विश्व पटल पर हिंदी की कामना

विश्व पटल पर हिंदी की कामना

महात्मा गाँधी के लाखों प्रयासों के बावजूद भी हिंदी हमारी राष्ट्रभाषा नहीं बन सकी. क्योंकि तामिल का हिंदी से हमेशा ही होड़ रहा. उत्तर में हिंदी का जो स्थान था, वह दक्षिण में तमिल के पास था. इस तरह तमिल व हिंदी के फसाद ने देश को उत्तरी भारत व दक्षिणी भारत में बाँट दिया था. फर्क इतना जरूर था कि सारा उत्तर भारत हिंदी के प्रति रुझान रखता था, जबकि दक्षिण भारत के काँग्रेसी, खासकर जो लोग गाँधी जी के सान्निध्य में थे, उनमें से कई लोग हिंदी की तरफ झुकाव रखते थे. यह तो मात्र राजनैतिक कारण था.

राष्ट्रभाषा शब्द का आविष्कार किसने किया यह तो पता नहीं पर ज्यादातर जोर गाँधीजी की तरफ से रहा कि हिंदुस्तानी हमारी राष्ट्रभाषा होनी चाहिए. लेकिन अंग्रेजों के पैदा किए हिंदू- मुस्लिम विवाद के कारण काँग्रेस के ही कई नेता गाँधीजी के विरोध में हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने  के पक्षधर थे. अंतः गाँधी जी को ही झुकना पड़ा. 
जैसे पहले कभी सुना है कि पटेल जी के प्रधान मंत्री बनने में मो.जिन्ना को आपत्ति नहीं थी किंतु गाँधीजी के नेहरू प्रेम में जिन्ना बिदक कर पाकिस्तान की माँग करने लगे थे. यदि यह सत्य है तो हो सकता है कि उसी तरह गाँधी जी के हिंदुस्तानी के साथ सारे देश के मुसलमान चल पड़ते, किंतु हिंदी के लिए झुक जाने पर वे सब अलग हो गए हों. इसके चलते हिंदी की सक्षमता तमिल से भिड़ने में कमती गई. हिंदुस्तानियों की तादाद के साथ हिंदी, तमिल से बाजी मार ले जाती, किंतु ऐसा नहीं हुआ.

राष्ट्रभाषा शब्द काँग्रेस के अधिवेशनों से ही शुरु हुआ और राजनीतिक कारणों से भी इसका विरोध भी हुआ. इस शब्द के लोगों ने इतने अर्थ निकाल लिए कि सारा माहौल संशयात्मक होता गया. आज हर कोई अपना राग अलापता है किंतु आज तक देश में किसी भी भाषा को राष्ट्रभाषा का दर्जा नहीं मिला है. स्वतंत्रता के बाद जब एक भाषा को विशेष स्थान देने की बात चली, तब भी संविधान निर्माताओं ने राष्ट्रभाषा को न चुनकर, एक नया शब्द राजभाषा ईजाद किया ताकि राष्ट्रभाषा से जुड़े अर्थ संबंधी विकार आगे बढ़कर संशयात्मक स्थिति न पैदा कर दें. उस पर हमारे नेताओं को दुहाई दें कि आज तक वह हिंदी न ही राष्ट्रभाषा बन पाई है और न ही सही तरीके सा राजभाषा. सरकारों ने हिंदी के नाम से खूब वोट बटोरा, लेकिन किया – धरा कुछ दिखता ही नहीं. खासकर हिंदी विरोधियों ने तो इसका बखूबी दोहन किया. हर जगह हिंदी विरोधी एक तबका सा खड़ा हो गया. तमिलनाड़ु में तो हिंदी के समाचार भी बंद कर दिए गए थे.

इन सबके बावजूद भी हिंदी के घोर समर्थक हिंदी को राष्ट्रभाषा कहने से नहीं थकते. न जाने उनके मन में क्या है कोई साफ – साफ कहता भी नहीं. शायद उनका मानना हो कि गाँधी जी ने चाह लिया, तो देश में कानून बन गया. लेकिन आज की तारीख में अहमदाबाद हाई कोर्ट का वक्तव्य भी है कि भारत में कोई राष्ट्रभाषा नहीं है. 
लोग तो कई बार तकरार करते भी देखे गए हैं कि राष्ट्रभाषा, राजभाषा से भिन्न थोड़े ही है. उनको कौन समझाए कि रामू और श्यामू तो भिन्न होंगे ही अन्यथा दोनों रामू या दोनो श्यामू ही होते.
हर लेख में प्रबुद्ध जीवी लिखते मिलते हैं कि अंग्रेजी भारतीय भाषाओं को खाए जा रही है. लेकिन कोई जानना नहीं चाहता कि क्यों?  जो जानते हैं वे भी कहते हैं कि हिंदी को सही मायने में राजभाषा बनाने के लिए यह करना पड़ेगा, वह करना पड़ेगा. ऐसा करेंगे तो विश्वभाषा बन जाएगी, वैसे करेंगे तो वैसे  होगा. सब हवाई बातें. कोई तो नहीं कहता कि मैं शुरु कर रहा/रही हूँ, आप साथ हो लीजिए. सब चाहते हैं कि कोई और करे. कोई भी, सही में मतलब कोई भी आगे बढ़ने को तैयार नहीं है. कहिए कौन आगे बढ़ा है ? सब – के – सब ने (मुझे मिलाकर) यही कहा है कि इसमें यह कमी है, ऐसा करना चाहिए. उस कमी को वैसे दूर किया जा सकता है. किसी को करने की नहीं पड़ी है सब चाहते हैं कि दूसरे करें मैं मात्र कमियाँ बताता रहूँ. सबसे बढ़िया सेवा है यह भारत में –  सलाह, प्रस्ताव देते रहो मुफ्त में और उम्मीद करो कि दूसरे प्रस्ताव को कार्यान्वित करे. फिर अंत में कहते फिरो मैने ही तो आईडिया दिया था ऐसा करने का. कुछ तो यहाँ तक भी कह जाते हैं कि मैंने ही तो करवाया था. हमारे देश की यह बहुत ही बड़ी कमी है. 
हमारे देश के लोग अमेरिका में जाकर सफल क्यों हो रहे हैं ? कारण कि भारतीय वहाँ जाकर प्रस्ताव तैयार करते हैं और वहाँ के लोग उन पर कार्यान्वयन कर लेते हैं. हमारे यहां कार्यान्वयन की बात आती है तो सब खटाई में पड़ जाता है.

इस बात पर मुझे वह चुटकुला याद आता है जो हम पिछले दिनों अक्सर सुना करते थे. किसी विदेशी राजनेता ने भारतीय नेता को अपने देश बुलाया. उसका आलीशान मकान देखकर भारतीय नेता दंग रह गया और पूछ बैठा, इतनी कमाई किस जरिए से हुई. विदेशी ने उसे एक पुल दिखाया और बताया कि मेरा यह घर, इसी पुल के 10 % से बना है. भारतीय ने सोचा कि इसमें तो हम इनसे आगे ही हैं. अपनी साख जताने के लिए, उस राजनेता को अपने देश आने का न्योता दे आया. भारत आने पर विदेशी राजनेता भारतीय का घर देख कर चौंक गया. उसी लहजे में जब विदेशी ने सवाल किया तो, उसने राजनेता को उसी तरह से बताया कि मेरा घर उस पुल के 100 % से बना है. पहले तो विदेशी चौंका – फिर पूछा पुल तो कहीं दिख नहीं रहा. भारतीय ने दोहराया हाँ भई – मेरा घर तो उसके 100 फीसदी से बना है.

हालाँकि यह एक चुटकुला मात्र है किंतु हालात इससे बहुत ज्यादा बेहतर नहीं हैं. कार्यकारी जगहों पर हम कहीं के नहीं रहे. हमसे विश्व स्तर से बेहतर प्रस्ताव बनवा लीजिए. अब सोचिए कि ऐसी हालातों में भी भारत कहाँ से कहाँ पहुँचा है. यदि हम 10 % तक भी सीमित हो गए होते, तो भारत आज कहाँ और कैसा होता .
बस सब किस्मत का खेल है. जो कमाया, कमा गया – देश उसकी सजा भुगत रहा है. देशवासी तो देश के ही अंग हैं.

सबके सब तरीके सुझाते हैं लेकिन किसी की भी सोच नहीं है कि कौन करेगा. न ही किसी को इन सुझावों के क्रियान्वयन की चिंता ही है. काश इस कंप्यूटर युग में किसी से सोचने मात्र से ही काम का क्रियान्वयन हो जाता. शायद एक दिन वह भी होगा और तब हमारी हिंदी विश्व पटल पर आ जाएगी या यों कहिए छा जाएगी. औरों की तो नहीं जानता पर मैं अपनी तो कह ही सकता हूँ कि हिंदी को विश्व पटल पर व्याप्त तभी माना जा सकता है जब आधुनातन       (आद्यतन) संप्रेषण माध्यम से किसी भी दूसरी भाषा में होने वाले सारे कार्य हिंदी में भी संपन्न हो सकें.

इंटरनेट पर आज भी पचासों लेख मिलेंगे जिसमें बताया गया है कि फलाँ देश में इतने स्कूलों में इतने विद्यार्थी हिंदी पढ़ते हैं इतने शिक्षक हिंदी पढ़ाते हैं. इतनी हिंदी की पत्रिकाएँ प्रकाशित होती हैं या फिर भारत से इतने हिंदी के व्याख्याता वहाँ कार्यरत हैं इत्यादि इत्यादि. मेरी नजर में यह सब जीविका उपार्जन हेतु हुआ है, न कि हिंदी को बढ़ावा देने के लिए. कहने को तो मेरे भी 
बहुत से लेख इंटरनेट पर उपलब्ध हैं. इसका मतलब यह नहीं कि मैं हिंदी की इतनी सेवा कर रहा हूँ, मुझे लिखने की आदत हैं और पाठकों की तमन्ना  लिए मैं इसे इंटरनेट पर पोस्ट कर देता हूँ. समय के चलते उनकी संख्या बढ़ती गई. सही मायने में काम करने के लिए हिंदी भाषी वर्ग में उत्कृष्ट भाषायी मनीषियों की एक समिति बननी चाहिए जो अन्यों को काम बाँटते हुए, उसकी प्रगति पर नजर रखे. आवश्कता पड़ने पर कार्यभार किसी और को सौंपे या उसे जल्द से जल्द पूरा करने के लिए अन्य उपाय करे. हमारे यहाँ ऐसा कुछ नहीं है. प्रस्ताव हमने इंटरनेट पर अपलोड कर दिया, तो काम पूरा हो गया. बाकी से क्या वास्ता. मैंने कमियाँ गिना दी, सुधारना मेरा काम थोड़े ही है. हैरानी इस बात की है कि अपने ही देश के एक राज्य हरियाणा में कहावत है – जो बोले वे कुंडा खोले. हम बोलते भी हैं किंतु कुंडा खोलने की सोचते भी नहीं.

विश्व की कितनी कंपनियों के लिए ट्रान्सक्रिप्शन का काम हम भारतीय करते हैं. कितनी कंपनियों को हम छोटे – बड़े सॉफ्टवेयर बना कर देते हैं. क्योंकि इसमें हमें कमाई प्राप्त होती है. देश के लिए करने पर इतनी कमाई तो नहीं होगी ना , तभी तो लोग यह काम अमरीका व खाड़ी देशों में जाकर करने में गौरव महसूस करते हैं. हम आज भी नगाड़ा पीटते हुए मुनादी करते हैं कि फलाँ भारतवंशी ने फलाँ उपाधि हासिल कर लिया, फलाँ तमगा पा लिया और भूल जाते हैं कि उस फलाँ नें भारतीयता त्याग कर उस पश्चिमी देश की नागरिकता प्राप्त कर ली है. हमारे देश का आत्मसम्मान कहाँ चला गया. सरकार भी तो विश्व भर के हिंदुओं को भारत आने का न्यौता दे रही है, विश्व में रहने वाले भारतवंशियों को दोहरी नागरिकता देने का प्रस्ताव रख चुके हैं. क्यों ? जो देश छोड़ गए, उन्हे देश की याद नहीं आती, किंतु देश को उनकी याद आती है. कहिए देश महान या देश का वह नागरिक महान जिसने देश की नागरिकता ही त्याग दी है. एक ने तो कह भी दिया कि हम यहाँ अमनरीकन कहलोने आए हैं न कि भारतवंशी अमरीकन. बहुतों को तो लगता है कि हिंदी को विश्व पटल पर अग्रणी स्थान देने के लिए बहुत काम तो हो ही चुका है बस थोड़ा बहुत और है. लेकिन वे भूल जाते हैं कि आज भी सरकारी संस्थानों में हिंदी के नाम पर हिंदी दिवस ही .

मनाया जाता है. रिकार्ड में बहुत कुछ होता है लेकिन धरातल पर बात इतनी ही है. मैंने हाल ही में पढ़ा है – किसी ने इंटरनेट पर ही कहीं लिखा है कि हिंदी के नाम पर पितृपक्ष के दिनों (कनागतों) में हम हिंदी का प्रतिवर्ष तर्पण कर लेते हैं. सुनने में बाधाजनक, पर अक्षरशः सत्य लिखा है. मैं उनके धैर्य का सम्मान करता हूँ. 
हिंदी में अलग अलग विषयों के विस्तृत शब्दकोश भी उपलब्ध नहीं हैं. कंप्यूटर में प्रयोग के लिए हिंदी में प्रोग्रामिंग लेंग्वेज मेरी जानकारी में तो नहीं ही है. दुनियाँ के सबसे बढ़िया (जैसे कहा जाता है) सर्च एंजिन गूगल के पास भी हिंदी में अनुवाद के लिए पर्याप्त कुशलता उपलब्ध नहीं है. इन सबके लिए केवल भाषण देने से तो काम नहीं ही चलेगा. जमीनी जरूरतों को तो पूरा करना पड़ेगा. करेगा कौन – सब तो दूसरों की तरफ मुँह बाए बैठे हैं. किसी को तो सामने आना होगा. सबसे आसान सा जवाब है कि यह सरकार का काम है. अरे भई सरकार कौन है. प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति ? उनके पास सबसे प्रमुख काम यही रह गया है क्या ?

हिंदी विश्वविद्यालयों के प्रतिष्ठित प्राचार्य, विश्वविद्यालयों में हिंदी के प्रबुद्ध पंडित या हिंदी सचिवालय, हिंदी के नामी – गिरामी लेक- साहित्यकार आगे आकर लगाम क्यों नहीं थामते? केवल इसलिए कि यह मेरी जिम्मेदारी नहीं है. यह मेरा काम नहीं है तो किसका है भाई – तय तो करो – चुप बैठने से सवाल का जवाब नहीं मिलेगा. न ही समय बीतने से य़ा बिताने से – जवाब अपने आप आ जाएगा. इस सवाल का हल वक्त नहीं है. काम, केवल काम करने की जरूरत है, वो भी पूरी निष्ठा से. वह भी एक नहीं अनेकों लोगों द्वारा. संभवतः इसमें ज्यादा भारतीय ही होंगे. इसलिए यह कहना अनुचित नहीं होगा कि भारतीयों द्वारा ही इस काम को अंजाम देना होगा. कंप्यूटर की दुनियाँ में भारत ने इतनी साख पायी है कि मार्क जुकरबर्ग और बिल गेट्स तक कह गए कि यदि मैं भारतीयों को काम पर नहीं लेता तो ऐसा एक नया प्रतिष्ठान भारत में खुल गया होता. मैं उनको नैकरियों पर ऱखकर उनको संलिप्त रखता हूँ कि कोई नई कंपनी 
खोलने की न सोचें, जिससे हमारी रोजी रोटी बची रहे.  लेकिम हमारे भारतीय सॉफ्टवेयर संस्थान व उनके मालिक – कर्मचारी सबको, अपनी कमाई की ही पडी है. वैसे ही भारत सरकार को भी इससे मिलती आमदनी रास आ रही है. फिर हिंदी को विश्व पटल पर रखने की जरूरत किसको महसूस होती है. जो कर सकता है उसको जरूरत नहीं है और जो जरूरत समझता है उसके पास करने की क्षमता नहीं है.  साथ ही साथ विडंबना यह भी कि दोनो वर्गों को एक दूसरे से कोई सरोकार भी नहीं है.

हम भारतीयों के इसी रवैये ने हर महकमें का य़ही हाल बना दिया है. जो आज हिंदी की है. कहीं भी जाईए- विभाग व देश बाद में आता है – पहले होगा मैं और मेरा. मुझे तो बदलते सोच की सोचकर हँसी आती है.. हो सकता है हालात भी मजबूर करते हों.

एक वाकया फिर से (इसलिए कि आप सबने भी जाना-सुना होगा) –  पूर्वजों को देखा है और उनसे सुना भी है कि थाली में परोसे हुए भोजन से यदि पहला ग्रास मुँह में न डाला हो, तो परोसे हुए थाली के खाद्यान्न व व्यंजन द्वार पर आए याचक को समर्पित हो जाते थे. और उस खाने वाले का उस समय का उपवास भी हो जाता था. यदि भोजन करते वक्त याचक आए तो थाली में रखा भोजन ही समापन होता था और परोसा नहीं जाता था. उसके बाद याचक की यथेष्ट संतृप्ति के बाद ही बाकी बचे सदस्यों का भोजन होता था. शायद यह भी एक कारण हो कि पहले सारा परिवार एक साथ भोजन करता था. जिससे  कि सभी को कुछ न कुछ नसीब हो जाया करे. यह बात और थी कि खाद्यान्न की संपन्नता के कारण कोई भूखा नहीं रहता था.
फिर समय आया जब संत कबीर दास ने कहा – 
साईं इतना दीजिए जामे कुटुम समाय,
मैं भी भूखा न रहूँ, साधु न भूखा जाए.
मानसिकता बदल गई. याचक भूखा न रहे, पर मैं भी भूखा न रहू.  अति आवश्यक परिस्थितियों में “मैं”  कभी – कभी भूखा रह भी जाता था. समय के साथ मैं के स्थान पर याचक भी भूखा रहने लग गया. समय ने फिर करवट बदला – अब घर – परिवार के लोग खाने के बाद ही याचक की तृप्ति का सोचा जाने लगा. यदा – कदा कह भी देते – अभी तो घर वालों का ही भोजन नहीं हुआ है. 
अब के हालात यह हैं कि यदि खाना बच भी जाए तो याचक को तो दिया ही नहीं जाएगा. उसे फ्रिज में रखा जाएगा और बाद में या अगले दिन खाया जाएगा. मैंने ऐसा भी देखा है कि होटलों में खाने के बाद बची सब्जियों को भी पैक कर, घर के फ्रिज में रखकर, बाद में खाया जा रहा है.
यदि कोई कार में कहीं जा रहा है और दूसरा उस तरफ जाने की विनती करे तो पहले लगता था – ले चलो क्या फर्क पड़ता है (मेरा क्या जाएगा – मैं अपने कंधों पर थोड़े ही ले जा रहा हूँ) . ईँधन तो उतना ही जलना है. लेकिन अब लोग सोचने लगे हैं कि उसे ले जाऊँगा तो मुझे क्या मिलेगा? क्या जाएगा से क्या मिलेगा तक का सफर बहुत ही दर्दनाक है.
एम.आर.अयंगर
आईए लौटते हैं भाषा की तरफ. पहले पूर्वजों ने शेक्सपीयर की पूरी रचनाएँ केवल इसलिए पढ़ीं कि उनकी कक्षा में मर्चेंट ऑफ वेनिस की कहानी थी या अंग्रेजी में एज यू लाईक इट की कहानी या किताब पढ़ाई गयी थी. कोर्स में केवल कहानी थी बाकी ज्ञानार्जन था. इसी तरह भाषाएं भी सीखी गईं कि और किताबें पढ़ सके और ज्यादा ज्ञानार्जन हो सके. किंतु आज कोर्स की किताब में पाठ के पीछे दिए सवालों के अलावा आगे पढ़ने की जरूरत ही नहीं है. पढ़ना केवल परीक्षा पास करने के लिए ही है. इसीलिए ज्ञान की बात तो कोई करता नहीं. जो करते हैं वे बहुत ही उम्दा पदों पर आसीन हो गए हैं.
इस तरह हमने जिंदगी की हर विधा में अपने आपको अलग कर लिया है केवल मकसद से काम रखो बाकी – जय राम जी की. तो उन्नति कहाँ से होगी?
उन्नति के लिए हमें जरूरत से ज्यादा काम करना होगा. यदि दिन का खर्च 200 रुपए हैं तो जो उससे ज्यादा कमाएगा तो वही न बचाएगा. और वह कमाने को तैयार है ही नहीं. खाने के लिए जितना चाहिए उतना मिला कि काम बंद. फिर प्रगति की बात करना बेमानी ही होगी ना. ऐसा ही है मेरे भाई हमारी हिंदी की भी हालत. हम कुछ करेंगे नहीं लेकिन चाहेंगे कि हिंदी विश्व पटल पर सबसे संपन्न भाषा बन जाए.
बचपन में ही पढ़ लिया था –
उद्यमेन हि सिद्ध्यंते, कार्याणि न मनोरथैः,
न हि सुप्तस्य सिंहस्त प्रविशंति मुखे मृगाः.
मैंने विश्व या भारत में हिंदी की हालातों का ब्यौरा देने के लिए नहीं किंतु हिंदी वाले मनीषियों का ब्यौरा देने कि लिए यह लेख लिखा हूँ. वे हिंदी वाले – प्रबुद्ध जीवी जो हिंदी की उत्तरोत्तर वृद्धि को अपने कंधों पर ढ़ोए चल रहे हैं उनके लिए.
मैं सारे हिंदी प्रेमियों से कहना चाहता हूँ कि या तो हम सब मिलकर आगे बढ़ने के लिए कुछ करें – मात्र सोचें नहीं. या फिर हिंदी को विश्व पटल पर देखने के सपने को भूल जाएँ. 

यह रचना माड़भूषि रंगराज अयंगर जी द्वारा लिखी गयी है . आप इंडियन ऑइल कार्पोरेशन में कार्यरत है . आप स्वतंत्र रूप से लेखन कार्य में रत है . आप की विभिन्न रचनाओं का प्रकाशन पत्र -पत्रिकाओं में होता रहता है . संपर्क सूत्र – एम.आर.अयंगर. , इंडियन ऑयल कार्पोरेशन लिमिटेड,जमनीपाली, कोरबा. मों. 08462021340

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