कचरे की टोकरी में शिकायत चली गई
इसलिए मेरे मुल्क की बरक़त चली गई,
उसके सत्य बोलने की आदत चली गई।
वो झूठ पर जो झूठ बोलता है इसलिए,
अच्छे दिनों की अच्छी हालत चली गई।
हौंसला तो किया था दर्दे दिल का मगर,
कचरे की टोकरी में शिकायत चली गई।
कुछ लोग थे भूख से दम तोड़ते रह गए,
किसी और की जेबों में राहत चली गई।
आदमी से आदमी डरने लगा आजकल,
कहां मेरे मुल्क की इंसानियत चली गई।
दहशत में इसलिए है, मासूम सा शहरी,
क़ातिलों के हाथ में सियासत चली गई।
तार तार हो चुकी गंगा-जमुनी तहज़ीब,
ग़लत लोगों के हाथ रियासत चली गई।
उससे गुफ्तगू को मेरा दिल नहीं करता,
उसकी बातों से दूर लियाकत चली गई।
कहां ढूंढते हो मौहब्बत का आशियाना,
वो ज़फ़र नफ़रत की हिरासत चली गई।
– ज़फ़रुद्दीन ज़फ़र
एफ-413,
कड़कड़डूमा कोर्ट,
दिल्ली-32,
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