक्ष्मी को पीटा था ӏ इससे पहले भी उसने लक्ष्मी की काफी बार पिटाई की थी ӏ वह इसी तरह आए दिन पैसो के लिए  लक्ष्मी की पिटाई करता रहता था ӏ कमाता-धमाता बिल्कुल भी नहीं था ӏ उल्टा जो कोई लक्ष्मी नरेगा से कमाकर लाती, वह उन्हें भी दारू पीने के लिए छीन लेता ӏ जब लक्ष्मी पैसे नहीं देती तो उसकी बेहरमी से पिटाई करने लग जाता ӏ जब पिटाई करने का कोई बहाना नहीं होता तो चरित्रहीन होने का लाछन लगाकर उसकी पिटाई करने लग जाता ӏ कभी पडौस के रामचंद्र का नाम लगाता तो कभी सुधेश का ӏ   यूँ समझ लो सीता सी पवित्र स्त्री पर यह रावण  जुल्म ढहाने की कोई कसर नहीं छोड़ता ӏ आज भी सभी मौहल्ले वासियों ने उसकी चीख-पुकार सुनी पर किसी ने भी ध्यान नहीं दिया ӏ सभी को अपने काम से मतलब जो था ӏ वह इस पुरुष प्रधान समाज में अकेली महिला थोड़े ही थी ӏ अन्य भी बहुत सी महिलाऐं उसके पडौस में रहती थी ӏ लेकिन मियां-बीबी के झगड़े में आखिर कौन सरीख होए? वैसे भी उन मौहल्ले वासियों के पास करने को बहुत से काम थे ӏ वे अपने घर में दिवाली के पकवान बनाने में व्यस्त हो गए ӏ 
लेकिन लक्ष्मी के  घर के चूल्हे में अब तक आग नहीं जली थी ӏ उस बेचारी के लिए तो त्यौहार का मतलब ही दरिंदगी से पिटाई खाना था ӏ वह बेचारी और कर भी क्या सकती थी? इस बलिष्ठ पुरुषो के समाज में वही तो एक मात्र कमजोर इन्सान थी ӏ पर फिर भी रामचंद्र को उसकी दशा पर कभी-कभी दया आ जाती थी ӏ वह अपनी पत्नी से चोरी छुपे उसकी आर्थिक मदद कर देता था ӏ लेकिन उसकी इस  आदत का कभी-कभी लक्ष्मी को विपरीत परिणाम भी भुगतना पड़ता था ӏ आज जब शाम के चार बज गए तो रामचंद्र ने विवेक को दीवार के पास बुलाकर पांच  सौ रुपये दे दिए ӏ  पहले तो लक्ष्मी ने पैसे लेने से मना कर दिया ӏ  लेकिन रामचन्द्र के आग्रह करने पर वह मान गई ӏ उसने उन पैसो से कुछ घी, शक्कर, चावल आदि ख़रीदे व बचे हुए कुछ पैसो से विवेक को पटाखे दिला दिए ӏ वह पहले तो पटाखे नहीं लेना चाहता था ӏ लेकिन वह भी तो आखिर कब तक ना  करता ӏ  उसका अबोध मन उसके बस में नहीं था ӏ उसने कुछ पटाखे खरीदे और खुश होकर छोड़े भी ӏ 
अब शाम के आठ बज गए थे ӏ  लक्ष्मी ने माता लक्ष्मी की पूजा की ӏ भोग लगाया व शुभ मंगल की कामना की ӏ इतने में शराब के नशे में धूत लक्ष्मी का पति घर में आ धमका ӏ  उसने जी भर कर मिठाई खाई और जैसे ही उसे आभास हुआ की जो चंद पैसे लक्ष्मी के पास थे ӏ  उनको तो वह दारू पिने के लिए ले गया था, तो भला ये पैसे कहाँ से आए ӏ उसने क्रोधित होकर लक्ष्मी से पुछा,“ ये मिठाई के पैसे कहाँ से आए?“
 “रामचंद्र चाचा ने दिए थे पिताजी I“  वह पांच वर्षीय नासमझ बालक अपनी जबान पर लगाम नहीं लगा सका ӏ “ क्या रे? कुलछनी तूं नहीं सुधरेगी ӏ ऐसा क्या है उस साले रामचंद्र में जो मुझमे नहीं है? तुझे तो मैं भी खुश कर सकता हूँ ӏ“, हरिराम ने क्रोधित होकर लक्ष्मी से कहा ӏ “ यूँ मुझ पर लाछन न लगाओ I वरना….“ 
“ वरना क्या? “ फिर वह पुन: लक्ष्मी को पीटने लग जाता है I “तेरी तो मैं ӏ तूं नहीं सुधरेगी, कुलछनी I“  फिर वह लक्ष्मी को लातो घुसो से पिटना शुरू कर देता है ӏ  आख़िरकार क्रोधित होकर वह उसका गला पकड़ लेता है ӏ वह गले पर जोर लगाना शुरु कर देता है ӏ लक्ष्मी के पांव कुछ देर तक तो हिलते हैं लेकिन  थोड़ी देर बाद उसके पांव हिलाना बंद कर देते हैं ӏ  उसकी  नाक से खून बहने लग जाता है ӏ उसकी हिरनी की सी आँखे बाहर निकली हुई सी दिखाई देती हैं ӏ वह अब निढाल हो चुकी थी ӏ जैसे ही हरिराम को आभास  हो जाता है कि  लक्ष्मी अब मर चुकी है तो वह सरपंच साहब के घर की तरफ दौड़ पड़ता है ӏ वह  लक्ष्मी को फर्श पर निढाल पड़ी ही छोड़ जाता है ӏ  पांच वर्षीय अबोध बालक विवेक लक्ष्मी को खड़ा करने की कोशिश करता है ӏ  लेकिन लक्ष्मी तो वहां चली गई थी, जहाँ से वापस आना उसके बस की बात नहीं थी ӏ  विवेक की आँखे रोते-रोते पथरा सी गई थी ӏ  आस-पड़ोस के लोग लक्ष्मी पूजन में वयस्त थे ӏ उन्हें लक्ष्मी की मृत्यु  के बारे में पता नहीं चलता  है ӏ  विवेक अपनी माँ को अब भी खड़ा करने की कोशिश करता है लेकिन वह खड़ी नहीं होती है ӏ लक्ष्मी का कोमल शरीर अब अकड चूका था ӏ विवेक को कुछ समझ नही आ रहा था की उसकी माँ के साथ क्या हुआ है?  लक्ष्मी की देह की ठीक बाई तरफ लक्ष्मी माता का दीपक अब मंद पड़ चूका था ӏ लक्ष्मी माता को चढ़ाया गया प्रसाद बिखर चूका था ӏ वह रात भर सिसकियाँ लेता रहा लेकिन कोई भी उसे सँभालने वाला नहीं था ӏ वह अपनी मृत माँ के पास पूरी रात इस आश में बैठा रहा की कुछ ही क्षण बाद उसकी माँ खड़ी होगी और उसे प्यार से कहेगी की “ मेरा राजा बेटा क्यों रो रहा है? तुझे क्या चाहिए?“ लेकिन अब उसे पटाखे या खिलौने नहीं चाहिए थे ӏ उसे तो वो माँ चाहिए थी जो उसे गले लगाकर चूम सके और उसके घुंघरालू बालो में हाथ फिराकर उसे सूला सके ӏ लेकिन अब इन बातों के कोई मायने नहीं रहते हैं ӏ उसकी माँ अब मर चुकी थी ӏ 
  अगली सुबह गाँव में पुलिस आती है और  सरपंच साहब के कहने पर औपचारिकता पूरी करके चली जाती है ӏ लक्ष्मी का पंचनामा भी नहीं किया जाता है क्योंकि आखिर गाँव की इज्जत का जो सवाल था ӏ   हरिराम को सरपंच साहब दो चांटे मरते हैं ӏ वह दिखावटी आंसू  बहाता है ӏ वे उसे विवेक की देखभाल के लिए उसे बख्स देते हैं ӏ कुछ घंटो बाद लक्ष्मी की अंतिम विदाई की तैयारिया  शुरू की जाती है ӏ उसे आखिरी बार नहलाया जाता है ӏ उसे मेहँदी लगाई जाती है ӏ उसके बाल सवाँरे जाते है तथा मांग में सिन्दूर भी लगाया जाता है ӏ क्योंकि वह किस्मत वाली जो थी ӏ उसके पति के जिन्दा रहते जो मरी थी वह  वह सुहागिन जो थी ӏ लेकिन दो हजार की आबादी वाले गाँव में किसी भी पुरुष या महिला की यह कहने की हिम्मत नही हुई की मत करो ये ढोंग ӏ ये दिखावा, ये छलावा ӏ आखिर कब तक ऐसे ही इस नपुंसक समाज के द्वारा स्त्रियों की बलि ली जाएगी ӏ लेकिन विवेक की पथराई हुई आँखे जरुर ये बयां कर रही थी की उसकी माँ की हत्या करने वाला कातिल केवल उसका पिता ही नहीं ये सारा नपुंसक समाज था ӏ  उसके दिमाग में बस एक प्रश्न  कौंध रहा था की आखिर कब तक ये दिखावटी लक्ष्मी पूजन की परम्परा इस देश में चलती रहेगी?     
  -राजेन्द्र कुमार शास्त्री ( गुरु ) 
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