हिंदी :विविध आयाम

आनंद पाटिल द्वारा संपादित पुस्तक हिंदी : विविध आयाम’ (2012)
में अलग-अलग पहलुओं से ‘हिंदी भाषा’ पर चिंतनपरक लेख संकलित हैं। लेखकों
ने अपने लेखों में हिंदी की सार्वभौमिकता से लेकर इंडिक लोकलाइजेशन की
विकास यात्रा तक का गंभीर विचार संप्रेषित किया है। हिंदी की स्थिति और गति
को रेखांकित करते हुए उसे पूर्ण रूप से देश के प्रशासनिक कार्य के लिए
लागू करने के लिए जन-आंदोलन की आवश्यकता की ओर भी ध्यान आकर्षित किया गया
है।
हिंदी
लेखन सार्वभौमिक और बहुआयामी बन रहा है। समय की मांग के अनुसार उसमें
नए-नए विषयों की अभिव्यक्तियाँ बढ़ती जा रही हैं। हिंदी में मौलिक और अनूदित
रूप में विभिन्न विषयों से संबद्ध सामग्री के प्रकाशन के अलावा उन पर
रचनात्मक समीक्षा भी प्रस्तुत की जा रही है। आजीविका के माध्यम के रूप में
आज हिंदी समृद्ध होती जा रही है। परंपरागत व्यवसाय जैसे अध्यापन और
पत्रकारिता की सीमा से निकलकर हिंदी ने अपना विस्तार करना आरंभ कर दिया है।
“साहित्य से इतर क्षेत्रों यथा कंप्यूटर साइंस, इंजीनियरिंग, मेडिकल
साइंस, राजनीति विज्ञान, मनोविज्ञान, अर्थशास्त्र आदि अनुशासनों में हुए
अनुसंधानों पर हिंदी में लगातार मौलिक/अनूदित पुस्तकें आ रही हैं तथा इनकी
तकनीकी शब्दावली हिंदी को अधिकाधिक समृद्ध बना रही है।” (सुरेश पंडित, समय में असरदार हस्तक्षेप करता हिंदी लेखन, पृ.25)।”

कुछ
दशकों पहले तक लोगों में आम धारणा बनी हुई थी कि हिंदी केवल साहित्य की
भाषा है और केवल पाश्चात्य भाषाओं या अंग्रेजी से तकनीकी एवं वैज्ञानिक
विषयों की जानकारी प्राप्त की जा सकती है, ज्ञान-विज्ञान की भाषा तो केवल
अंग्रेजी ही है आदि। इस प्रकार का विचार भारत जैसे बहुभाषी देश में
राजनैतिक स्वार्थ की वजह से उत्पन्न हुआ था और आज भी बना हुआ है। लेकिन जब
से सूचना-प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में हिंदी ने अपने कदम बढ़ाए हैं तब से
विज्ञान, खेल, अर्थ, व्यापार, प्रतियोगिता, फिल्म, कानून, ज्योतिष आदि की
जानकारी हिंदी के माध्यम से पाठक तक बड़ी सुलभता से पहुँच रही है। बाजार में
हिंदी खूब चल रही है। विदेशी कंपनियों ने इसकी प्रयोजनमूलक शक्ति को
पहचाना है। “अमेरिका, रूस, चीन आदि बड़े-बड़े देशों के बाजार भारत में आने को
उत्सुक हैं और हिंदी के महत्व को समझकर अपना रहे हैं।” (डॉ राजीव कुमार रावत, वैश्विक प्रतिस्पर्त्धात्मक युग में हिंदी की प्रासंगिकता, पृ.175)।”
विश्व बाजार की मजबूरी है हिंदी। इसमें कोई संदेह नहीं है कि भारत में
व्यापार की प्रमुख भाषा के रूप में हिंदी का विकास होता जा रहा है।
“भूमंडलीकरण के दौर में एक महत्वपूर्ण विश्व भाषा के रूप में हिंदी के
विकास की अनंत संभावनाएं हैं। कारण कि हिंदी की ज्ञानविषयक बहुआयामी
प्रासंगिकता बढ़ रही है। अब हिंदी केवल साहित्य की भाषा नहीं रही।”(डॉ मिथिलेश कुमार सिन्हा, भूमंडलीकरण:हिंदी के विकास की संभावनाएं और चुनौतियाँ, पृ.349)।”

भारत का
जागरूक नागरिक यह अच्छी तरह जानता है कि भारत में हिंदी के नाम पर बहुत
बड़ी राजनीति की गई है। देश की जनसंख्या का बहुत बड़ा भाग हिंदी जानता था,
जानता है किंतु भारत में उच्च शिक्षा के माध्यम और सरकारी कामकाज की मुख्य
भाषा के रूप में अंग्रेजी को बढ़ावा देकर ‘अंग्रेजी हटाओ-हिंदी लाओ’ की बात
को दिवास्वप्न लगने जैसा बना दिया गया। ‘अंग्रेजी का विरोध न करें – हिंदी
का प्रचार प्रसार करें’ को अधिक तरजीह देकर भारत की सरकार ने जो गलती की है
उसे सुधारने का समय आ गया है। आज प्रश्न केवल हिंदी का नहीं, भारत की
समस्त भाषाओं की अस्मिता और सम्मान का है। अपनी भाषाओं की प्रतिष्ठा के लिए
भाषाओं में अंग्रेजी की घुसपैठ को समझना अधिक ज़रूरी हो गया है। “भारत में
अंग्रेजी के प्रवेश और उसके प्रयोग के इतिहास पर यदि गौर किया जाए तो सिद्ध
हो जाता है कि उसका उद्देश्य अपने स्वार्थ के लिए भारत में ऐसे नौकरशाह
पैदा करना था जो सामान्य जनता से स्वयं को विशिष्ट समझें और उन पर
अंग्रेजों के लिए राज करें, उनमें लगातार हीनभावना पैदा करें। हिंदीतर
प्रदेशों के राजनायकों के साथ साथ जनता को भी यह समझने तथा स्वीकार करने की
आवश्यकता है कि प्रांतीय भाषाओं के विकास में असली बाधा हिंदी नहीं है।” ( डॉ पूनम पाठक, हिंदी और प्रांतीय भाषाएँ: कुछ विचार, कुछ प्रश्न, पृ.202)।”
हिंदी देश की समस्त जनता और सभी भाषाओं के बीच एक अटूट सेतु का काम करने
में पूरी तरह सक्षम है। हिंदी और भारत की सभी राष्ट्रीय भाषाओं को
सम्मानजनक स्थान दिलाना सभी भारतीयों का कर्तव्य है।

स्वतंत्रतापूर्व
हिंदी  प्रेमियों ने हिंदी और देवनागरी के प्रचार-प्रसार के लिए निस्वार्थ
भाव से कार्य किया था। भारत को स्वतंत्र करने में हिंदी को माध्यम बनाने
की गांधीजी की दूरदृष्टि को साकार रूप मिला था। लेकिन स्वतंत्रता के पश्चात
सरकार की लचीली और निष्प्रभावी भाषागत नीतियों ने हिंदी के साथ-साथ
संविधान की 8वीं अनुसूची में शामिल सभी भाषाओं के प्रचार-प्रसार को धीमा और
अंग्रेजी के विस्तार को तेज करने में बहुत बड़ी भूमिका निभाई है। सरकारी
तंत्र का लगाव अंग्रेजी से अधिक होने के कारण ही हिंदी और भारत की अन्य
भाषाओं के प्रयोक्ताओं के मन में यह बात बैठ गई कि सरकारी नौकरियों के लिए
अंग्रेजी माध्यम से उच्च शिक्षा प्राप्त करना जरूरी है। इसके अतिरिक्त
भारतीयों में अपनी भाषाओं के प्रति उदासीन होने की मानसिकता ने भी अंग्रेजी
को बढ़ावा दिया है। स्वतंत्रता के 65 वर्षों के बाद भी यदि हम फूल की
पंखुड़ियों को तोड़ते हुए अंग्रेजी या हिंदी, हिंदी या अंग्रेजी करते बैठे
रहेंगे तो आने वाले समय में भाषायी गुलामी के दलदल से बाहर निकलना असंभव हो
जाएगा। समय आ गया है कि हम अपनी भाषाओं को बचाने, उन्हें प्रतिष्ठित करने
के लिए, मेरे विचार से पाँच चरणों को अपना सकते हैं। सबसे पहले तो, अपनी
भाषाओं को अंग्रेजी की तुलना में कमजोर और दोयम दर्जे का समझना छोड़ दें।
दूसरे, संविधान द्वारा प्रदत शक्तियों का उपयोग कर अपनी भाषाओं के प्रयोग
को बढ़ाएँ। तीसरे, विरोधियों को भाषायी प्रयोग से संबद्ध प्रावधानों से अवगत
कराकर समझाएँ। चौथे, आवश्यक हो तो डराएँ भी। पांचवें, जिस तरह हिंदी को
स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान विचार-विनिमय के एक सशक्त माध्यम के रूप में
सभी देशवासियों ने अपनाया था उसी तरह हिंदी के लिए जनांदोलन करें, उसका
हिस्सा बनें। “संवैधानिक प्रावधानों और राजभाषा नियम/अधिनियम आदि के अनुरूप
देश भर में हिंदी अनुवादकों और राजभाषा अधिकारियों की एक बड़ी जमात खड़ी हो
चुकी है। साथ ही विभिन्न विद्यालयों/विश्वविद्यालयों के हिंदी अध्यापकों की
विशाल फौज भी है। मीडिया में भी हिंदी की रोटी खाने वाले जत्थे-के-जत्थे
हैं। इन सबको मिलकर अपने-अपने कार्यक्षेत्र में हिंदी के लिए संघर्ष का
सूत्रपात करना चाहिए। अलग-अलग क्षेत्र के संघर्ष के ये सूत्र मिलकर संगठित
होकर हिंदी के पक्ष में एक बड़ा व्यापक जन आंदोलन खड़ा कर सकते हैं और हिंदी
को उसका संविधानसम्मत स्थान दिला सकते हैं।” (प्रो. ऋषभ देव शर्मा, हिंदी के लिए जनांदोलन और संघर्ष, पृ.130)
गांधी जी ने देश को अंग्रेजों के कुशासन से स्वतंत्र करने के लिए ‘करो या
मरो’ और ‘जेल भरो’ जैसे नारे दिए थे। भविष्य में हमे हिंदी को उसका
संवैधानिक अधिकार दिलाने के लिए कहीं ऐसे किसी नारे की आवश्यकता न पड़े!

‘हिंदी : विविध आयाम’ के
द्वारा आनंद पाटिल ने केवल हिंदी ही नहीं देश के सभी भाषा सेवियों,
प्रेमियों, कर्मियों में भाषायी चेतना जगाने का जो प्रयास किया है वह
सराहनीय है। भाषा चिंतन पर केंद्रित ऐसी पुस्तकें सभी भाषाओं में, साथ ही
अंग्रेजी में भी प्रकाश में आनी चाहिए ताकि केवल अंग्रेजी पढ़ने वाले
प्रबुद्ध पाठक भी देश पर मंडरा रहे भाषायी संकट को अच्छी तरह समझ सकें।
इलेक्ट्रानिक मीडिया में भी इसके संबंध में चर्चा आवश्यक है। यह भी समझने
की ज़रूरत है कि देश की भाषाओं को संकट से बचाने का उत्तरदायित्व केवल
भाषाकर्मियों का नहीं है, सभी भाषा प्रयोक्ताओं का है। इस दिशा में
इलेक्ट्रानिक मीडिया विशेष भूमिका निभा सकता है। भारत के समकालीन भाषायी
यथार्थ के ये तमाम पहलू इस ग्रंथ में विवेचित हैं। यह विवेचन देश भर के
विद्वानों और विशेषज्ञों की एकाधिक पीढ़ियों द्वारा किया जाने के कारण
अत्यंत प्रामाणिक और सटीक भी बन पड़ा है। आशा की जानी चाहिए कि हिंदी की
कुंठाहीन व्यापक स्वीकृति को इस ग्रंथ से अवश्य ही बल मिलेगा।
  • ि  : ि िि  /  :  ि / 2012 / क : ि , 98-, ि , ि,  ि  110002 / य : 600 / ठ : 384

  •   
अवर प्रबंधक (राजभाषा)
बी  डी एल, भानूर – 502305
दूरभाष – 09293228460    

You May Also Like