संध्या सुंदरी कविता की व्याख्या भावार्थ मूल भाव प्रश्न उत्तर

संध्या सुंदरी कविता निराला 

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संध्या सुंदरी कविता की व्याख्या भावार्थ

दिवसावसान का समय 
मेघमय आसमान से उतर रही है 
वह संध्या-सुंदरी परी-सी 
धीरे धीरे धीरे 
तिमिरांचल में चंचलता का नहीं कहीं आभास, 
मधुर-मधुर हैं दोनों उसके अधर,— 
किंतु गंभीर,—नहीं है उनमें हास-विलास। 
हँसता है तो केवल तारा एक 
गुँथा हुआ उन घुँघराले काले बालों से, 
हृदय-राज्य की रानी का वह करता है अभिषेक। 

व्याख्या – प्रस्तुत पंक्तियों मे कवि निराला जी संध्या रूपी सुंदरी का सुंदर शब्द चित्र प्रस्तुत करते हुए लिखते हैं कि दिन न बीतने वाला था , आकाश मे बादल छाए हुए थे ,ऐसे समय मे संध्या रूपी सुंदरी एक परी के समान धीरे – धीरे आकाश से उतर रही थी । संध्या रूपी परी के काले आँचल के हिलने से उसकी चंचलता का अनुमान होता था अर्थात निरंतर फैलता चला जा रहा था । संध्या रूपी परी के दोनों मधुर होंठ धीमी मुस्कराहट लिए थे ,किन्तु वे होंठ कुछ गंभीर थे । उस परी के होंठों पर हास – विलास के चिह्न नहीं थे । उस संध्या रूपी परी के काले बालों मे गुंथा हुआ एक सितारा ही अकेला मुस्करा रहा था । मानों वह अपनी हृदय की रानी संध्या रूपी सुंदरी का तिलक कर रहा था । इस प्रकार संध्या को परी के रूपक के माध्यम से प्रस्तुत करने से वर्णन सरस एवं सजीव बन गया है । 

विशेष – प्रस्तुत पंक्तियों मे निम्नलिखित विशेषताएँ दृष्टिगत है – 

  1. अयोध्या सिंह उपाध्याय जी का प्रिय प्रवास महाकाव्य भी संध्या के ऐसे ही वर्णन से प्रारम्भ होता है । 
  2. संध्या का मार्मिक रूपक प्रस्तुत किया गया है । 
  3. छायावाद की प्रवृत्ति के अनुरूप कोमल कान्त पदावली का प्रयोग किया गया है । भाषा तत्सम शब्दावली प्रधान तथा बिम्बात्मक है । 
  4. संध्या सुंदरी परी सी मे उपमा अलंकार है । मानवीकरण ,रूपक ,उत्प्रेक्षा तथा पुनरुक्ति प्रकाश अलंकारों का प्रयोग भी हुआ है । 
  5. भाषा परिष्कृत खड़ी बोली है तथा रस शृंगार है । 

संध्या सुंदरी कविता की व्याख्या भावार्थ मूल भाव प्रश्न उत्तर

अलसता की-सी लता 

किंतु कोमलता की वह कली, 
सखी नीरवता के कंधे पर डाले बाँह, 
छाँह-सी अंबर-पथ से चली। 
नहीं बजती उसके हाथों में कोई वीणा, 
नहीं होता कोई अनुराग-राग आलाप, 
नुपुरों में भी रुन-झुन रुन-झुन रुन-झुन नहीं, 
सिर्फ़ एक अव्यक्त शब्द-सा “चुप चुप चुप” 
है गूँज रहा सब कहीं,— 

व्याख्या – कवि का कहना है कि संध्या आलस्य की बेल की तरह अर्थात आलस्य की भांति फैलती जा रही थी परंतु उसका रूप अत्यधिक कोमल था । शांति रूपी अपनी सहेली के कंधों पर बांह रखकर संध्या रूपी सुंदरी पृथ्वी की ओर आ रही थी । यहाँ पर कवि ने संध्या को सजीव बना दिया है और उसमें मानवीय गुण भर दिये हैं । संध्या एक छाया की तरह अर्थात अत्यंत सूक्ष्म रूप मे आकाश के मार्ग से चल पड़ी ,पृथ्वी की ओर निकल आई । 
आज इस के हाथों मे कोई वीणा बजती हुई नज़र नहीं आती अर्थात यह संध्या चुपचाप आ रही है । यह किसी प्रकार का राग अथवा अनुराग भरा गीत नहीं गा रही है । इसके घुंघरुओं की रुंझुन की आवाज भी नहीं सुनाई पड़ती है । केवल एक अस्पष्ट और हल्का सा स्वर चुपचाप का सुनाई पड़ रहा है । अर्थात चारों ओर सन्नाटा छाया है । 
विशेष – प्रस्तुत पंक्तियों मे निम्नलिखित विशेषताएँ दृष्टिगत है – 
  1. तत्सम शब्दावली प्रधान भाषा का प्रयोग हुआ है । 
  2. संध्या का मानवीकरण किया गया है । 
  3. संध्या को कोमलता की कली ,अलसता की लता आदि कहकर रूपक अलंकार का प्रयोग किया गया है । 
  4. निराला ने संध्या को अभिसारिका नायिका के रूप मे चित्र किया है जो कि अपने प्रियतम से मिलने दबे पाँव से जा रही है । 
  5. उपरोक्त पंक्तियों मे रस शृंगार है , शब्द शक्ति लक्षणा है तथा भाषा खड़ी बोली है । 
व्योममंडल में—जगती-तल में—
सोती शांत सरोवर पर उस अमर कमलिनी-दल में— 
सौंदर्य-गर्विता-सरिता के अति विस्तृत वक्ष-स्थल में— 
धीर वीर गंभीर शिखर पर हिमगिरि-अटल-अचल में— 
उत्ताल-तरंगाघात-प्रलय-घन-गर्जन-जलधि-प्रबल में— 
क्षिति में—जल में—नभ में—अनिल-अनल में— 
सिर्फ़ एक अवयक्त शब्द-सा “चुप चुप चुप” 

व्याख्या – प्रस्तुत पंक्तियों मे कवि निराला जी कहते हैं कि सारे आकाश मे , पूरी पृथ्वी पर ही नहीं , बल्कि शांत सरोवर मे खिलने वाली उज्ज्वल कमलियों मे भी चुप – चाप ध्वनि सोयी हुई है । अपने सौंदर्य पर गर्व करने वाली नदी की विशाल छाती मे चुप कर यह ध्वनि सोयी हुई थी । यह संध्या की ध्वनि धैर्यवान , वीर तथा हिमालय की अटल , अचल और गहन चोटियों मे सोयी हुई थी । प्रलयकारी भयंकर बादलों के गर्जन , भयंकर समुन्द्र मे तथा उदण्ड किनारों से निरंतर टकराती हुई लहरों मे यही चुप – चुप ध्वनि सोयी थी । 
कविवर निराला जी कहते हैं कि पृथ्वी पर ,जल पर ,आकाश मे ,वायु मे तथा आग मे केवल एक ही स्वर बार – बार गूँजता था और वह था – चुप ,चुप ,चुप 
विशेष – प्रस्तुत पंक्तियों मे निम्नलिखित विशेषताएँ दृष्टिगत है – 
  1. तत्सम शब्दवाली प्रधान , समास युक्त भाषा का सुंदर प्रयोग हुआ है । ठोस विशेषणों से कविता अधिक बिम्बात्मक बनी है । 
  2. संध्या का मानवीकरण हुआ है । रूपक , उप्मा तथा मानवीकरण अलंकारों का प्रयोग हुआ है । अव्यक्त शब्द सा चुप -चुप मे विरोधाभाष अलंकार है । 
है गूँज रहा सब कहीं, — 
और क्या है? कुछ नहीं। 
मदिरा की वह नदी बहाती आती, 
थके हुए जीवों को वह सस्नेह 
प्याला वह एक पिलाती, 
सुलाती उन्हें अंक पर अपने, 
दिखलाती फिर विस्मृति के वह कितने मीठे सपने। 
अर्द्धरात्रि की निश्चलता में हो जाती वह लीन, 
कवि का बढ़ जाता अनुराग, 
विरहाकुल कमनीय कंठ से 
आप निकल पड़ता तब एक विहाग। 

व्याख्या – प्रस्तुत पंक्तियों मे कवि लिखते हैं कि चुप चुप चुप का शब्द सब स्थानों पर गूँज रहा है । इस शब्द के सिवा पूरे वातावरण मे कहीं कुछ नहीं है । यह संध्या मानो मदिरा की नदी बहाती हुई आती है अर्थात संध्या के प्रभाव मे सभी जीवन विश्राम करते हैं ,थकावट से मुक्त होते हैं मानों उन्होने संध्या के हाथों शराब का प्याला पी लिया हो । यह संध्या सभी जीवों को अपनी गोद मे सुलाती है तथा उन्हे मदहोशी अथवा विस्मृति के सपनों से भर देती है । कहने का भाव यह है कि संध्या गहरी होने पर ,रात के समय सभी प्राणी सो जाते हैं और चिंताओं से मुक्त होकर सपने देखते हैं । आधी रात के सन्नाटे मे यह संध्या धीरे – धीरे खो जाती है । रात्रि के बीतते – बीतते कवि संध्या से प्रेम करने लगता है और उसकी विदाई पर अनायास ही उस विरह भरे गले से विहाग राग फुट पड़ता है । संध्या , कवि के गीतों जन्म देती है । 
संध्या के समय प्राणीओं मे विश्राम करने का भाव प्रबल हो जाता है । कवि कल्पना करता है कि संध्या शराब की नदी बहाती है जिससे मदिरा पी कर सारा विश्व मस्ती मे डूब जाता है । संध्या के प्रभाव से कवि की कविता प्रकट होती है । 
विशेष – प्रस्तुत पंक्तियों मे निम्नलिखित विशेषताएँ दृष्टिगत है – 
  1. संवाद शैली द्वारा कविता की सजीवता को बढ़ाया गया है । 
  2. मुक्तक छंद की लय का आनंद लिया जा सकता है । 
  3. भाषा तत्सम शब्दावली प्रधान है । 
  4. संध्या को प्रेयसी के रूप मे चित्रण किया गया  है । यहाँ रूपक अलंकार का प्रयोग हुआ है । 
  5. इस पढ़यांश मे रस शृंगार है , शब्द शक्ति लक्षणा है तथा मुक्त छंद का प्रयोग हुआ है । 

संध्या सुंदरी कविता के प्रश्न उत्तर

प्र। ‘संध्या सुंदरी ‘ के जैसे रूप सौंदर्य का वर्णन कवि ने अनेक उपमानों और प्रतिकों के सहारे किया है । ‘ उसे अपने शब्दों मे लिखिए । 

उ। कविवर निराला ने संध्या रूपी सुंदरी का चित्र अत्यंत मनोहारी ढंग से चित्रित किया है । आप लिखते हैं कि दिन ढलने पर ,बादलों से भरे आकाश से संध्या रूपी सुंदरी एक परी के समान धीरे – धीरे उतर रही थी । उसका काला आँचल भी अत्यंत शांत था । आकाश मे कहीं भी कोई हलचल नहीं थी । उसके दोनों होंठ अत्यंत सुंदर लग रहे थे । उसके होंठों पर हास – विलास न होकर मंद मुस्कराहट थी । एक चमकीला सितारा उसके काले बालों मे गूँथा हुआ मानों उसका सिंचन कर रहा था । यह संध्या रूपी नीरवता के कंधे पर बांह रखकर धीरे – धीरे पृथ्वी पर उतर रही है । कवि ने संध्या सुंदरी के लिए परी – सी ,अलसता की सी लता तथा छाँह सी उपमान दिये हैं । यहाँ पर तारा बालों मे गूँथे फूल का , कली नव यौवन की तथा लता सुकोमल युवती का प्रतीक है । 

निराला
निराला

प्र। संध्या की नीरवता सर्वत्र व्याप्त थी – यह भाव कवि ने किस कौशल से अभिव्यक्त किया है ?


उ। संध्या रूपी परी मानों नीरवता के गले मे बाँह डालकर कर पृथ्वी पर उतर कर आ रही है । उसके हाथ मे वीणा नहीं और न ही उसके पाँवों मे घुंघरू बज रही है । न ही यह कोई प्रेम भरा गीत गा रही है । एक सन्नाटा सा चारों ओर छाया हुआ है । यह सन्नाटा आकाश मे भी है और पृथ्वी पर भी । शांत सरोवर मे कमलिनियों मे भी यही सन्नाटा है तथा अपने सौंदर्य पर गर्व करने वाली नटी मे भी । विशाल , ऊंचे – ऊँचे पर्वत मे भी सन्नाटा है और पृथ्वी ,जल तथा आकाश मे भी । इस प्रकार कवि ने संध्या की नीरवता का सुंदर चित्रण किया है । 
प्र। थके हुए प्राणीयों के प्रति संध्या का व्यवहार कैसा है ?

उ। थके हुए प्राणिओं के प्रति संध्या का व्यवहार प्रेममय है । संध्या मानों मदिरा की नदी बहाती हुई आती है और सबकी थकान दूर करने के लिए उन्हे मदिरा पिला देती है । जीव मात्र की क्लांति को दूर करना ही संध्या सुंदरी का लक्ष्य है । संध्या प्रेयसी की तरह उनका स्वागत करती है ,उनकी सेवा करती है । 
प्र। अर्द्ध रात्रि की निश्चलता मे कवि का अनुराग बढ़ जाता है , किन्तु उसके कंठ से विहाग के स्वर फूट पड़ते हैं , क्यों ?

उ। अर्द्ध – रात्रि के गहरे सन्नाटे मे संध्या खो जाती है । उस सन्नाटे मे , एकांत मे कवि के हृदय मे जीवन के प्रति प्यार उमड़ पड़ता है , उसके हृदय मे जीवन को अधिक सार्थक और सुखमय बनाने की ललक पैदा होती है । यही कारण है कि कवि के कंठ से विहाग राग अर्द्ध – रात्रि को फूट पड़ता है ।  

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